अब भी कई पेच हैं इस कहानी में
एक जबर्दस्त सियासी तमाशे के बाद जुलाई के आखिरी दिनों में बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पदभार संभाला था। इस ड्रामे में छल-कपट, सांविधानिक संकट, अदालती कार्यवाही और नाराजगी, सब कुछ...
एक जबर्दस्त सियासी तमाशे के बाद जुलाई के आखिरी दिनों में बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पदभार संभाला था। इस ड्रामे में छल-कपट, सांविधानिक संकट, अदालती कार्यवाही और नाराजगी, सब कुछ शामिल था। मगर सूबे का राजनीतिक संकट खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है, क्योंकि सत्ताधारी भाजपा और विपक्ष, दोनों राजनीतिक प्रक्रिया को फिर से शुरू करने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।
येदियुरप्पा कर्नाटक को गंभीर शासन देने में विफल दिख रहे हैं, क्योंकि न तो उन्हें सदन में बहुमत हासिल है और न ही वह इस धारणा को झटकने में सफल हो पा रहे हैं कि उन्हें भाजपा आलाकमान का पूरा भरोसा हासिल नहीं है। कभी कर्नाटक में पार्टी के सबसे सशक्त नेता माने जाने वाले येदियुरप्पा आज खुद को दो कठिन स्थितियों के बीच फंसा हुआ पा रहे हैं। राजनीति और प्रशासन, दोनों पर उनकी पकड़ कमजोर पड़़ी है।
उनका पहला खराब फैसला यह रहा कि उन्होंने बेलगावी में आगामी विधानसभा सत्र के आयोजन पर रोक लगा दी। पिछले छह वर्षों से शीतकालीन सत्र बेलगावी में आयोजित होता रहा है। इसे कर्नाटक की दूसरी राजधानी माना जाता है। यह कवायद दरअसल राज्य के उस क्षेत्र के लोगों को भरोसा दिलाने की एक कोशिश थी कि वे खुद को उपेक्षित न महसूस करें और उन्हें भी भरपूर महत्व हासिल है। येदियुरप्पा ने प्रशासनिक समस्याओं का हवाला देते हुए वहां विधानसभा सत्र के आयोजन को स्थगित कर दिया, क्योंकि कृष्णा नदी के उफनने के कारण इलाके के 22 जिले बाढ़ में डूबे हैं। हकीकत यह है कि लचर राहत कार्यों के कारण लोग प्रशासन से बेहद खफा हैं। एक स्थानीय विधायक ने जब अपना बागी तेवर दिखाया कि पार्टी उनके जैसे नेताओं की अनदेखी कर रही है, जिन्होंने उसके लिए काफी कुछ किया है, तो आलाकमान ने फौरन उसे कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया।
विपक्ष का आरोप है कि मुख्यमंत्री येदियुरप्पा समस्याओं से भाग रहे हैं, क्योंकि बेलगावी में सत्र का आयोजन होता, तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ता। बाढ़ के कारण इलाके के करीब 80 लोगों को जान गंवानी पड़ी, जबकि दो लाख से अधिक लोग राहत शिविरों में पनाह लेने को विवश हैं। करीब आठ लाख हेक्टेयर भूमि जलमग्न हुई है, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है।
येदियुरप्पा खुद को मुश्किल में इसलिए भी पा रहे हैं, क्योंकि एक तरफ भाजपा केंद्रीय आलाकमान ने उनके पर कतर दिए हैं और निर्णायक शक्ति अपने हाथों में ले ली है- जैसे मंत्रियों के विभाग बंटवारे से लेकर टिकट वितरण तक, बल्कि बाढ़ग्रस्त इलाकों में राहत कार्यों के वास्ते आपदा मदद हासिल करने में भी येदियुरप्पा को काफी इंतजार करना पड़ा। दूसरी तरफ, उन्हें कांग्रेस और जनता दल(एस) के अयोग्य करार दिए गए विधायकों को भी खुश रखना पड़ रहा है, जिन्होंने सरकार बनाने में उनकी मदद की, इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट को अभी फैसला देना है कि वे उप-चुनाव लड़ भी सकते हैं या नहीं।
भाजपा नेता पार्टी में बागी विधायकों के भविष्य पर ऐसी-ऐसी टिप्पणियां कर दे रहे हैं, जिनसे मुख्यमंत्री की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। भाजपा विधायक उमेश कट्टी ने हाल ही में यह बयान दे डाला कि कागवाड विधानसभा क्षेत्र के उप-चुनाव में पार्टी कार्यकर्ता को टिकट मिलेगा, किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं। अंतत: मुख्यमंत्री को आगे आना पड़ा। बागी विधायकों को उन्हें आश्वस्त करना पड़ा कि उनका पूरा ख्याल रखा जाएगा और उन्हें भाजपा का टिकट मिलेगा। येदियुरप्पा ने खुद भी माना है कि उन्हें कोई फैसला करने से पहले कई बार सोचना पड़ रहा है। वह अपने बेटे विजेंद्र को पार्टी में एक अहम पद देना चाहते थे, पर नवनियुक्त भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार कटील ने उनके इरादे पर यह कहते हुए पानी फेर दिया कि इससे वंशवादी राजनीति को बढ़ावा मिलेगा।
वैसे, विपक्ष भी भाजपा का मुकाबला करने के लिए किसी तरह की एकजुटता दिखाने की कोशिश नहीं कर रहा, क्योंकि वह अपने ही आंतरिक संघर्षों में उलझा हुआ है। विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस-जेडी(एस) ने जो गठबंधन खड़ा किया था, वह अब खत्म-सा हो चुका है। लोकसभा चुनावों में गठबंधन के बेहद लचर प्रदर्शन ने विपक्षी एकता को ध्वस्त ही कर दिया।
बहरहाल, अयोग्य करार दिए गए विधायकों की सीट पर उप-चुनाव होने वाले हैं और ये चुनाव सत्ता और विपक्ष, दोनों के लिए करो या मरो की स्थिति जैसे हैं। ये उप-चुनाव तय करेंगे कि 224 सदस्यीय सदन में भाजपा 112 की संख्या को पार करेगी या नहीं। 17 सदस्यों को अयोग्य करार दिए जाने के बाद सदन की सदस्य क्षमता अभी 207 रह गई है। भाजपा को स्पष्ट बहुमत के लिए आठ और विधायकों की जरूरत है, जबकि 100 सदस्यों वाले विपक्षी गठबंधन को 13 सीटें चाहिए।
कांग्रेस-जेडी(एस) अच्छी तरह से जानते हैं कि एकजुट रहकर ही वे मजबूती से खड़े हो सकते हैं। ये दोनों एक-दूसरे की मदद के बिना टिक नहीं सकते। न ही उनमें से किसी के पास इतने विधायक हैं कि वे अपने बूते सरकार बना सकें। मई 2018 के विधानसभा चुनाव में कांगे्रस ने 78 सीटें जीती थीं, जबकि जेडी(एस) के खाते में 37 सीटें आई थीं और दोनों ने सरकार बनाई थी। मगर इन उप-चुनावों में एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला करने की बजाय गठबंधन के दोनों दल एक-दूसरे पर ही निशाना साध रहे हैं। पिछले दिनों जेडी(एस) के सबसे बड़े नेता एचडी देवेगौड़़ा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पाले में गेंद डालते हुए कहा कि सोनिया ही तय करेंगी कि दोनों पार्टियां साथ-साथ लडे़ंगी या नहीं।
अभी जिन 15 सीटों पर उप-चुनाव होंगे, उनमें से 12 कांग्रेस के पास थीं, जबकि तीन जेडी(एस) के पास। इन उप-चुनावों ने गठबंधन को एक मौका दिया है कि वह एकजुट होकर जनता में जाए और भाजपा ने किस तरह उसकी सरकार गिराई, उसे लोगों के सामने रखे। उधर, भाजपा के पास राष्ट्रवाद का सहारा है ही- अनुच्छेद 370 को खत्म करके तो वह एक नए अवतार में है। इन सबके बीच कर्नाटक धैर्य के साथ राजनीतिक स्थिरता और शालीन सरकार की बाट जोेह रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)