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गरीबों के जीवन का अर्थशास्त्र

सड़क पर डोसा बेचने वाली महिला के पास एक भूखे अर्थशास्त्री के जाने का जिक्र भला क्यों होगा, जब तक कि वह अर्थशास्त्री अभिजीत वी बनर्जी न हों। ऐसा आंध्र प्रदेश के छोटे से शहर गुंटूर के एक गरीब इलाके में...

गरीबों के जीवन का अर्थशास्त्र
नीरंजन राजाध्यक्ष, कार्यकारी संपादक, मिंटTue, 15 Oct 2019 12:13 AM
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सड़क पर डोसा बेचने वाली महिला के पास एक भूखे अर्थशास्त्री के जाने का जिक्र भला क्यों होगा, जब तक कि वह अर्थशास्त्री अभिजीत वी बनर्जी न हों। ऐसा आंध्र प्रदेश के छोटे से शहर गुंटूर के एक गरीब इलाके में हुआ था। असल में, सुबह के करीब नौ बजे मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) का यह 49 वर्षीय प्रोफेसर नाश्ते के लिए डोसा खरीदने गया था। सड़क पर ताजा डोसा बेचने वाली औरतों की लाइन लगी थी। बनर्जी और उनके एक स्थानीय सहयोगी क्रीम रंग की साड़ी वाली महिला के पास गए, जो औरों की तुलना में कुछ कम व्यस्त लग रही थीं।

अपनी तकदीर संवारने के लिए गरीबों को मुश्किलें क्यों पेश आती हैं? इस सवाल का कुछ हद तक जवाब गुंटूर की महिलाएं दे रही थीं। दरअसल, उनके छोटे-छोटे उद्यमों को बढ़ाया नहीं जा सकता व कई तरह के व्यवसाय करने से वे इस काम में कुशल नहीं रह पाएंगी। गरीबों के आर्थिक जीवन पर जो शानदार पेपर बनर्जी और एमआईटी की उनकी सहयोगी एस्टर डफ्लो ने लिखा है, उसके केंद्र में डोसा बनाने वाले यही गरीब लोग हैं। 

वर्ष 2006 के उस पेपर के कुछ भाव को उनकी नई किताब पुअर इकोनॉमिक्स: रिथिंकिंग पॉवर्टी ऐंड द वेज टु इंड इट  में विस्तार दिया गया है। इस किताब का अगले महीने भारत में लोकार्पण होगा। गरीबों के जीवन को समझने के लिए एमआईटी के इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने जमीनी प्रयोग किए। इसके लिए उन्होंने जो तकनीक अपनाई, वह मेडिकल रिसर्च वाली थी। यानी, लोगों के दो समूहों को बिना किसी क्रम के सहसा चुनना। फिर, एक समूह की दिनचर्या में थोड़ा बदलाव किया जाता है, जबकि दूसरा पुराना जीवन जी रहा होता है। इसके बाद एमआईटी की टीम नतीजों की जांच-पड़ताल करती है।

डफ्लो कहती हैं, 'गरीबों के साथ समय बिताने से मैंने यह जाना कि वे हमारी तुलना में कहीं अधिक जटिल जीवन जीते हैं और 'हेज फंड' (मान्यता प्राप्त निवेशक या संस्थागत निवेशक से पूंजी लेकर उसे विभिन्न प्रकार की संपत्ति में निवेश करना) मैनेजर की तरह पैसों को खर्च करते हैं। साफ पानी मुहैया कराने या ईंधन देने जैसी ज्यादातर रोजमर्रा की जरूरतों पर चिंता करने के साथ-साथ हमें उनकी अन्य चीजों पर भी ध्यान देना होगा।' 

कुछ साल पहले, ये दोनों ही अर्थशास्त्री राजस्थान के उदयपुर जिले में काम कर रहे थे। तब उन्होंने देखा कि महिलाएं मुफ्त टीकाकरण की सुविधा का लाभ उठाने के लिए अपने बच्चों को सरकारी क्लीनिक में नहीं ला रही थीं। आखिर ये महिलाएं इस योजना का लाभ क्यों नहीं उठा रही थीं? और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि इस समस्या को दूर कैसे किया जाए? एमआईटी की टीम ने एक प्रयोग किया। कुछ गांवों में जब महिलाएं बच्चों को टीका लगवाने आईं, तो उन्होंने उन्हें एक किलो दाल दी। जल्द ही यह बात चारों तरफ फैल गई और टीकाकरण की दर बढ़ गई। आश्चर्य की बात नहीं कि उनके पसंदीदा नीतिगत सुझावों में इसी तरह के सरल सुझाव हैं।

बनर्जी और डफ्लो के सबसे व्यावहारिक कामों में से एक गरीब परिवारों के पैसे खर्च करने के तरीके पर है। आमतौर पर यही माना जाता है कि गरीब परिवार भूख से लड़ते रहते हैं और हर अतिरिक्त पैसे का इस्तेमाल वे अन्न जुटाने में करते हैं। बनर्जी और डफ्लो ने अपने गहन अध्ययन में पाया कि गरीब अक्सर अपने अतिरिक्त पैसों को टेलीविजन, या त्योहारों या महंगे स्वादिष्ट भोजन पर खर्च करते हैं। अपनी किताब में उन्होंने लिखा है, ‘गरीबों की प्राथमिकता ऐसी चीजें हैं, जो उनके जीवन ऊब को कम कर सकें।’  बनर्जी कहते हैं, ‘उन्हें लंबा जीवन जीने के लिए केवल पोषण नहीं चाहिए, बल्कि लंबा जीवन जीने की वजह भी चाहिए’। 

बनर्जी और डफ्लो ने 1970 के दशक में आर्थिक विकास के लिहाज से एक खास मैक्रोइकोनॉमिक बिंदु को सामने रखा था, जब मैक्रोइकोनॉमिक्स को मैक्रोफाउंडेशन से जोड़़ा गया। आसान शब्दों में कहूं, तो इसका मतलब यह है कि जमीनी विवरणों को समझने के बाद बड़ी तस्वीर बनाई गई। उदाहरण के लिए, उन्होंने पाया कि जिन पंचायतों का संचालन महिला नेतृत्व के हाथ में होता है, उनमें उन सार्वजनिक मदों में अधिक सरकारी धन खर्च होते हैं, जो उनकी प्राथमिकताओं में होते हैं, मसलन स्वच्छ जल। 

गरीबों को अनाज दिया जाना चाहिए या नकद, और क्या नकद देने का मतलब यह होगा कि वे इसे अपने मनोरंजन या शराबखोरी में उड़ा देंगे, इस प्रश्न पर उनकी प्रतिक्रियाएं समान थीं। बनर्जी के मुताबिक, ‘मुझे यकीन है कि लोग नकदी का इस्तेमाल उस चीज को खरीदने के लिए करेंगे, जो वे खरीदना चाहते हैं, और वह चीज कभी आभूषण, तो कभी शराब होगी।... बल्कि यदि वे यह भी सोचते हैं कि उनके पास काफी अनाज है, तो वे उसे बेच देंगे। पुराने समय में, जब मेरे पिता जैसे लोग राशन के अनाज के हकदार थे, यह आम बात थी कि इसके तहत मिलने वाले घटिया गुणवत्ता के चावल और गेहूं गरीबों को बेच दिया जाता।’ 

डफ्लो का कहना था, ‘मेरी राय में गरीबों को यह कहना अनुचित है कि उनकी प्राथमिकताएं गलत हैं और उन्हें बदलने की जरूरत है। हम यदि उनकी परिस्थिति में होते, तो वही कर रहे होते, जो वे करते हैं।’ इसके बाद वह ठोस समाधान सुझाती हैं, ‘इसकी बजाय हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जिन पोषक तत्वों की उन्हें आवश्यकता है, वह उनकी आसान पहुंच में हों और किफायती दर पर उपलब्ध हों। इस तरह से वे पर्याप्त पोषण भी ले सकेंगे और उनके पास टेलीविजन जैसी चीजें भी होंगी। उदाहरण के लिए, यदि आयरन और आयोडिन युक्त नमक सस्ता होगा, तो बच्चे और वयस्क एनीमिया से कम पीड़ि़त होंगे। और यह सार्वजनिक धन का बेहतर इस्तेमाल होगा।’

ये अर्थशास्त्री भारत सरकार से यह अपेक्षा करते हैं कि उसे 15 साल और उससे ऊपर के प्रत्येक नागरिक को बायोमेट्रिक पहचान के आधार पर नगदी हस्तांतरित करना चाहिए; देश में एक सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा लागू करना चाहिए, जिसमें सड़क दुर्घटनाओं के अलावा बडे़ ऑपरेशन भी कवर हों और सरकार को 200 गज के प्रत्येक घर को साफ पेयजल मुहैया कराना चाहिए। टीकाकरण के लिए भी गरीबों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, क्योंकि वे अपने बच्चों के टीकाकरण के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि इसे बस टालते रहते हैं।

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