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कौन था पाकिस्तान का पहला नागरिक

अगर कोई कहे कि पाकिस्तान का पहला नागरिक मोहम्मद बिन कासिम था, तो यह सवाल होगा ही कि 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में आए देश का पहला नागरिक आठवीं शताब्दी का एक आक्रांता कैसे हो सकता है? कोलंबिया...

कौन था पाकिस्तान का पहला नागरिक
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अगर कोई कहे कि पाकिस्तान का पहला नागरिक मोहम्मद बिन कासिम था, तो यह सवाल होगा ही कि 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में आए देश का पहला नागरिक आठवीं शताब्दी का एक आक्रांता कैसे हो सकता है? कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पाकिस्तानी मूल के एसोशिएट प्रोफेसर मन्नान अहमद ने अपनी किताब अ बुक ऑफ कांक्वेस्ट  में इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है। यह कोशिश उस नैरेटिव को समझने से शुरू होती है, जो एक नवनिर्मित राष्ट्र-राज्य अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने के लिए निर्मित करता है। सबसे पहले एक सैद्धांतिकी गढ़ी जाती है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और एक साथ नही रह सकते। पर 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद यह साबित हो जाने पर कि सिर्फ धर्म के आधार पर राष्ट्र नहीं बन सकता, इस सैद्धांतिकी की फिर एक बार व्याख्या की जरूरत महसूस हुई और जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में बुद्धिजीवियों का एक समूह सक्रिय हुआ। खास बात यह थी कि इनमें कोई भी इस्लामी विद्वान नहीं था, बल्कि अधिकतर उस बौद्धिक पक्ष से संबंधित थे, जिसे वाम कहा जाता है।

अ बुक ऑफ कांक्वेस्ट  पर बहस सुनते हुए याद आया कि कुछ साल पहले अपनी कराची यात्रा के दौरान मुझे कराची विश्वविद्यालय के पाकिस्तान अध्ययन विभाग में जाने का अवसर मिला था और वहां एक ऐसी ही स्थिति से दो-चार हुआ था। भुट्टो के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान विश्वविद्यालयों में पाकिस्तान अध्ययन विभागों की स्थापना हुई थीं। इन विभागों का मुख्य काम पाकिस्तान व इस्लाम के रिश्तों और एक राष्ट्र्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान की वैधता के तर्कों को रेखांकित करना था। कराची में विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सय्यद जाफर अहमद थे, जो खुद प्रगतिशील विचारधारा के थे और पाकिस्तान प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। उन्होंने विभाग के कुछ अध्यापकों और शोध छात्रों को मुझसे मिलने के लिए अपने कक्ष में बुला लिया। 

दो घंटे से कुछ अधिक वक्त तक हम यह समझने की कोशिश करते रहे कि पाकिस्तान का इतिहास कब से शुरू होता है? क्या 15 अगस्त, 1947 से? अगर यही सच है, तो फिर मुअनजोदाड़ो और तक्षशिला से उसके क्या रिश्ते होंगे? पंजाब के स्वर्णिम युग के निर्माता रणजीत सिंह उसके इतिहास का अंग हैं या नहीं? बहुत सारे ऐसे असुविधाजनक प्रश्न थे, जिनका उत्तर ढूंढ़ने से ज्यादा बेहतर था, उनको नजरंदाज कर देना। शायद यह विभागाध्यक्ष का असर था कि विभाग के ज्यादातर अध्यापक और छात्र इतिहास से छेड़छाड़ से बहुत आश्वस्त नहीं लग रहे थे।

सन् 711 ईस्वी (कुछ स्रोतों के अनुसार 712 ईस्वी) में बगदाद के खलीफा के हुक्म पर अपने लश्कर के साथ सिंध व मुलतान पर चढ़ाई करके राजा दाहिर को परास्त करने वाला मोहम्मद बिन कासिम इतिहास लेखन की तत्कालीन सीमाओं के कारण वास्तविकता और मिथक की मिली-जुली निर्मिति है। इसके अलावा, एक राष्ट्र को वैध बनाने के लिए इतिहास के इस्तेमाल की कोशिशों ने इसे और मिथकीय बना दिया। पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों के अनुसार, जब कुछ मुस्लिम औरतें समुद्र के रास्ते हज करने मक्का जा रही थीं, तो सिंध की सीमा में जल दस्युओं ने उन्हें लूट लिया और उनके साथ बदसुलूकी की। खबर जब बगदाद के गवर्नर हजाज बिन यूसुफ के पास पहुंची, तो उसने उनकी रक्षा में असमर्थ राजा दाहिर को सजा देने के लिए अपने विश्वसनीय सिपहसालार मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक सेना भेजी। 17-18 वर्ष के मोहम्मद ने अपने सैन्य कौशल और बहादुरी से न सिर्फ राजा दाहिर को हराया, बल्कि भारत के पहले मुस्लिम राज्य की नींव भी डाली। हालांकि भारत का इस्लाम से संपर्क व्यापारिक कारणों से दक्षिणी समुद्री तटों पर पहले ही हो चुका था, मगर यह राजनीतिक इस्लाम से उसका पहला परिचय था। 

भुट्टो के इतिहासकारों ने इस परिघटना का इस्तेमाल एक नए राष्ट्र के निर्माण की सैद्धांतिकी गढ़ने के लिए किया। कुछ सौ वर्षों बाद अंग्रेज शासन को वैध ठहराने के लिए गढ़े गए द व्हाइट मैन्स बर्डन  जैसा एक तर्क यहां भी काम आया। असहाय मुस्लिम औरतों की मदद करना और बुतपरस्तों को दंडित करना मुस्लिम शासकों का फर्ज था। यह अलग बात है कि प्रोफेसर मन्नान समकालीन साक्ष्यों का इस्तेमाल कर साबित करते हैं औरतों के साथ जल दस्युओं की बेरहमी और मोहम्मद बिन कासिम के सिंध आगमन के बीच लगभग दस वर्षों का फासला है। इसके भी पर्याप्त साक्ष्य हैं कि चौथे खलीफा अली के बहुत से समर्थक उनके मरने के बाद शासकों के दमन से बचने के लिए सिंध भाग आए थे। उन्हीं को पकड़ने के लिए खलीफा ने सेना भेजी थी। यह तथ्य भी सच और मिथ की भूल-भुलैया में उलझ गया है कि खलीफा ने मोहम्मद बिन कासिम को भैंस की खाल में सिलवा मंगवाया था। यह संभवत: बगदाद के सत्ता संघर्षों का नतीजा था, पर इतिहास में तब्दील मिथक के अनुसार, पराजित राजा दाहिर की बेटियां जब माले-गनीमत के रूप में खलीफा के सामने पेश की गईं, तो उन्होंने अपने पिता के हत्यारे से बदला लेने के लिए यह झूठी शिकायत कर दी कि शासक की सेवा में भेजने के पहले मोहम्मद बिन कासिम ने उन्हें जूठा कर दिया था और सजा के तौर उसे मौत की सजा दी गई।

बांग्लादेश बनने के बाद सन 1975 में कराची में पहली बार पाकिस्तान एजुकेशन काउंसिल की बैठक हुई और गंभीरता से पाठ्य-पुस्तकेंबनाने का काम शुरू किया गया। यहीं तय हुआ कि पाकिस्तानी इतिहास सिंध पर मुस्लिम फतह के साथ शुरू हुआ था। पाकिस्तान ने मोहम्मद बिन कासिम की ईजाद की, ताकि वह पाकिस्तान की ईजाद कर सके।

19वीं और 20वीं शताब्दियों की सबसे बड़ी परियोजना राष्ट्र निर्माण की रही है। इस बीच तमाम राष्ट्र-राज्य बने और सबने अपने-अपने तर्क गढ़े। ऐसे तर्क अक्सर इतिहास की शरण में जाते दिखते हैं, पर आमतौर से मिथकों को ही इतिहास मानने का आग्रह करते हैं। पाकिस्तान तो बहुत नया राष्ट्र-राज्य है, इसके बनने के बहुत पहले से एक ऐसे भारत राष्ट्र की परिकल्पना की जाने लगी थी, जिसका अतीत बहुत समृद्ध था और वहां जो कुछ समकालीन कुरूपता थी, वह सब लंबे मुस्लिम शासन व अंग्रेजी राज की देन है। यह अस्वाभाविक नहीं है कि आजादी की लड़ाई की हिंदुत्व केंद्रित धारा स्वर्णिम अतीत की तलाश में मोहम्मद बिन कासिम जैसे हिंदू नायक गढ़ने की कोशिश करती रही है। दुर्भाग्य से यह प्रयास आज भी जारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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