विवादित शख्सियत को शरण के सवाल
मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के संस्थापक अल्ताफ हुसैन ने भारत से शरण देने की मांग की है। संरक्षण न देने की सूरत में उन्होंने आर्थिक मदद मुहैया कराने को भी कहा है। उनकी इस मांग पर मोदी सरकार...
मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के संस्थापक अल्ताफ हुसैन ने भारत से शरण देने की मांग की है। संरक्षण न देने की सूरत में उन्होंने आर्थिक मदद मुहैया कराने को भी कहा है। उनकी इस मांग पर मोदी सरकार क्या फैसला लेती है, यह तो वक्त के हवाले है, लेकिन इस तरह की ढीठ बयानबाजी वह पहले भी कर चुके हैं। साल 2004 में हिन्दुस्तान टाइम्स के एक आयोजन में ही उन्होंने कहा था कि 1947 का बंटवारा इंसानियत के लिहाज से सबसे बड़ी भूल थी। हालांकि वह इस तरह के बयान तभी देते हैं, जब उन पर काफी ज्यादा दबाव बनता है। अब भी वह दबाव में हैं। ब्रिटेन में उन पर आतंकवाद फैलाने का मामला दर्ज किया गया है, जिसकी अदालती सुनवाई अगले साल जून से शुरू होने वाली है।
तो क्या उन्हें भारत में शरण मिल सकता है? इस सवाल के कई पहलू हैं। पहला यह कि अल्ताफ 1992 से ही ब्रिटेन में निर्वासन का जीवन गुजार रहे हैं, और उन्हें दोहरी नागरिकता (एक पाकिस्तान और दूसरी ब्रिटेन) हासिल है। चूंकि वह आरोपी हैं, इसलिए ब्रिटेन ने अब उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया है। यह उन्हें तब तक नहीं लौटाया जाएगा, जब तक वह आरोपों से बरी नहीं हो जाते। लिहाजा तकनीकी रूप से वह अब ब्रिटेन से बाहर नहीं जा सकते। बेशक उन पर राजनीतिक वजहों से मुकदमा चलाया जा रहा हो, क्योंकि ब्रिटिश सरकार भारत की अपेक्षा पाकिस्तान की तरफदारी ज्यादा करती है। फिर भी वह इसमें फंस तो गए ही हैं, और यही भारत में उनके शरणार्थी बनने की राह का कांटा भी है।
सवाल नैतिकता का भी है। आतंकवाद फैलाने के एक आरोपी को अपने यहां शरण देना भला कितना सही होगा? वह भी तब, जब अल्ताफ के बहाने पाकिस्तान हमारे खिलाफ दुष्प्रचार करता रहा है। विश्व मंचों पर पाकिस्तान वक्त-बेवक्त यह आरोप लगाता रहा है कि भारत एमक्यूएम को तमाम तरह की मदद देकर उसके अंदरूनी मामलों में दखल देता रहता है। इनमें दहशतगर्दी की कार्रवाई के लिए पैसे व हथियार देने के आरोप भी हैं। ये सारे आरोप निराधार हैं और कभी साबित नहीं किए जा सके। फिर भी, अल्ताफ हुसैन को शरण देना पाकिस्तान के दुष्प्रचार को हवा देगा। इसके बाद पाकिस्तानी हुक्मरां अपने यहां की मुहाजिर आबादी का दमन भी तेज कर देगी और उन्हें ‘भारत का एजेंट’ कहकर प्रचारित करेगी।
भारत के लिहाज से देखें, तो उन्हें शरण देने का एक बड़ा मानवीय पक्ष है। पाकिस्तान में मुहाजिर वे मुसलमान हैं, जो अविभाजित हिन्दुस्तान में उर्दूभाषी इलाकों (मध्य प्रांत, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान आदि) में रहा करते थे। इनके आज भी भारत में पारिवारिक रिश्ते हैं। अल्ताफ ने भी कहा है कि वह अपने दादा और अन्य रिश्तेदारों की कब्रों पर जाना चाहते हैं। लिहाजा मानवीय आधार पर उन्हें शरण दी जा सकती है। एक अन्य मामला मानवाधिकार का भी है। पाकिस्तान में मुहाजिरों का जितना दमन किया गया, उसकी दूसरी मिसाल कम मिलती है। एक अनुमान है कि पिछले चार-पांच वर्षों में ही सिर्फ कराची में तीन से चार हजार मुहाजिर फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए हैं। सैकड़ों लोग आज भी लापता हैं। इन्हें वहां अपराध में शामिल रहने वाला समुदाय माना जाता है, जबकि यह आरोप कभी साबित नहीं हो सका है। अल्ताफ को शरण देने से एक फायदा यह भी हो सकता है कि भारत में जो चंद लोग पाकिस्तान की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं, उनके सामने बतौर प्रमाण मुहाजिर पेश किए जा सकते हैं। उन्हें यह एहसास दिलाया जा सकता है कि उन्हीं के भाई-बंधुओं के साथ पाकिस्तान में कैसा रूखा व्यवहार किया गया है।
जाहिर है, अल्ताफ की मांग पर विचार लाभ और हानि की कसौटी पर किया जाएगा। अगर भारत उन्हें शरण देता है, तो केंद्र सरकार पर परंपरा तोड़ने का आरोप आएगा। अब तक नई दिल्ली ऐसे किसी कदम से बचती रही है। पाकिस्तान के असंतुष्ट गुटों (बलूच, पख्तून, पंजाबी, कश्मीर या फिर सिंधी) का भारत ने कभी खुलकर साथ नहीं दिया है। बलूच नेता अताउल्लाह मेंगल तो इसके जीते-जागते उदाहरण हैं, जिन्हें 1980 के दशक में वीजा तक जारी नहीं किया गया, जबकि भारतीय नेतृत्व के साथ उनकी मित्रता जगजाहिर थी। ऐसा इसलिए किया जाता रहा है, ताकि पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते और ज्यादा खराब न हो पाएं। हालांकि इसका भी कोई अध्ययन अब तक नहीं हुआ है कि ऐसा करने से द्विपक्षीय रिश्तों में कितना सुधार आया? एक चिंता यह है कि शरण मिलने के बाद अल्ताफ भारतीय राजनीति पर असरंदाज हो सकते हैं। हालांकि उन्होंने सियासत में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करने का भरोसा दिया है, लेकिन उनका बड़बोलापन उनकी बातों पर विश्वास नहीं जमाता।
कोई देश किसी को रणनीतिक फायदे मिलने की सूरत में भी शरण देता है। अल्ताफ इस कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते। उनका संगठन एमक्यूएम अब उतना ताकतवर नहीं रहा। पिछले दो-तीन वर्षों में उस पर काफी नकेल कसी गई है। एक समय था, जब सिंध के शहरी इलाकों (हैदराबाद और कराची) में इस संगठन की तूती बोला करती थी। चुनावों में 90 से 95 फीसदी सीटें यह जीता करता था। मगर अब 10 से 15 फीसदी सीटें ही इसके खाते में आती हैं। इसका जनाधार तो कम हुआ ही है, सांगठनिक ढांचा भी खत्म हो गया है। यह संगठन अब चार-पांच गुटों में बंट चुका है, और यह भी साफ नहीं है कि अल्ताफ के कितने समर्थक हैं।
अखबार-टीवी जैसे सार्वजनिक संचार माध्यमों से भी उन्हें बाहर कर दिया गया है। ऐसे में, एक फंुके हुए कारतूस को संरक्षण देने का भला क्या मतलब? मगर जैसा कि कहा जाता है, राजनीति और कूटनीति में कोई अंत नहीं होता। जो इंसान आज जला हुआ कारतूस लगता हो, वह आने वाले दिनों में भरा हुआ कारतूस भी बन सकता है। साल 1999 में परवेज मुशर्रफ ने जब नवाज शरीफ का तख्ता पलट किया था, तो भला किसने सोचा था कि शरीफ साहब ठोस वापसी करेंगे? लेकिन अगले डेढ़ दशक में वह न सिर्फ लौटे, बल्कि पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम भी बने। साफ है, नफा-नुकसान के आधार पर ही भारत अल्ताफ हुसैन को शरण देने पर फैसला करेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)