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मानवता का सम्मान होगी यह मस्जिद

अयोध्या फैसले को लेकर पूरे मुल्क ने जिस शांति और संयम का परिचय दिया, वह काबिले-तारीफ है। हम सभी का यही मानना था कि अदालती आदेश को जीत या हार के रूप में न देखा जाए। हालांकि चौतरफा स्वीकृति के बावजूद...

मानवता का सम्मान होगी यह मस्जिद
सलमान खुर्शीद, वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्रीSat, 16 Nov 2019 03:21 AM
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अयोध्या फैसले को लेकर पूरे मुल्क ने जिस शांति और संयम का परिचय दिया, वह काबिले-तारीफ है। हम सभी का यही मानना था कि अदालती आदेश को जीत या हार के रूप में न देखा जाए। हालांकि चौतरफा स्वीकृति के बावजूद (जैसा कि सामाजिक समूहों और सियासी दलों द्वारा बार-बार घोषित किया गया था) कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने फैसले पर अपनी निराशा जाहिर की है। इसके अलावा, सुन्नी वफ्फ बोर्ड को मशविरा देने वाले स्वर भी सुने जा रहे हैं कि फैसले के तहत मिली पांच एकड़ जमीन लेने से उसे परहेज करना चाहिए। यह अदूरदर्शिता भरा कदम हो सकता है और इससे मुस्लिम पक्ष उस नैतिक पूंजी को गंवा सकता है, जो उसे इस अदालती फैसले में मिलती दिख रही है।

ऐसी कई वजहें हैं, जो पांच एकड़ जमीन न लेने के पक्ष में गिनाई जा सकती हैं। अदालत से बाहर समझौता करने के विफल प्रयासों के दरम्यान कुछ मुसलमानों का यही मानना था कि दूसरी मस्जिदों को भी उनकी मूल जगह से हटाने के लिए इसे बतौर उदाहरण पेश किया जाएगा, और उन जगहों पर दुश्वारियां बढ़ सकती हैं। मथुरा और वाराणसी ऐसी ही जगहें हैं। मस्जिदके स्थाई होने और किसी मानवीय कृत्य से उसे हटाने की मंशा को खारिज करने को लेकर भी बुनियादी धार्मिक कारण थे। बेशक ऐसा हो सकता है, लेकिन अब जब फैसला आ चुका है, तो मामले को संपूर्णता में देखा जाना चाहिए, और समुदायों के बीच अधिकाधिक सामंजस्य स्थापित करने के अवसर को कतई गंवाना नहीं चाहिए।

यहीं पर यह जानना जरूरी है कि शीर्ष अदालत इस बात से बिल्कुल संतुष्ट थी कि 1934 (जब पहली बार इसे तोड़ने का प्रयास किया गया), 1949 (जब मस्जिद में मूर्तियां रखी गईं) और 1992 (जब मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया) में कानून का उल्लंघन हुआ था। इससे कुछ हद तक ही सही, लेकिन उन तमाम गलत बयानों पर विराम लग गया है, जो दशकों तक देश की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं।

अदालत ने इस दावे का भी समर्थन नहीं किया है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण एक मंदिर (सिर्फ राम मंदिर नहीं) की जगह पर उसे तोड़कर किया गया था, और न ही उसने इस तथ्य पर मुहर लगाई कि मस्जिद में इबादत नहीं की जाती थी। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने उन नए प्रावधानों को जोडे़ बिना ‘प्लेसेज ऑफ वरशिप ऐक्ट’ को भी बरकरार रखा, जिसकी बात इलाहाबाद हाईकोर्ट ने की थी। फैसले में जिन्हें कानूनी व्यक्तित्व का दर्जा दिया गया है, उन्हें सिर्फ एक देव तक सीमित रखा गया है और राम जन्मभूमि को शामिल करने के लिए उनका विस्तार नहीं हुआ है, जबकि इसकी मांग हिंदू पक्ष कर रहे थे। जाहिर है, मुस्लिम पक्ष बहुत मामूली अंतर से पूरी तरह सफल होने से चूक गए। ऐसे में, भला यह कैसे कहा जाएगा कि 2.77 एकड़ विवादित भूमि हिंदुओं को सौंपकर अदालत ने मामले को खत्म कर दिया? तमाम तथ्यों से यही जाहिर हो रहा है कि विवादित मामले की कानूनी रूप से सुनवाई हो रही थी और उसमें आस्था को कोई आधार नहीं बनाया गया।

कानूनी प्रावधानों से मामले को निपटाते हुए आला अदालत ने यह कहा कि राम चबूतरा के साथ बाहरी आंगन निर्विवाद और स्वीकार्य रूप से हिंदुओं के कब्जे में है, और मुस्लिम भी यह मानते हैं कि राम का जन्म अयोध्या (किसी खास जगह का उल्लेख न करते हुए) में हुआ था। दूसरी तरफ, भीतरी आंगन और तीन गुंबदनुमा ढांचा बार-बार प्रतिकूल दावे के विषय रहे हैं। यह अलग बात है कि इनमें से बहुत कुछ मुकदमे को स्थापित करने के लिए अप्रासंगिक थे। यहीं पर अदालत स्थाई समाधान खोजने के लिए आस्था पर विचार करती दिखती है। अगर मुसलमानों को भीतरी हिस्सा दे दिया जाता और बाकी भूमि हिंदुओं के हिस्से आती, तो भविष्य में भी संघर्ष और टकराव की गुंजाइश बनी रहती। इसकी बजाय, शीर्ष अदालत ने अयोध्या में ही दूसरी जगह पांच एकड़ जमीन देने का फैसला किया।

मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन स्वीकार करने के फैसले को आत्म-समर्पण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे कुबूल करके हम अदालत के सम्मान की शपथ की रक्षा करेंगे। ऐसी एक मस्जिद तमाम दरारों के बावजूद हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को संवारने में हमारे सामूहिक प्रयास की एक स्थाई प्रतीक बनेगी। मुसलमानों का यह बलिदान या सहयोग उस विवाद को खत्म करने में भी अदालत की मदद करेगा, जिसे आस्था और संविधान के आपसी संघर्ष के रूप में परिभाषित किया गया था। जैसे ही यह निष्कर्ष सामने आएगा कि आस्था और सम्मान की रक्षा हुई, तो यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उन्हें एक साथ समृद्ध करें। अयोध्या में बनी नई मस्जिद अगली पीढ़ियों के लिए यह एक पैगाम होगी कि हमारा विविधतापूर्ण राष्ट्रीय अस्तित्व समय-समय पर सामंजस्य और समझौते की मांग करता है; फिर चाहे यह सीधी बातचीत से हो या हमारे द्वारा पोषित सांविधानिक संस्थानों के माध्यम से। ऐसी किसी मस्जिद का न होना अगली पीढ़ियों को गुमराह कर सकता है कि पूरा न्याय संभवत: नहीं हुआ था। आज हमारा एक सही कदम इतिहास में इस रूप में याद किया जाएगा कि भारतीय मुसलमानों ने मुल्क को बनाने में समान रूप से और सम्मानित नागरिक के रूप में हिस्सा लेने का विकल्प चुना था।

आपसी मेल-मिलाप से बनी यह मस्जिद भारतीय मानवता को समर्पित एक जीवंत मिसाल होगी। मानव इतिहास ऐसे महान क्षणों का गवाह रहा है। मसलन, टोलेडो (स्पेन) के गिरिजाघर में मुस्लिम इमाम अबु वालिद का बुत है। इन्होंने उस वक्त गुनहगार रानी कॉन्स्टेंस की जान बचाई थी, जब किंग अल्फॉन्सो षष्ठम यात्रा से वापस लौटे थे और यह पूछा था कि मस्जिद किसने गिराई? मध्यकालीन स्पेन के इस इतिहास को हम फिर से दोहरा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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