आंध्र की लड़ाई के उलझे समीकरण
राज्य-विभाजन के बाद पहली बार मई 2014 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में संसदीय चुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी हुए थे। आज पांच साल बाद इन दोनों राज्यों के चुनावी रुख बहुत अलग नहीं दिख रहे। हालांकि...
राज्य-विभाजन के बाद पहली बार मई 2014 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में संसदीय चुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी हुए थे। आज पांच साल बाद इन दोनों राज्यों के चुनावी रुख बहुत अलग नहीं दिख रहे। हालांकि तेलंंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस सुप्रीमो चंद्रशेखर राव तेलंगाना विधानसभा में पहले ही सत्तासीन हो चुके हैं, लेकिन उनके समकक्ष पड़ोसी और तेलुगुदेशम पार्टी यानी टीडीपी मुखिया चंद्रबाबू नायडू अपने भविष्य को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं।
पांच साल पहले के चुनाव नतीजे अमूमन उम्मीद के मुताबिक ही आए थे। अविभाजित आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का लोकसभा और दोनों विधानसभा चुनावों में पूरी तरह से सफाया हो गया था। टीआरएस और टीडीपी अपने-अपने सूबों में बहुमत के साथ उभरीं और उनके नेताओं ने अपने-अपने राज्य में सरकार बनाई। इन दोनों पार्टियों ने केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से अपने अच्छे ताल्लुकात बनाए रखे। टीडीपी तो एनडीए में शामिल रही, मगर इन दोनों ही पार्टियों की केंद्रीय राजनीति में कोई अहम भूमिका नहीं थी।
आज 2019 में देश की दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा- की इन सूबों में कोई खास उपस्थिति नहीं है। कांग्रेस जहां बेहद दयनीय हालत में है, तो दूसरी तरफ भाजपा आज भी वहां अपने पांव जमाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। इन दोनों प्रदेशों में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का संसदीय चुनाव के लिए किसी से गठबंधन नहीं हुआ है। दोनों पार्टियां चुनाव बाद के गठबंधन की संभावनाएं टटोल रही हैं। दरअसल, एक प्रबल क्षेत्रीय बोध वाले प्रांतों में किसी राष्ट्रीय पार्टी का आगे बढ़ना और जीवंत बने रहना काफी मुश्किल होता है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह स्थिति ज्यादा स्पष्टता के साथ दिखती है।
इन राज्यों में अपनी उपस्थिति के बावजूद न तो कांग्रेस कामयाब हो पा रही है और न ही भाजपा लाख कोशिशों के बाद अपने पांव जमा पा रही है। जाहिर है, इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नए नैरेटिव के साथ आना पड़ेगा, ताकि टीआरएस और टीडीपी जिन क्षेत्रीय आकांक्षाओं की नुमाइंदगी कर रही हैं, उनका वे मुकाबला कर सकें। आजादी के बाद जहां भाषा के आधार पर राज्यों के बंटवारे ने राष्ट्रीय पार्टियों के आगे गंभीर चुनौती पेश की, तो वहीं क्षेत्रवादी भावना का प्रसार स्थानीय विकास व पहचान से प्रेरित रहा, और इसने इन दोनों राज्यों की सियासत की सूरत ही बदल दी।
चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू में से राव ने पहले ही कामयाबी का स्वाद चख लिया है। पिछले साल सितंबर में विधानसभा भंग करने के उनके दांव ने न सिर्फ उन्हें अतिरिक्त ताकत दी है, बल्कि नतीजे ने उनका राजनीतिक कद भी बढ़ा दिया। अब वह दिल्ली में किंग मेकर बनना चाहते हैं। उन्होंने एक नया नारा गढ़ा है- केसीआर बनेंगे राष्ट्रीय राजनीति में न्यू स्टार। लेकिन इसके लिए उन्हें अपने सूबे की 17 में से 16 लोकसभा सीटें जीतनी पडें़गी। एक सीट सहयोगी दल एआईएमआईएम के पास है।
लेकिन विधानसभा में शानदार जीत के बाद केसीआर ने अपने राज्य में एक नई तरह की राजनीति शुरू की है, जिसके परिणामस्वरूप वह शायद तेलंगाना को ‘कांग्रेस मुक्त’ बनाने में कामयाब भी हो जाएं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीती थीं, जिनमें से नौ विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। उनका लक्ष्य 13 विधायकों के आंकडे़ को छूना है, ताकि पार्टी छोड़ने वाले इन विधायकों को दलबदल कानून की जद में आने से बचाया जा सके और अंतत: उनका टीआरएस में विलय कराया जा सके। जहां तक संसदीय चुनावों का संबंध है, तो टीआरएस, भाजपा, कांग्रेस और टीडीपी राज्य में अलग-अलग ही चुनाव लड़ेंगी।
आंध्र प्रदेश के समीकरण कुछ उलझे हुए हैं, क्योंकि वहां के राजनीतिक परिदृश्य में जगन मोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाईएसआर कांग्रेस की भी मजबूत उपस्थिति है। फिर आंध्र प्रदेश में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं। कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने अपनी पार्टी छोड़ जगन मोहन की कांग्रेस का दामन थाम लिया है। उधर भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद चंद्रबाबू नायडू के लिए अपने पक्ष में लहर बनाए रखना काफी मुश्किल हो रहा है। वह तेलुगु/ आंध्र गौरव की लहर पैदा करना चाहते हैं, ताकि अपने खिलाफ एंटी इनकंबेन्सी भावना और वाईएसआर कांग्रेस के उभार से निपट सकें।
टीडीपी को जगन मोहन रेड्डी से कड़ी चुनौती मिल रही है। जगन मोहन राज्य भर में घूम-घूमकर चंद्रबाबू को एक ऐसे विफल मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर रहे हैं, जो राज्य के हितों का संरक्षण नहीं कर सके। वह लोगों को याद दिला रहे हैं कि केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के साथ गठबंधन के दिनों में वह आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिला सके। इतना ही नहीं, जगन मोहन टीडीपी के बागियों को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। हाल ही में टीडीपी के चार महत्वपूर्ण नेता वाईएसआर कांग्रेस में शामिल हुए हैं। दूसरी तरफ, नायडू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, टीआरएस सुप्रीमो चंद्रशेखर राव और जगन मोहन रेड्डी को ऐसे नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं, जिनसे आंध्र प्रदेश को बचाए जाने की जरूरत है। नायडू मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि उन्हें एक और मौका दिया जाए, ताकि वह नई राजधानी अमरावती के निर्माण का अधूरा काम पूरा कर सकें। दूसरा, वह चंद्रशेखर राव पर आरोप मढ़ रहे हैं कि राव आंध्र के खिलाफ विद्वेष भाव रखते हैं, इसलिए इसकी तरक्की में रोडे़ अटकाते रहे हैं।
साल 2014 के विधानसभा चुनावों में वाईएसआर कांग्रेस से महज 0.4 फीसदी अधिक वोट पाकर टीडीपी ने बहुमत की सरकार बनाई थी और उस समय उसे भाजपा और अभिनेता पवन कल्याण का भी साथ मिला था। इस बार हर दल अपने-अपने बूते चुनाव लड़ रहा है। नायडू ने पिछडे़ वर्ग के भीतर कापू समुदाय को पांच प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा करके उसका समर्थन जीतने की कोशिश की है, लेकिन आंध्र की चुनावी लड़ाई अभी काफी खुली हुई है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)