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नगरों का प्रबंधन न हो जाए जानलेवा

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक के बाद एक हो रहे हादसे शहरी नियोजन की गंभीर कमियों की ओर इशारा कर रहे हैं। राजेंद्र नगर की घटना में, जिस पुस्तकालय में अचानक पानी भर जाने से तीन छात्र-छात्राओं की...

नगरों का प्रबंधन न हो जाए जानलेवा
Pankaj Tomarके के पाण्डेय, प्रोफेसर, शहरी प्रबंधन, आईआईपीएMon, 29 Jul 2024 11:15 PM
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राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक के बाद एक हो रहे हादसे शहरी नियोजन की गंभीर कमियों की ओर इशारा कर रहे हैं। राजेंद्र नगर की घटना में, जिस पुस्तकालय में अचानक पानी भर जाने से तीन छात्र-छात्राओं की डूबकर मौत हो गई, उसे बेसमेंट में चलाने की अनुमति ही नहीं थी। इसी तरह, बीती 22 जुलाई को मध्य दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी कर रहे एक नौजवान की इसलिए मौत हो गई, क्योंकि उसने जल भरे रास्ते से बचने के लिए एक लोहे के गेट को पकड़ लिया था, जिसमें खुले तारों की वजह से करंट दौड़ रहा था। पिछले साल मुखर्जी नगर में एक कोचिंग संस्थान में लगी आग में 60 से अधिक बच्चे घायल हो गए थे, जबकि जहां उनको पढ़ाया जा रहा था, वह स्थान छात्रों की संख्या के हिसाब से काफी छोटा था। साफ है, प्रशासनिक चूक बच्चों के जीवन पर भारी पड़ती दिखी है। इस चूक का खामियाजा महज पीड़ित परिवार नहीं भुगतते, बल्कि राष्ट्र को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि किसी भी देश के लिए मानव संसाधन बेशकीमती होता है।
बहरहाल, ऐसे मसलों पर किसी सियासी आरोप-प्रत्यारोप में उलझे बिना हमें यही सुनिश्चित करना है कि इसका उचित समाधान हो। यह तय करना ही होगा कि कोई भी अव्यवस्था किसी की जान पर भारी न पड़े। इसके लिए हमें ‘अर्बन रिन्यूअल पॉलिसी’, यानी शहरों के नवीनीकरण की नीति बनानी होगी। वास्तव में, आज भीड़भाड़ वाले अनेक क्षेत्र शहरों के मध्य में आ गए हैं, जबकि वहां का बुनियादी ढांचा आज की जरूरत के हिसाब से नहीं है। वहां नियम-कायदों के पालन में भी काफी दिक्कतें पेश आती हैं। लिहाजा, वहां या तो पूरी तरह रद्दोबदल करते हुए नया ढांचा विकसित किया जाए, अन्यथा जरूरत के हिसाब से मौजूदा ढांचे में ही अपेक्षित सुधार किए जाने चाहिए।
ऐसे क्षेत्रों को तकनीकी शब्दावली में ‘कोर सिटी एरिया’ कहते हैं। इनकी आर्थिक क्षमता काफी अधिक होती है, लेकिन अनियोजित विकास और पुराने बुनियादी ढांचे की वजह से इनकी आबादी की सघनता, क्षमता और जरूरी बुनियादी सुविधाओं में कोई मेल नहीं बैठ पाता। दिल्ली सरकार ने ही पिछले दिनों एक अध्ययन के हवाले से बताया था कि राजधानी में ड्रेनेज सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए काफी निवेश की जरूरत है। देखा जाए, तो बारापुला, नजफगढ़ और यमुना पार के इलाके को तीन अलग-अलग भागों में बांटकर जल-निकासी की व्यवस्था में सुधार होना चाहिए। अभी इन तीनों इलाकों की जल-निकासी व्यवस्थाओं में कोई सामंजस्य नहीं है। यहां प्राकृतिक जल-निकासी से आंखें मूंद ली गई हैं। 
सवाल उठाए जाते हैं कि इस तरह के व्यवस्थागत बदलाव के लिए पैसे कहां से आएंगे? वास्तव में, हमारे पास पैसों की उस तरह कमी नहीं है, जितनी बताई जाती है। जिस तरह से सरकारें मुफ्त की रेवड़ियां बांटती हैं, उसका अगर एक हिस्सा ही ऐसे ढांचागत कार्यों में नियमित रूप से खर्च किया जाए, तो लोगों को काफी राहत मिल सकती है। मुफ्त की रेवड़ियों का ही असर है कि जनहित सेवाओं के संचालन अथवा प्रबंधन में जिस तरह पैसे खर्च करने की जरूरत होती है, उतना सरकारों के पास नहीं बच पाता और उनको केवल आपात स्थिति के लिए अपनी तैयारी रखनी पड़ती है। राजेंद्र नगर हादसे में ही घटना के बाद तमाम तरह की कमियों की बात सामने आई है। आलम यह है कि जल व्यवस्था को ही दुरुस्त करने के लिए आवश्यक पाइपों की मरम्मत और प्रतिस्थापना का काम नियमित तौर पर नहीं हो रहा, जबकि यह आवश्यक माना जाता है। 
शहरी ढांचे की बेहतरी या नवीनीकरण का काम मूलत: नगर निकायों का है, लेकिन संबंधित विभागों में जरूरी समन्वय बन ही नहीं पाता। दिल्ली में ही जल-आपूर्ति का मामला दिल्ली जल बोर्ड के पास है, तो जल-निकासी की व्यवस्था नगर निकाय के हवाले। ऐसे में, जब तक स्थानीय निकायों पर पूरी तरह से समन्वय की जिम्मेदारी नहीं डाली जाएगी, तब तक इस तरह की समस्या बनी रहेगी।
इस मसले का समाधान इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि 2047 तक विकसित देश बनने का लक्ष्य हमने तय कर रखा है। चूंकि योजनागत काम नहीं हो रहा, इसलिए आर्थिक क्षमता से भरे इन क्षेत्रों से हमें उचित फायदा नहीं मिल रहा। हम चाहें, तो मुंबई के धारावी से सबक ले सकते हैं, जहां नवीनीकरण का प्रयास तेज किया गया है। इस तरह के काम हर शहर में क्षेत्रों को चिह्नित करके उचित संदर्भ में किए जा सकते हैं। ऐसा इसलिए भी करना चाहिए, क्योंकि भारत में मुंबई और दिल्ली महानगर ही आने वाले समय में ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिए दिल्ली को लंदन, टोक्यो या न्यूयॉर्क से मुकाबला करना होगा और यह तभी संभव है, जब यहां बुनियादी ढांचे पर काम किया जाए। दिल्ली, मुंबई के अलावा बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई और कोलकाता भी आर्थिक विकास के दौर में ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने के दावेदार हैं। ऐसे में, शहरों में नीतिगत और ढांचागत बदलाव अपरिहार्य है। मंझले और छोटे शहर राजकीय व अंतरराज्यीय प्रतिस्पद्र्धा से आर्थिक विकास को गति दे सकते हैं।  
‘अर्बन रिन्यूअल पॉलिसी’ के फायदे यूरोपीय देशों में खूब देखे गए हैं। वास्तव में, दुनिया के तमाम देश ऐसी समस्याओं से जूझते रहे हैं, लेकिन वही इससे सफलतापूर्वक निकल पाते हैं, जो इसके लिए पर्याप्त दृढ़ता दिखाते हैं। यूरोपीय देशों ने समयानुकूल अपने यहां ढांचागत बदलाव किए। इसका नतीजा यह है कि आज वहां सघन आबादी वाले अनियोजित क्षेत्र नहीं दिखते। अच्छी बात है कि इस बार केंद्र सरकार ने आम बजट में बिहार, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों पर खास ध्यान दिया है। इससे वहां आधारभूत ढांचे पर निवेश हो सकेगा। अब इन राज्यों की आय बढ़ाने की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए सभी आकार के शहरों का विकास आवश्यक है,  क्योंकि जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन में नवीनीकरण पर ज्यादा काम नहीं हो सका है।
कुल मिलाकर, हमें शहरों के आर्थिक विकास का काम नगर निकायों के हवाले करना होगा। उसे ही यह तय करना चाहिए कि कौन-सा क्षेत्र किस गतिविधि के अनुकूल है और इसके लिए कैसा ढांचागत सुधार किया जाए। इस काम में बड़े और छोटे शहरों की अलग-अलग भूमिका होगी। शीर्ष विभागों को इस प्रक्रिया पर निगरानी रखनी चाहिए और जरूरत के मुताबिक समन्वय करना चाहिए। वास्तव में, नगर निकायों की मजबूती ही नगरीय व्यवस्था को बेहतर बनाती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)