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जनादेश से जूझती कर्नाटक की राजनीति

कर्नाटक में गठबंधन सरकार बनाने के लिए जनता दल(एस) का समर्थन कर कांग्रेस ने पिछले साल भारतीय जनता पार्टी को स्तब्ध कर दिया था। हालांकि विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन उसके...

जनादेश से जूझती कर्नाटक की राजनीति
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारTue, 25 Jun 2019 03:27 AM
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कर्नाटक में गठबंधन सरकार बनाने के लिए जनता दल(एस) का समर्थन कर कांग्रेस ने पिछले साल भारतीय जनता पार्टी को स्तब्ध कर दिया था। हालांकि विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन उसके पास विधायकों की इतनी संख्या नहीं थी कि वह अपने दम पर सरकार बना सके। संख्या बल के हिसाब से कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी, और उसके विधायकों की संख्या जनता दल(एस) से काफी अधिक थी। बावजूद इसके वह मुख्यमंत्री का पद सहयोगी दल को ऑफर कर खुद पीछे की सीट पर बैठ गई। इस त्वरित दांव को देखते हुए तब कुछ राजनीतिक विश्लेषक ऐसी अटकलें भी लगाने लगे थे कि संसदीय चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी कर्नाटक मॉडल का इस्तेमाल कर सकती है। कहने के लिए ही सही, मगर इस मॉडल ने चुनावी राजनीति के पूरे तर्क को सिर के बल खड़ा कर दिया था। अंक गणित के हिसाब से जो पार्टी तीसरे नंबर पर थी, उसे सरकार बनाने का मौका मिला, जबकि दूसरी बड़ी पार्टी ने दूसरा खेल चुना और नंबर एक पार्टी अपनी उंगलियां चटकाती रह गई।

जाहिर है, कांग्रेस-जनता दल(एस) गठबंधन एक तदर्थ व्यवस्था थी और इसे लोगों का जनादेश हासिल नहीं था। जनता ने किसी एक राजनीतिक पार्टी के हक में फैसला नहीं दिया था। कांग्रेस और भाजपा ने न तो जनता दल(एस), और न ही किसी अन्य पार्टी के साथ कोई चुनाव-पूर्व गठबंधन किया था। चुनावी मैदान में ये तीनों पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ थीं, और इन्होंने एक कटु चुनाव लड़़ा। इसी जमीनी हकीकत ने कांग्रेस-जनता दल(एस) गठबंधन की गलती को ढक दिया। बहरहाल, फौरन इन दोनों पक्षों ने मंत्रियों और विभागों का आपस में बंटवारा भी सुलझा लिया। लेकिन पुराने घाव बने रहे। सत्ता का ताकतवर गोंद भी दोनों को साथ नहीं कर सकी। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और जनता दल(एस) नेता व पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा को एक-दूसरे से काफी शिकायतें बनी रहीं। यह तनातनी अनेक बार कई तरह से सामने आईं।

दरअसल, पूर्व समाजवादी और जनता दल परिवार के सदस्य रहे सिद्धरमैया को एक समय एचडी देवेगौड़ा का वास्तविक राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था। मगर देवेगौड़ा का संतान-प्रेम खुद उनकी राजनीतिक सोच पर हावी होता चला गया, और जब उन्होंने अपने सियासी वारिस के तौर पर बेटे को चुना, तो गुरु-शिष्य में दरारें पड़ गईं। सिद्धरमैया कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्होंने शायद ही कभी सपने में सोचा होगा कि एक ऐसा भी वक्त आएगा, जब उन्हें अपने पुराने बॉस से हाथ मिलाना पड़ेगा।

पिछले कुछ महीनों से गौड़ा खानदान की तीन पीढ़ियां (पिता-पुत्र और पौत्र) कांग्रेस-जनता दल(एस) गठबंधन के बारे में जनता और अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को भ्रामक संकेत देती रही हैं। कभी इस खानदान के नेताओं का लहजा मीठा रहा, तो कभी उनके सुर गठबंधन के सहयोगी को धमकाने वाले रहे और सबसे बुरा तो यह कि वे सार्वजनिक तौर पर रोते भी रहे। खुद इस परिवार के बुजुर्ग पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा अपने बयानों में कई कलाबाजियां खा चुके हैं।

दूसरी तरफ, कांग्रेस पार्टी भी बहुत प्रखर रूप से उभरकर सामने नहीं आई। हाईकमान ने गठबंधन को अपना आशीर्वाद तो दे दिया और फिर वह यह सोचकर बैठ गया कि गठबंधन अपने आप जमीनी तौर पर काम करने लगेगा। सिद्धरमैया के समर्थकों की चिकोटियों ने एच डी कुमारस्वामी को यहां तक कहने को विवश कर दिया कि ‘यह मेरा दुर्भाग्य है’ कि मुझे गठबंधन का मुख्यमंत्री चुना गया। राज्य कांग्रेस के नेता खुलेआम कुमारस्वामी सरकार पर निशाना साधते रहे और उन्होंने यह तक ख्याल नहीं किया कि वे इस गठबंधन के साझीदार हैं। लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों पार्टियों में कुछ संघर्ष भी हुआ, फिर नाटकीय रूप से वे एक समझौते के बिंदु पर पहुंच भी गईं। लेकिन नतीजों ने पूरी पटकथा ही उलट-पुलट दी। दोनों पार्टियों को महज एक-एक सीट पर जीत मिली और बाकी तमाम सीटें भाजपा के खाते में चली गईं। खुद देवेगौड़ा लोकसभा चुनाव हार गए। अगर कर्नाटक की जनता कोई संदेश देना चाहती थी, तो वह इससे साफ संदेश कुछ और नहीं दे सकती थी।

कांग्रेस भले ही अनैतिक रूप से राज्य में सत्ता हथियाने में सफल रही, मगर वह इसे अपने लिए फायदे में नहीं तब्दील कर पाई। गठबंधन सरकार के पास एक साल का वक्त था और वह इस अवधि में मतदाताओं का भरोसा जीत सकती थी। लेकिन इसने न सिर्फ एक शानदार अवसर गंवा दिया, बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने में अपनी नाक कटवा ली! कांग्रेस-जनता दल(एस) सरकार शायद अब अपने आखिरी डग भर रही है। इस सरकार का अंत नजदीक आता साफ दिख रहा है। संसदीय चुनाव में दोनों पार्टियों के बेहद खराब प्रदर्शन ने इसे और डांवांडोल बना दिया। सिर्फ भाजपा के डर से दोनों पार्टियां अभी तक एक साथ बनी हुई हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि एक बार अगर सरकार गिरी, तो सिर्फ भाजपा लाभ की स्थिति में होगी और इन दोनों के हिस्से राजनीतिक गुमनामी के सिवा और कुछ न होगा।

दूरंदेशी हर किसी को अक्लमंद बना देती है। इस स्थिति का सबसे मुनासिब हल तो शायद यही था कि साल 2018 में ही विधानसभा भंग करके फिर से चुनाव करा लिए जाते। बहुत मुमकिन है कि पिछली मोदी सरकार ने किसी राजनीतिक नुकसान की आशंका में इस तरह का कदम न उठाया हो। मगर आज स्थितियां इस लिहाज से सबसे मुफीद हैं। इसे एक नया नेता तलाशना चाहिए। सबसे हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस और जनता दल(एस) अपने-अपने घर को व्यवस्थित करने में नाकाम दिख रही हैं, जबकि वे दोनों जानती हैं कि उनका धुर-विरोधी दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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