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वे रंग और होली की यादें

मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि होली का त्योहार हमारे जीवन में रंग भरने के लिए आता है। तभी तो जहां हम एक छोटे से दाग से भी घबरा जाते हैं, वहीं होली के दिन न जाने कितने रंगों से खुशी-खुशी रंग जाते...

वे रंग और होली की यादें
जावेद अख्तर, प्रसिद्ध गीतकारThu, 21 Mar 2019 12:01 AM
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मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि होली का त्योहार हमारे जीवन में रंग भरने के लिए आता है। तभी तो जहां हम एक छोटे से दाग से भी घबरा जाते हैं, वहीं होली के दिन न जाने कितने रंगों से खुशी-खुशी रंग जाते हैं। होली से मेरा इतना लगाव है कि अभी भी मैं जी भरकर खुद को रंगों में रंग देता हूं। देश भर में मनाए जाने वाले त्योहारों पर मैंने लंबी-चौड़ी रिसर्च की है और पाया कि हमारे यहां हर त्योहार के पीछे समाज के लिए एक सीख है।

मेरा बचपन लखनऊ में गुजरा है, इसलिए होली और दिवाली जैसे त्योहार मेरे दिल के काफी करीब हैं। हालांकि लखनऊ  में मैं बच्चा था, तब मुझे रंग लगाने का ज्यादा मौका नहीं मिला, क्योंकि बच्चा समझकर जिसे देखो, मुझे ही रंग जाता था। फिर स्कूल की पढ़ाई के लिए मैं अलीगढ़ चला गया। वहां जाकर होली के लिए मेरा प्यार और प्रबल हो गया। वहां पर हमारे प्रोफेसर से लेकर स्कूल की पूरी फैकल्टी होली मनाती थी। अलीगढ़ में मैंने होली का एक अलग ही उत्साह देखा। मैं कहीं पीछे न रह जाऊं, इसलिए दूसरों को रंग लगाने वाली टोली का सदस्य बन जाता था। टोली के सदस्यों का काम होता था कि सुबह से ही गुब्बारे, पिचकारियां और गुलाल इकट्ठा करके रखें, ताकि जब दूसरी टोली हम पर रंग लगाने आए, तो हम उनसे पीछे न रहें। जितने साल भी मैं अलीगढ़ में रहा, मेरी हर होली यादगार रही।

बस मेरी एक तमन्ना वहां पर पूरी नहीं हुई, जिसका अभी तक मुझे मलाल हैै। दरअसल, मैंने किसी के घर में एक बार पीतल की पिचकारी देखी थी और वह पिचकारी मेरे बालमन में इस कदर बैठ गई कि हर होली पर मुझे वह याद आ जाती है। हालांकि बहुत जिद करने के बाद मुझे स्टील की एक भारी-भरकम पिचकारी पकड़ा दी गई थी, लेकिन उसमें वह बात नहीं थी, जो उस पीली पीतल की पिचकारी में थी। अलीगढ़ के बाद मैं भोपाल चला गया। वहां पर भी खूब जोश के साथ होली मनाई। फिर मुंबई आया और बॉलीवुड इंडस्ट्री की होली देखकर तो मैं दंग रह गया।

पहले कहा जाता था कि जो इंडस्ट्री में आकर यशराज, आरके स्टूडियो और अमिताभजी की होली पार्टी में नहीं गया, समझो वह अभी यहां का सदस्य बना ही नहीं। खुद यशजी अपने यहां आए हर एक सदस्य को रंग लगाते थे और उसका स्वागत करते थे। ढोल-नगाडे़, खाना-पीना किसी चीज की कमी नहीं होती थी। सुबह से शुरू हुई महफिल शाम तक चलती थी। इंडस्ट्री का शायद ही कोई सदस्य होता होगा, जो वहां पर नहीं आता होगा। उस दिन वहां पर आपको वे लोग मिल जाते थे, जो पूरे साल नहीं मिले।

तब मोबाइल फोन भी नहीं थे, जो हर समय एक-दूसरे से बात हो पाए। इसलिए लोग होली की पार्टी का इंतजार करते थे कि कब वह हो और कब सबसे मिलने और बात करने का समय नसीब हो। कई कलाकारों को तो उसी पार्टी में काम भी मिल जाता था। उसी तरह, अमितजी के घर और आरके स्टूडियो का आलम भी रहता था। रंगों से भरे टैंक लोगों पर उड़ेल दिए जाते। उस होली से कोई भी बचकर नहीं निकल पाता था। कुछ लोग अपनी मर्जी से भीगते थे और कुछ दूसरों की मर्जी से। आरके स्टूडियो की होली भी किसी फिल्मी होली से कम नहीं होती थी।

वहां विविध प्रकार के व्यंजन बनते थे। कलाकार, आर्टिस्ट और तकनीशियन, हर किसी का स्वागत होता था। कोई छोटा-बड़ा नहीं होता था। उस दिन की मौज-मस्ती में सभी बराबर के भागीदार होते थे। एक ओर शंकर-जय किशन का लाइव बैंड रहता, तो दूसरी ओर सितारा देवी और गोपी कृष्ण के शास्त्रीय नृत्य के साथ बाकी सितारों के फिल्मी ठुमके भी लगते थे। सभी दिल खोलकर नाचते-गाते थे। खुद राजकपूर होली के रंग और उमंग की व्यवस्था करते थे। 

हालांकि अब सब बदल गया है। यशजी के जाने के बाद यशराज की होली के रंग फीके पड़े, तो वहीं अमितजी ने भी बीमारी के कारण होली मनानी बंद कर दी। इसलिए अब हर साल मैं, शबाना और हमारा परिवार कैफी हाउस में करीब 200 से 300 लोगों के साथ होली मनाते हैं। दिन भर चलने वाली कविताओं, शेरो-शायरी से होली और भी रंगनुमा हो जाती है। इस साल भी तैयारियां शुरू हो गई हैं। मुझे खुशी होती है यह देखकर कि अब पहले की अपेक्षा लोगों के मन में त्योहारों के लिए सम्मान बढ़ गया है। केमिकल से बने रंगों के बढ़ते प्रभाव ने भी होली का उत्साह कम नहीं होने दिया। मैं देख रहा हूं कि कुछ सालों से हर्बल रंगों का चलन बढ़ा है और मैं इससे बहुत खुश हूं, क्योंकि यह एक तो कोई नुकसान भी नहीं करता और दूसरा झट से छूट जाता है। पहले हमें हफ्तों तक आधा गाल हरा और आधा लाल लेकर काम करना पड़ता था। इस कारण से कलाकार बेचारे होली के रंगों का लुत्फ भी नहीं उठा पाते थे। 

मैंने अभी तक जितना भी समय देखा, उसके हिसाब से कह सकता हूं कि अभी का दौर सबसे अच्छा है। अब त्योहारों को लोग जाति और धर्म में नहीं बांटते और न ही इनके नाम पर होने वाली बुराइयों को बर्दाश्त करते हैं। आज का युवा जानता है कि त्योहार खुशियां मनाने के लिए होते हैं, मिलने-जुलने के लिए होते हैं। इसलिए त्योहारों के नाम पर हिंसा और बुराई फैलाने वालों को वह कड़ा जवाब देते हैं। अच्छी बात यह है कि अब देश में लोग एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आने लगे हैं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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