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दक्षिण एशिया में भारत अकेली उम्मीद

ग्लादेश भयानक उथल-पुथल से गुजर रहा है। वहां जनतंत्र इस्लामिक कट्टरवाद, पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद, सैन्य तानाशाही की आकांक्षा के प्रसार जैसे अनेक संकटों से जूझकर आगे बढ़ रहा था। बांग्लादेश के...

दक्षिण एशिया में भारत अकेली उम्मीद
Pankaj Tomarबद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानWed, 07 Aug 2024 10:22 PM
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ग्लादेश भयानक उथल-पुथल से गुजर रहा है। वहां जनतंत्र इस्लामिक कट्टरवाद, पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद, सैन्य तानाशाही की आकांक्षा के प्रसार जैसे अनेक संकटों से जूझकर आगे बढ़ रहा था। बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा बंग बंधु शेख मुजिबुर्रहमान की पुत्री शेख हसीना अनेक मोर्चों पर जूझते हुए भी देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के प्रयास में लगी थीं। अफसोस, विगत महीनों में यह प्रयास बाधित हो गया और ऐसी आंतरिक उथल-पुथल मची कि शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ा। अब वहां फिर सेना की ताकत बढ़ गई है। 
यह कहने में हर्ज नहीं कि बांग्लादेश के ‘राष्ट्र इन द मेकिंग’ की प्रक्रिया को इससे गहरा धक्का लगा है। वहां मची हिंसा ने सामाजिक, जनतांत्रिक एवं राष्ट्रीय तंतुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया है। न केवल बांग्लादेश, वरन आज पूरी दुनिया में अनेक तरह के पूर्वाग्रह, विघटनकारी धार्मिक या नस्लीय भाव एवं सैन्य प्रेरित आतंककवाद सिर उठाने लगे हैं। अनेक मुल्कों में आक्रामक भू-राजनीति, विघटन एवं विभाजन केंद्रित हिंसा को पड़ोसी मुल्कों से भी हवा दी जा रही है। इस नकारात्मक कार्य में अनेक महाशक्तियां और उनसे प्रभावित समर्थक देशों की भी बड़ी भूमिका है। ऐसी ही कुचेष्टाओं ने दक्षिण एशिया के अनेक मुल्कों जैसे - पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि में जनतंत्र को संकटग्रस्त कर दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिकता ने जो सबसे मूल्यवान नीधि दुनिया को सौंपी थी, वह थी जनतांत्रिक व्यवस्था एवं जनतंत्र को पाने की चाह। वही बहुमूल्य नीधि आज के संदर्भ में संकटग्रस्त दिखने लगी है। इसके ज्वलंत उदाहरण हम बांग्लादेश में देख रहे है। यह हमारी सरकारों और समाज के लिए गहरे विचार का विषय होना चाहिए।
यहां प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे अनेक देशों में जनतंत्र क्यों बार-बार संकटग्रस्त हो जाता है? इसकी सबसे बड़ी वजह वे आधार तत्व हैं, जिन पर इन मुल्कों में समाज और राष्ट्र निर्मित हुआ है। इनमें पहला आधारभूत तत्व इन देशों में हिंसा या टकराव की बुनियाद पर खड़ा समाज है। एक अच्छे समाज को  समावेश पर आधारित होना चाहिए, जबकि एक बुरा समाज टकराव पर खड़ा होता है। मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘चिड़ियों की दो आंख’ या द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के अनुसार ही भारत का विभाजन प्रस्तावित किया था। हम सब यह जानते हैं कि पाकिस्तान का निर्माण भारत विभाजन के लिए हुए भयंकर टकराव या हिंसा की बुनियाद पर हुआ। अफसोस, बाद में बांग्लादेश भी हिंसा की बुनियादी पर ही अलग हुआ या बना।
टकराव के दर्शन पर खड़े समाज अपने अंदर और बाहर हमेशा टकराव की ही दृष्टि पालते देखे जाते हैं। टकराव या अलगाव की इस संस्कृति और विश्व दृष्टि का एक बड़ा पोषक तत्व मजहब आधारित राष्ट्र की कल्पना है। मजहब आधारित राष्ट्रवाद हमेशा अपने भीतर आतंकवाद, कट्टरता को गति देता रहता है। ऐसे में, बाहरी व भीतरी विभाजनकारी तत्व योजनाबद्ध ढंग से काम करते हुए समाज और राष्ट्र के पूरे ढांचे को हिलाते एवं ध्वस्त करते रहते हैं। हम आसानी से देख सकते हैं कि अनेक देशों में इस्लाम अपने आध्यात्मिक एवं धार्मिक समाहार की शक्ति खोते हुए राजनीतिक अस्त्र में बदल गया है, जिसका इस्तेमाल प्राय: सैन्य तानाशाह एवं अन्य किस्म के तानाशाह करते रहे हैं। 
इस तरह के समाज एवं राष्ट्रों में ‘जनतंत्र’ के संकट का दूसरा बड़ा आधारभूत तत्व इन राष्ट्रों में उपजा आर्थिक संकट है। यह संकट इनके गलत एवं असंतुलित आर्थिक नीतियों की वजह से पैदा हुआ है। इसी आर्थिक संकट ने इन देशों में बेरोजगारी, जलालत एवं जहालत का भंवरजाल रचा है, जिसमें जनतंत्र का बार-बार खून होता है। अर्थव्यवस्था से निराश आबादी का इस्तेमाल तानाशाही, कट्टरपंथी एवं गैर-जनतांत्रिक शक्तियां ही करती हैं, जिससे समाज और राष्ट्र अव्यवस्थित हो जाता है। गौर कीजिए, बांग्लादेश में बेरोजगारी की वजह से ही आरक्षण विरोधी आंदोलन को बल मिला, जिसे कट्टरपंथियों ने हवा देकर हिंसक बना दिया। अब सवाल खड़ा हो गया है कि क्या बांग्लादेश की विकास यात्रा को अपूरणीय नुकसान हो चुका है? यह एक सबक है कि जो आरक्षण हाशिये के समूहों के सशक्तीकरण एवं सम्मान के लिए एक जनतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में हमें मिला है, वह जब नकारात्मक मोड़ लेता है, तो समाज एवं राष्ट्र को तोड़ने के बड़े हथियार में बदल जाता है। 
जिन दक्षिण एशियाई देशों में असंतुलित एवं हिंसक धार्मिक भाव राष्ट्र निर्माण के आधार होते हैं, वहां सैन्य तानाशाह प्राय: इन्हीं भावों का उपयोग करते हुए जनतंत्र को कमजोर कर देते हैं। हालांकि, बांग्लादेश का समाज भाषा, मजहब के साथ-साथ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के भाव से निर्मित हुआ था, इसलिए इसमें जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं विकास की संभावना पाकिस्तान से कहीं ज्यादा रही है। बांग्लादेश की समकालीन राजनीति पर भारत का प्रभाव तो रहा है, पर इसकी ‘भू राजनीति’ पर पाकिस्तान का सीधा हस्तक्षेप बना हुआ है। 
यहां हमें यह विचार करना ही चाहिए कि ‘भारत का समाज एवं राष्ट्र’ ऐसी विनाशक संहारक प्रवृत्तियों से क्यों और कैसे बार-बार उबरता रहता है? भारत के समाज में कई बार ऐसे संकट आते हैं, जनतंत्र कमजोर होता दिखता है, पर पुन: उन संकटों से उबरकर यहां जनतंत्र नई जीवन-शक्ति के साथ बहाल हो जाता है। इसका मुख्य कारण है- भारतीय समाज के ऐसे बुनियादी तत्व, जो इसे टकराव या अलगाव से बचाते हैं। अनेक दार्शनिक, ऐतिहासिक कारणों और अनुभवों के चलते ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ का विचार हमें टकराव से बचाकर समाहार की राह पर रखता है।
आजादी के बाद हमारे प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं - महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, बाबा साहेब आंबेडकर ने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को नव-निर्मित करते हुए एक ऐसे राष्ट्र की नींव रखी, जहां जनतंत्र निरंतर विकसित होता रहे। ऐसा राष्ट्र बने, जिसमें पंक्ति में खड़े अंतिम नागरिक तक देश के संसाधनों को पहुंचाया जा सके, ताकि वह विभाजनकारी ताकतों के हाथ में विघटन का औजार न बने। जिन्ना ने ‘हम साथ नहीं रह सकते’ के टकराव भाव के साथ पाकिस्तान को बनाया था, जबकि गांधीजी मिलकर रहने या समाहार की बात लगातार करते चले गए। अब भारत को लगातार कोशिश करनी चाहिए कि उसके चरित्र में समाहार और सद्भाव का भाव वैसे ही बना रहे, जैसी उम्मीद संविधान ने की थी, तभी हम हर संकट से बचे रहेंगे।  
(ये लेखक के अपने विचार हैं)