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अपने देश का मिलकर बढ़ाइए आकर्षण

पिछले दिनों अखबारों में छपी एक खबर ने बरबस ध्यान अपनी तरफ खींचा। प्रतिवर्ष लगभग 2.25 लाख भारतीय देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं और यह पूरी दुनिया में किसी एक देश से प्रवसन या पलायन करने वालों की सबसे...

अपने देश का मिलकर बढ़ाइए आकर्षण
Pankaj Tomarविभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीTue, 06 Aug 2024 10:25 PM
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पिछले दिनों अखबारों में छपी एक खबर ने बरबस ध्यान अपनी तरफ खींचा। प्रतिवर्ष लगभग 2.25 लाख भारतीय देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं और यह पूरी दुनिया में किसी एक देश से प्रवसन या पलायन करने वालों की सबसे बड़ी संख्या है। 2023 में अंतरराष्ट्रीय प्रवसन का अध्ययन करने वाली एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 और 2022 में विकसित देशों की ओर होने वाले पलायन का सबसे बड़ा स्रोत भारत था। यह मिथक ही है कि सिर्फ रोजगार की तलाश में  गरीब या मध्यवर्ग के लोग ही देश छोड़कर बाहर गए। बाहर पूंजी लगाने के लिए प्रवसन का अध्ययन करने वाले थिंक टैंक हेनले ऐंड पार्टनर्स के एक अध्ययन के अनुसार, संभावना है कि 2024 में ही 4,300 अरबपति भारत की नागरिकता छोड़ेंगे और यह इस श्रेणी में दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी संख्या होगी। चीन (15,200) इस सूची में सबसे ऊपर है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि रोजगार के लिए बाहर जाने वालों में से काफी संख्या में लोग लौट आते हैं, पर अरबपति तो जाते ही हैं, अपना भारतीय पासपोर्ट जमा करके। भिन्न देशों की नागरिकता उन्हें लगभग खरीदनी पड़ती है। अर्थात वे वहां एक बड़ी राशि का निवेश या उसका वायदा करते हैं। इस तरह उनके जाने से देश उनके अनुभव के अलावा एक बड़ी धनराशि के निवेश से भी वंचित हो जाता है।
आज जब दावा किया जा रहा है कि भारत विकासशील देशों में सबसे तेज बढ़ती और विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था है, क्योंकर ऐसा है कि हर समर्थ व्यक्ति अगर उसे मौका मिले, तो देश छोड़कर भागने के लिए तैयार बैठा है? विकास के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की मजबूरी तो समझ में आती है, जो रोजगार की तलाश में देश के अंदर ही मारा-मारा फिरता है और अपना गांव-दुवार छोड़कर महानगरों में कई बार नारकीय जीवन भी चुन लेता है। यह वह तबका है, जो रूस की सेना में निश्चित मृत्यु का जोखिम उठाकर भी भर्ती हो रहा है या हाल में युद्ध के दहाने पर बैठे इजरायल में इमारती कारीगर बनने चला गया। इजरायल जाने वाले एक मजदूर की मजबूरी इस वाक्य से समझी जा सकती है कि वहां से पैसे भेजकर वह कम से कम अपने बच्चों का पेट तो भर ही सकेगा। इस तरह का गरीब मजदूर अपनी नागरिकता नहीं छोड़ता, बल्कि हर महीने कुछ न कुछ विदेशी मुद्रा भेजकर देश की मदद ही करता है। गए वित्तीय वर्ष में भारतीय नौकरीपेशा लोगों ने बाहर से 107 अरब डॉलर भेजे और हमारे विदेशी मुद्राकोष को बढ़ाने में सहायक हुए।
यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भरपूर लाभ उठाने वाले अरबपतियों में देश छोड़ने की होड़ क्यों लगी हुई है? उनमें से एक छोटा सा तबका तो वह है, जो किन्हीं आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने और कानून की पकड़ से बचने के लिए बाहर भाग जाता है, पर ज्यादातर स्वेच्छा से और कानूनी तरीकों से अपने पासपोर्ट का रंग बदलते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति को समझने के लिए हमें दो तथ्य मद्देनजर रखने होंगे।
चीन, जिसकी अर्थव्यवस्था भारत से कई गुना बड़ी है और अगले कुछ दशकों में जो अमेरिका को पछाड़कर विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, उसे छोड़कर जाने वाले अरबपति भारत के मुकाबले तीन गुने से अधिक हैं। फिर क्यों वे चीन से छोटी अर्थव्यवस्थाओं को चुन रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर इस तथ्य में छिपा है कि भारतीय और चीनी अरबपति जा कहां रहे हैं? वे उन देशों में जा रहे हैं, जहां पिछली कुछ शताब्दियों में लोकतंत्र फला-फूला है और जिन्होंने नागरिक अधिकारों को इस हद तक वैधानिक सुरक्षा प्रदान की है कि उसके चलते वे दुनिया की दो पुरानी सभ्यताओं- भारत और चीन को पछाड़कर इस सोपान पर दोनों से बहुत ऊपर पहुंच गए हैं। लोकतंत्र उनके जीवन का अंग बन गया है। 
मुझे यह देखकर बड़ा दिलचस्प लगता है कि पश्चिम विरोधी दुनिया के दो बड़े दर्शनों- मार्क्सवाद और इस्लाम की छत्रछाया में रहने वालों के मन के भी किसी कोने में किसी भी तरह अमेरिका या यूरोपीय संघ के देशों में बस जाने की इच्छा छिपी रहती है। चीन और इस्लामी मुल्कों में जहां इस पलायन के लिए लोकतंत्र का अभाव जिम्मेदार है, भारत में इसके साथ गवर्नेंस की अनुपस्थिति भी एक बड़ा कारण है। धीरे-धीरे बढ़ रही शहरीकरण की प्रक्रिया में अनुपस्थित शासन साफ दिखता है। दूर न जाकर इस प्रक्रिया में विकसित हो रही सबसे बड़ी शहरी बसावट राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को देखकर ही हम गवर्नेंस का अंदाज लगा सकते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में बरसात अब किसी कोमल अनुभूति के साथ नहीं आती, नागरिक इस दौरान दहशत से गुजरते हैं। पिछले कई सालों की तरह इस बार भी आधे दर्जन से अधिक नागरिक जलभराव और इमारतों के गिरने से मरे, सड़कें चलने लायक नहीं रहीं और इस साल भी भ्रष्ट म्यूनिसिपल अधिकारियों की बांछें खिली रहीं। एनसीआर की एक महत्वपूर्ण बसावट नोएडा की सड़कों पर सांड़ और गायें घूमती रहती हैं। दूसरी बड़ी बसावट गुरुग्राम में हल्की बारिश भी नागरिकों को शहर में बाढ़ का मजा चखाती रहती है। एनसीआर की ज्यादातर जगहों पर टूटी सड़कें, बंद नालियां, उखड़े अतिक्रमित फुटपाथ और सड़कों पर घूमते लावारिस पशु आपका स्वागत करेंगे। उस पर तुर्रा यह कि अगले बीस-पच्चीस वर्षों में विकसित होने का सपना देखने वाले देश में स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था निरंतर व्यावसायिक होते जाने से आम नागरिकों की पहुंच से दूर होती जा रही है। 
यह एक खुला सच है कि किसी समाज के सभ्य और अपने नागरिकों के बीच लोकप्रिय होने का सबसे बड़ा आधार वहां मौजूद रूल ऑफ लॉ या कानून कायदों को निष्पक्ष ढंग से लागू करने में राज्य की इच्छाशक्ति और सामर्थ्य होता है। हमें बाहर भागने वालों को कोसने के पहले यह भी सोचना होगा कि क्या हम अपने नागरिकों को रूल ऑफ लॉ दे पा रहे हैं? चीन या इस्लामी देशों की स्थिति तो समझी जा सकती है कि सारी समृद्धि के बावजूद लोकतंत्र का अभाव उनके नागरिकों को पश्चिम की तरफ खींचता है, पर भारत में ऐसा क्यों हो रहा है? अवसरों की कमी की वजह से गरीब या मध्यवर्ग का पलायन तो स्वाभाविक लगता है, पर अरबपतियों के देश छोड़ने को समझने के लिए हमें देश में मौजूद नागरिक सुविधाओं, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आ रही गिरावट या गवर्नेंस की कमी के साथ-साथ निरंतर घट रहे लोकतंत्र पर भी नजरें डालनी पड़ेंगी।
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)