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प्याज की परतों में छिपी राजनीति

प्याज के दाम आसमान पर हैं। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र के सोलापुर और संगमनेर की मंडियों में प्याज का थोक भाव सौ रुपये किलो के ऊपर चला गया। इतिहास में पहली बार इन मंडियों में प्याज ने सौ रुपये का आंकड़ा पार...

प्याज की परतों में छिपी राजनीति
आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकारSun, 01 Dec 2019 11:48 PM
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प्याज के दाम आसमान पर हैं। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र के सोलापुर और संगमनेर की मंडियों में प्याज का थोक भाव सौ रुपये किलो के ऊपर चला गया। इतिहास में पहली बार इन मंडियों में प्याज ने सौ रुपये का आंकड़ा पार किया है। सरकार एक हफ्ते पहले ही करीब सवा लाख टन प्याज आयात करने का फैसला कर चुकी है। वह तब हुआ था, जब दाम 40 रुपये के पार गया था। यही नहीं, उसने थोक व्यापारियों पर 500 क्विंटल और खुदरा व्यापारियों पर 100 क्विंटल की स्टॉक लिमिट भी लगा रखी है, यानी वे इससे ज्यादा प्याज अपने पास रखेंगे, तो पकडे़ जा सकते हैं। एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नासिक के लासलगांव में है। यहां और दूसरी कई मंडियों में प्याज व्यापारियों पर छापे भी मारे गए हैं, लेकिन इसका फायदा बाजार में कहीं दिख नहीं रहा है। उल्टे मानसून देर से खत्म होने और बेमौसम बहुत ज्यादा बारिश से फसल को नुकसान हुआ है, जिससे दाम थमने के आसार भी कम हैं। टमाटर के दाम में भी तेज उछाल आया था, लेकिन वह उफान काफी हद तक ठंडा हो चुका है।

यह पहली बार का किस्सा नहीं है। प्याज का दाम पिछले करीब  चालीस साल से लगातार ऊपर-नीचे होता रहा है। सत्तर के दशक के अंत में प्याज का दाम भी एक बड़ा मुद्दा था इंदिरा गांधी की राजनीतिक वापसी वाले चुनाव प्रचार में। दाम के नाम पर चुनाव जीतने और हारने वाली पार्टियों में से किसी ने भी इस समस्या का कोई इलाज आज तक नहीं किया और न ही करने का इरादा दिखाया है। अब देखिए किसान का हाल। इसी साल मध्य प्रदेश के नीमच जिले में किसानों ने पांच पैसे किलो के भाव पर अपना प्याज निकाला है। महाराष्ट्र के नासिक और पुणे के आस-पास, जहां प्याज की खेती होती है, खेत में जाकर किसानों से पूछा गया कि दाम बढ़ने से उन्हें तो मजा आ गया होगा। जवाब था- ‘हमने तो अपनी फसल पहले ही व्यापारियों को 13-14 रुपये किलो के भाव पर बेच रखी है। प्याज हमारे पास रखा है, लेकिन वे आकर ले जाएंगे। दाम बढ़ने का हमें क्या फायदा?’

जब दाम गिरने की खबरें आती हैं, तो किसान बेहाल होता है, अपनी फसल सड़क पर उलटता है, जानवरों को खिला देता है या जमीन में दफ्न कर देता है। लेकिन उस वक्त भी आपके घर के पास प्याज का दाम दस रुपये किलो से कम कतई नहीं होता। दूसरी ओर, जब प्याज सत्तर-अस्सी रुपये किलो बिकने लगता है, जैसे आजकल सौ के करीब पहुंच चुका है, उस समय भी महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश के प्याज उगाने वाले किसानों से पूछिए, तो पता चलता है कि अब दाम बढ़ने से उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला।

सवाल है कि उन्होंने अपनी फसल पहले ही क्यों बेच दी? प्याज की खेती तैयार करने और फिर उसे खेत से निकालने में एक एकड़ पर करीब अस्सी से नब्बे हजार रुपये खर्च होते हैं। यही रकम एडवांस देकर व्यापारी खेत का सौदा कर लेते हैं। एक एकड़ में करीब ढाई सौ क्विंटल प्याज निकलता है। दाम अच्छे मिले, तो व्यापारी बाकी रकम चुका देते हैं, लेकिन अगर दाम गिर गए, तो फिर कई बार वे फसल उठाने भी नहीं आते या बकाया देने से इनकार कर देते हैं। किसान दोनों तरफ से मारा जाता है।

इसी सीजन में देश से करीब 35 लाख टन प्याज निर्यात हो चुका है। और वह तब हुआ, जब दाम पांच से दस हजार रुपये क्विंटल था। आज देश को आयात करने की जरूरत है, जब यहां दाम सौ रुपये पहुंच चुका है। दुनिया भर की मंडियों में यह सुनकर ही दाम बढ़ जाते हैं कि भारत से इंपोर्ट ऑर्डर आने वाला है। यही किस्सा गेहूं का है, यही चीनी का और यही प्याज का। हम सस्ते में बेचते हैं और फिर अपनी  जरूरत पूरी करने के लिए महंगे में खरीदते हैं। कमोडिटी बाजार के विशेषज्ञ जी चंद्रशेखर इसे लेकर खासे नाराज दिखते हैं। उनका कहना है कि ‘सरकार में कमर्शियल इंटेलीजेंस की बहुत कमी है। कोई आदमी एक व्यापारी की तरह यह क्यों नहीं सोच सकता कि कब खरीदने में फायदा है और कब बेचने में?’ हिसाब से यह काम बनिया-बुद्धि से ही हो सकता है, बाबूगिरी से नहीं।

यहां समस्या यह है कि दाम बढ़ते ही सरकार सक्रिय हो जाती है और कुछ ऐसे कदम उठाती है, जो बाजार का संतुलन बिगाड़ते हैं। अगर वह सचमुच बनिया-बुद्धि लगाए, तो एक तीर में दो निशाने लग सकते हैं। कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने तो सीधा फॉर्मूला दिया है- ‘जब दाम गिरे हुए होते हैं, तब नैफेड लागत से कुछ ऊपर दाम पर बाजार से प्याज खरीदकर किसानों की मदद करे। इसे कोल्ड स्टोरेज में रखा जाए और तीन-चार महीने बाद जब दाम चढ़ने लगें, तो पहले ही यह स्टॉक बेचना शुरू कर दिया जाए। इससे दाम तीस रुपये किलो के आस-पास रखे जा सकते हैं।’

इलाज सीधा भी है और आसान भी। लेकिन इसके लिए जरूरी हैं अच्छे कोल्ड स्टोरेज। वरना जैसे सरकारी गेहूं का हाल होता है, वैसा ही प्याज का भी हो सकता है। दूसरी बात, राजनीति में जब तक प्याज, तेल और चीनी मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहेंगे, तब तक इलाज में किसी की दिलचस्पी होनी मुश्किल है। यही वजह है कि आज भी बाजार भाव का 30 से 35 प्रतिशत हिस्सा ही किसानों तक पहुंच रहा है, बाकी सब बिचौलियों के नेटवर्क में बंट जाता है। अगर कोई किसानों और उपभोक्ताओं का सचमुच भला करना चाहता है, तो उसे सबसे पहले इस नेटवर्क को तोड़ना होगा। एक इलाज हमारे-आपके हाथ में भी है। जब दाम बढे़, तो प्याज खाना बंद कर दें या फिर कम कर दें। आपके पास खाने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन उस गरीब की सोचिए, जो एक मोटी रोटी के साथ आधा प्याज और थोड़ा सा नमक खाकर अपना पेट भरता है। उसके पास दूसरा रास्ता शायद नहीं है। आप आज भी पांच किलो प्याज के दाम का एक पिज्जा या एक सिनेमा टिकट खरीद रहे हैं। आप नहीं खाएंगे, तो शायद दाम उसकी पहुंच में बना रहे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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