क्या इन सितारों से चमकेगा लोकतंत्र
फिल्मी सितारे भी देश के नागरिक होते हैं, इसलिए उनके राजनीति में आने पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। कुछ कलाकारों ने राजनीति में बहुत गंभीरता से काम भी किया है। सुनील दत्त इसके आदर्श उदाहरण हैं। कुछ हद तक...
फिल्मी सितारे भी देश के नागरिक होते हैं, इसलिए उनके राजनीति में आने पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। कुछ कलाकारों ने राजनीति में बहुत गंभीरता से काम भी किया है। सुनील दत्त इसके आदर्श उदाहरण हैं। कुछ हद तक विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी और जया प्रदा को भी ऐसे सितारों में रखा जा सकता है, जिन्होंने फिल्मों या टीवी से अर्जित अपनी पहचान पीछे छोड़ी और राजनीति को कहीं ज्यादा गंभीरता से लिया। दक्षिण भारत में तो पूरी राजनीति ही फिल्मी कलाकारों के आस-पास घूमती रही है।
संकट तब शुरू होता है, जब राजनीति पीछे छूट जाती है, और ग्लैमर बड़ा हो जाता है। 1984 में जब अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद में हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेता को हरा दिया था, तो वह राजनीति पर ग्लैमर की जीत थी। अमिताभ बच्चन की जीत में लोकतांत्रिक गंभीरता की हार भी छिपी थी। 1991 में राजेश खन्ना ने लालकृष्ण आडवाणी को दिल्ली में लगभग हरा ही दिया था। तब आडवाणी बस 1,500 वोटों से जीत पाए थे। सितारों या उनकी खास छवियों के राजनीति द्वारा इस्तेमाल के ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं।
रामायण सीरियल के कलाकारों की लोकप्रियता देखते हुए भाजपा ने सबको अपने साथ जोड़ने की कोशिश की। सीता की भूमिका अदा करने वाली दीपिका उस वडोदरा सीट से चुनाव जीतीं, जिससे 2014 में प्रधानमंत्री मोदी जीते थे। इसी तरह, रावण की भूमिका करने वाले अरविंद त्रिवेदी भी बीजेपी के टिकट से लोकसभा तक पहुंचे। महाभारत के कृष्ण और युधिष्ठिर भी चुनावी महाभारत का हिस्सा बने। यह सिलसिला किरण खेर तक आता है। राजनीति के गलियारे में कलाकारों के आने का यह सिलसिला पुराना है। इस सिलसिले में कुछ की भद्द भी पिटी है। बीकानेर से बीजेपी के टिकट पर जीते धर्मेंद्र को खोजने के लिए उनके क्षेत्र के लोगों ने लापता के पोस्टर छपवाए। कुछ ऐसा ही वाकया गोविंदा के साथ भी चर्चा में रहा।
इस बार भी कई नए-पुराने सितारे मैदान में हैं। सनी देओल और उर्मिला मातोंडकर के नाम सबसे पहले ध्यान में आते हैं। फिल्मी हस्तियों के अलावा खेलों की दुनिया के सितारे भी चुनाव लड़ रहे हैं। गौतम गंभीर और विजेंदर सिंह अब राजनीति के मैदान में किस्मत आजमा रहे हैं। और तो और, समाजवादी पार्टी ने लखनऊ से शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को उतार दिया है।
लेकिन अपने-अपने क्षेत्र छोड़कर या वहां से रिटायर हुए लोगों का राजनीति में इस तरह आना क्या बताता है? क्या यह लोकतंत्र का लोकप्रियतावाद के आगे आत्मसमर्पण है? अगर है भी, तो क्या हमें इसकी शिकायत करने का हक है? ऐसे उदाहरण लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जिनमें हम चुनावी राजनीति को बाहुबल और धनबल के आगे आत्मसमर्पण करते देखते रहे हैं- जातिवादी और वंशवादी राजनीति के आगे भी। संभवत: वाम दलों को छोड़कर कोई पार्टी इन बीमारियों से बची नहीं है। जब अपराधी राजनीति में आ सकते हैं, जब धनपशु राजनीति में आ सकते हैं, जब नेता-पुत्र-पत्नी आ सकते हैं, तो उन सितारों से परहेज क्यों करें, जिन्होंने कम से कम अपनी प्रतिभा से लोकप्रियता अर्जित की है?
लेकिन अपराधी हों, अमीर हों, नेताओं के बेटे-बेटियां हों, अभिनेता हों या अभिनेता की पत्नी हों- इन सबका राजनीति में अवतरण इस बात की ओर इशारा जरूर है कि हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के स्तर पर जनता की भागीदारी कमजोर पड़ी है। पार्टियों के भीतर अंदरूनी लोकतंत्र न होने का एक बड़ा खामियाजा यह भुगतना पड़ा है कि नेता और प्रतिनिधि अब ऊपर से खोजे और उतारे जाते हैं, लोगों के बीच से नहीं आते। सोशल मीडिया ने जनता के इस कटाव को कुछ और आसान किया है। इस प्रक्रिया की चिंताजनक बात यह है कि वास्तविक लोकतंत्र की जगह लोकतंत्र का जो अभिनय चल रहा है, उसमें जनता बहुत सारे टुकड़ों में बांट दी गई है। बल्कि आम और सचेत नागरिक को इस तरह ‘जनता’ में बदला गया है कि उसके नाम पर अपने सारे अपकृत्य सही साबित किए जा सकें।
इसका दूसरा और ज्यादा बड़ा नुकसान यह हुआ है कि राजनीति में गंभीर विचार-विमर्श की जगह घटती चली गई है। टीवी चैनलों पर 24 घंटे चल रही बहसें लगभग ऐसे जाने-पहचाने प्रहसन में बदल गई हैं, जिनसे अब ऊब होने लगी है। राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, साम्यवाद, भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय- सारे के सारे पद बस राजनीतिक जुमलेबाजी का हिस्सा बना दिए गए हैं।
लेकिन इन सबका सबसे बड़ा नुकसान समझना बाकी है। जब लोकतंत्र ऐसी विचारविहीनता का शिकार होता है, ऐसे प्रदर्शनप्रिय संख्यावाद की गिरफ्त में चला जाता है, तो या तो राजनीतिक नेतृत्व अपनी विश्वसनीयता खो देता है या अधिनायकवाद की प्रतिष्ठा और पूजा करने लग जाता है। यह भ्रम फैलाया जाता है कि सारी व्यवस्था लुंज-पुंज और बेकार है और ऐसे में कोई मसीहा ही आकर देश को उबार सकता है। फिर जनता अचानक किसी जुमलेबाज से लेकर मसखरी में माहिर या मोल-तोल करने वाले किसी को चुन लेती है। दुनिया भर के उदाहरण यही बता रहे हैं। यूक्रेन में इस जून में एक कॉमेडियन वोलोदिमीर जेलेंस्की राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं, जिन्हें वहां की जनता ने 73 फीसदी वोट दिए। अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन को परास्त कर डोनाल्ड ट्रंप का आना भी वहां के पारंपरिक दलों से लोगों की बढ़ती हताशा का ही नतीजा माना गया था।
क्या भारत में भी राजनीतिक दल अपनी विशिष्ट वैचारिक पहचान खोते जा रहे हैं? जिस सहजता से नेता एक दल से दूसरे दल में जा रहे हैं और राजनीति के बाहर के सितारे उनमें अपनी जगह बना रहे हैं, उसका एक इशारा यह भी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)