बढ़ते तापमान में मानसून की राहत
भारत में मानसून की भविष्यवाणी काफी अहमियत रखती है। इसके महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह देश की कृषि-पैदावार और अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा तय करती है। चूंकि भारत की करीब 58 फीसदी आबादी अब...
भारत में मानसून की भविष्यवाणी काफी अहमियत रखती है। इसके महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह देश की कृषि-पैदावार और अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा तय करती है। चूंकि भारत की करीब 58 फीसदी आबादी अब भी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है और सिंचाई का प्रमुख साधन मानसूनी बारिश है, इसलिए इस भविष्यवाणी से यह आकलन किया जाता है कि खरीफ की फसल कितनी लहलहाएगी। महंगाई, विकास दर के साथ-साथ शेयर बाजार पर भी इसका खासा असर होता है। इसीलिए कमजोर मानसून की आहट कई चेहरों, खासतौर से अन्नदाताओं को उदास कर जाती है।
सुखद है कि इस साल मानसून की सेहत ज्यादा बुरी नहीं दिख रही। भले ही जून-जुलाई में कम बारिश होने के कारण सिंचाई का काम देर से शुरू हो, लेकिन अगस्त-सितंबर में तेज बारिश धान जैसी फसलों को काफी फायदा पहुंचाएगी। हालांकि तकनीकी शब्दावलियों पर गौर करें, तो भारतीय मौसम विभाग ने मानसून के ‘लगभग सामान्य’ बने रहने की भविष्यवाणी की है, जबकि स्काईमेट ने इसके ‘सामान्य से नीचे’ रहने की आशंका जाहिर की है। ‘सामान्य से नीचे’ का अर्थ है, दीर्घावधि की 90 से 95 फीसदी बारिश। दीर्घावधि पिछले 50 साल की औसत बारिश को कहते हैं, जो अभी 89 सेंटीमीटर है। स्काईमेट ने इस बार मानसून में औसत बारिश के 93 फीसदी पानी बरसने का कयास लगाया है, जबकि भारतीय मौसम विभाग ने 96 फीसदी (पांच फीसदी कम या ज्यादा)। दीर्घावधि की 96 से 104 फीसदी बारिश ‘सामान्य मानसून’ में गिनी जाती है, इसीलिए भारतीय मौसम विभाग ने ‘लगभग सामान्य’ शब्द का इस्तेमाल किया है। हालांकि उसने इस शब्दावली का इस्तेमाल पहली बार किया है, वह अब तक 96 फीसदी बारिश को सामान्य ही बताता आया है।
मानसूनी बारिश के इन दो अलग-अलग अनुमानों में विवाद के बीज नहीं देखे जाने चाहिए। अव्वल, तो दोनों अनुमानों में बारिश का अंतर सिर्फ तीन फीसदी है, जो बहुत बड़ा नहीं है। और फिर, यह विश्लेषण ‘प्योर साइंस’ नहीं होता। इसका कोई तयशुदा फॉर्मेट नहीं है। यह व्यक्तिपरक यानी सब्जेक्टिव माना जाता है, जिसका अर्थ है कि सभी विश्लेषक अपने-अपने हिसाब से आंकड़ों का गुणा-भाग करके नतीजे निकालने के लिए स्वतंत्र हैं। इस विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण पहलू ‘इंडियन ओशन डाइपोल’ भी है, जिसे सामान्य बोलचाल में ‘इंडियन नीनो’ कहा जाता है। उष्णकटिबंधीय पश्चिमी और पूर्वी हिंद महासागर के समुद्र की सतह के तापमान में अंतर से लगातार होने वाला बदलाव ‘इंडियन ओशन डाइपोल’ कहा जाता है। जब यह अच्छा रहता है, तो देश में बारिश भी अच्छी होती है। संभव है, भारतीय मौसम विभाग ने इस साल डाइपोल को ज्यादा महत्व दिया होगा। उसे लगा होगा कि यह इस बार तपती धरती को कहीं ज्यादा सुकून पहुंचाएगा।
अच्छी बात यह भी है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की एजेंसियों ने मानसून पर जिस अल नीनो के असर की आशंका जताई थी, उसे हमारी एजेंसियों ने उतना प्रभावी नहीं माना है। भारतीय मौसम विभाग ने मानसून के शुरू होते ही इसके कमजोर पड़ जाने की संभावना जताई है, जबकि स्काईमेट का अनुमान है कि जून-जुलाई में बारिश इससे प्रभावित तो हो सकती है, पर अगस्त-सितंबर में स्थिति बदल जाएगी। अल नीनो का प्रभाव तब पैदा होता है, जब पूर्वी प्रशांत महासागर की सतह का तापमान बढ़ जाता है। इससे एशिया और पूर्वी अफ्रीका के मौसम में बड़ा बदलाव आता है। कभी-कभी इस वजह से तेज बारिश होती है, तो कभी यह दक्षिण-पश्चिम मानसून को थाम लेता है। हालांकि जून-जुलाई में हुई कमी की कितनी भरपाई अगस्त-सितंबर में हो पाएगी, यह बता पाना फिलहाल मुश्किल है। लेकिन अल नीनो की वजह से ही 2014 और 2015 में देश में सूखे-जैसे हालात हो गए थे। साल 2016 में तस्वीर सुधरी थी और उस साल दीर्घावधि की 97 फीसदी बारिश दर्ज की गई, मगर 2017 में लगभग सामान्य (दीर्घावधि की 95 फीसदी) और 2018 में सामान्य से भी कम (दीर्घावधि की 91 फीसदी) बारिश हुई।
‘एक्सट्रीम वेदर’ यानी मौसम में अप्रत्याशित होने वाले बदलाव के प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन हैं। धरती के लगातार बढ़ते औसत तापमान ने देश-दुनिया के पर्यावरण को खासा प्रभावित किया है। अपने यहां ही बर्फबारी लगातार बढ़ने लगी है। जितना पानी पहले दो-तीन दिनों में बरसा करता था, वह अब महज दो-तीन घंटों में बरसने लगा है। तूफानों की तीव्रता बढ़ गई है और ये काफी ज्यादा नुकसान पहुंचाने लगे हैं। बढ़ता तापमान हवा में नमी की मात्रा भी काफी ज्यादा बढ़ा देता है, जिस कारण बनने वाले बादल कहीं ज्यादा उग्र होते हैं। विगत सात फरवरी को दिल्ली-एनसीआर समेत देश के कई हिस्सों में इसी ‘एक्सट्रीम वेदर’ की वजह से काफी ज्यादा ओले गिरे थे।
अच्छी बात है कि देश में मानसून-पूर्व की मौसमी गतिविधियां शुरू हो गई हैं। इस बार पश्चिमी विक्षोभ कहीं ज्यादा प्रभावी रहा था, जिसके कारण पहाड़ी भागों में देर तक बर्फबारी होती रही। इसका असर मैदानी इलाकों में भी दिखा, जहां तापमान अपेक्षाकृत कम बना रहा और सर्दी की अवधि कुछ लंबी चली। मार्च की बजाय बेशक अप्रैल में मानसून-पूर्व हालात बनते दिख रहे हैं, लेकिन उम्मीद है कि मई में इसमें तेजी आएगी और बढ़ते तापमान के साथ बरसने वाले बादल कहीं ज्यादा बनने लगेंगे। इससे उत्तर भारत में इस बार तेज गरमी कम पड़ेगी, लेकिन गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक जैसे मध्य भारत के राज्यों में तापमान ज्यादा बना रहेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)