राज्यपालों पर सवालों का सिलसिला
पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के बीच विवाद में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी राजभवनों को फिर आईना दिखाने वाली है। महाराष्ट्र प्रकरण में सर्वोच्च अदालत द्वारा स्पीकर...

पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के बीच विवाद में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी राजभवनों को फिर आईना दिखाने वाली है। महाराष्ट्र प्रकरण में सर्वोच्च अदालत द्वारा स्पीकर ही नहीं, राज्यपाल के आचरण पर भी की गई टिप्पणियां ज्यादा पुरानी नहीं हैं। अब पंजाब में मंजूरी के लिए भेजे गए विधेयकों को राज्यपाल द्वारा रोके जाने के खिलाफ याचिका पर प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने टिप्पणी की है कि राज्यपालों को अपनी अंतर्रात्मा में झांकने की जरूरत है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। यह भी कि वे निर्वाचित सरकारों द्वारा विधानसभा में पारित विधेयकों का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने से पहले ही निपटाएं। पंजाब सरकार ने 28 अक्तूबर को याचिका दायर की कि राज्यपाल जुलाई में मंजूरी के लिए भेजे गए सात विधेयकों को रोके बैठे हैं, जिससे कामकाज प्रभावित हो रहा है। इनमें से दो विधेयकों : पंजाब जीएसटी (संशोधन) विधेयक और इंडियन स्टांप (संशोधन) विधेयक को 1 नवंबर को मंजूरी दी गई। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार और राज्यपाल के बीच विवाद नया नहीं है। इसी साल मार्च में विधानसभा सत्र बुलाते समय भी मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था।
पंजाब विवाद पर अब 10 नवंबर को सुनवाई होगी, पर यह इस तरह का इकलौता मामला नहीं है। तेलंगाना और केरल की सरकारें भी राज्यपाल द्वारा विधेयक रोके जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं। शीर्ष अदालत में याचिका के बाद ही तेलंगाना की राज्यपाल तमिलिसाई सौंदरराजन ने लंबित विधेयकों पर कार्रवाई की है। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर आरोप है कि वह आठ विधेयकों को रोके हुए हैं, जिनमें से तीन विधेयक तो दो साल से भी पुराने हैं। तमिलनाडु में भी मुख्यमंत्री एम के स्टालिन व राज्यपाल आर एन रवि के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है।
निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच टकराव कई सवाल खड़े करता है, पर उनका जवाब खोजने के बजाय अमूमन उनसे मुंह चुरा लिया जाता है। पंजाब, केरल, तेलंगाना और तमिलनाडु में टकराव के अलावा भी ज्यादातर राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के रिश्ते अच्छे नहीं हैं, जो लोकतंत्र और संविधानसम्मत शासन के लिए शुभ नहीं है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच कटुता चरम पर दिखी। झारखंड में भी मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच तकरार की खबरें रहती हैं। दरअसल, जिन राज्यों में केंद्र से इतर राजनीतिक दलों की सरकारें हैं, वहीं ऐसी तकरार बहुत कुछ कह भी देती है। केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल आमतौर पर उसके अपने दल के चुनाव-पराजित अथवा बुजुर्ग राजनेता या फिर चहेते पूर्व नौकरशाह आदि होते हैं, इसलिए भी वह दूसरे राजनीतिक दल की राज्य सरकार को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव अचानक बढ़ गया है। हां, उसका स्वरूप अवश्य बदला दिखता है। अब राज्यपाल अपनी सांविधानिक शक्तियों की सुविधाजनक व्याख्या कर निर्वाचित सरकारों के कामकाज में अड़ंगे लगाते हैं, जबकि अतीत में वे सरकारों को बर्खास्त कर (अपने आकाओं की) मनपसंद सरकार बनाने की हद तक जाते रहे हैं। बहुत शुरू में यह कोशिश नजर आई कि राज्यपाल नियुक्त करते समय संबंधित राज्य सरकार को भी विश्वास में ले लिया जाए, पर वैसा अपवाद स्वरूप ही हुआ। राज्यपाल को औजार बनाकर दूसरे दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का खेल आजादी के एक दशक बाद ही शुरू हो गया था। वाकया 1958 का है, जब केरल में शिक्षा में बदलाव संबंधी आंदोलन की आड़ लेकर राज्यपाल ने वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडंबना यह है कि राज्यपाल के जरिये संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर निर्वाचित राज्य सरकार को अस्थिर करने की वह घटना अपवाद के बजाय, परंपरा बन गई। 1967 में राज्यपाल धर्मवीर ने पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी की बहुमत प्राप्त वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर वहां पी सी घोष के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थित सरकार बनवा दी थी। 1977 और 1980 में तो यह जैसे म्यूजिकल चेअर गेम बन गया था। आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हुई, तो कई कांग्रेस शासित राज्य सरकारें बर्खास्त कर राज्यपाल भी हटा दिए गए। 1980 में सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने भी उसी अंदाज में हिसाब चुकता किया।
अभिनेता से राजनेता बने मुख्यमंत्री एन टी रामाराव 1984 में हार्ट सर्जरी के लिए विदेश गए, तो राज्यपाल रामलाल ने एक मंत्री एन भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। एनटीआर की स्वदेश वापसी के बाद जब हैदराबाद से दिल्ली तक बवाल हुआ, तब शंकर दयाल शर्मा को नया राज्यपाल बनाकर भेजा गया, और एनटीआर सरकार भी बहाल हुई। 1998 में लोकसभा चुनाव के बीच ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। अटल बिहारी वाजपेयी अनशन पर बैठ गए, सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा में बहुमत परीक्षण का आदेश दिया, और अंतत: कल्याण सिंह सरकार बहाल हुई।
ऐसे घटनाक्रम की सूची बहुत लंबी बन सकती है, जब राज्यपालों पर केंद्र के एजेंट की तरह काम कर भिन्न राजनीतिक दल की राज्य सरकार को अस्थिर कर गिराने या फिर अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर बर्खास्त करने के आरोप लगे। मुख्यमंत्री राज्य में सत्ता के प्रमुख होते हैं, पर संविधान के संरक्षक की भूमिका में राज्यपाल होते हैं। दोनों को सांविधानिक सीमाओं में रहते हुए परस्पर विश्वास और सद्भाव से राज्य हित में अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना चाहिए। जब इन दो महत्वपूर्ण संस्थाओं में ही अशोभनीय टकराव नजर आए, तो शासन तंत्र और उसकी छवि प्रभावित होती ही है। परिणामस्वरूप सर्वोच्च अदालत सख्त टिप्पणियां करने को बाध्य होती है और जागरूक नागरिकों को समाजवादी नेता मधु लिमये का राज्यपाल पद ही समाप्त कर देने का सुझाव विचारणीय लगने लगता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
