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लक्ष्मण रेखा बनाम गरीबी रेखा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 24 मार्च की देर शाम 21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की, तो लोगों से अपने-अपने घरों के इर्द-गिर्द एक लक्ष्मण रेखा खींचकर खुद को उसके भीतर समेट लेने का अनुरोध भी...

लक्ष्मण रेखा बनाम गरीबी रेखा
मनीषा प्रियम, राजनीतिक विश्लेषकTue, 07 Apr 2020 09:07 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 24 मार्च की देर शाम 21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की, तो लोगों से अपने-अपने घरों के इर्द-गिर्द एक लक्ष्मण रेखा खींचकर खुद को उसके भीतर समेट लेने का अनुरोध भी किया। उनका यह आह्वान तर्कसंगत था और नीतिगत भी। लेकिन अगले दो दिनों में यह साफ दिखा कि लाखों की संख्या में श्रमिक वर्ग बडे़ शहरों से अपने गांव की ओर उमड़ पड़ा। जाहिर है, यह भी एक बड़ी आपदा थी और इससे पार पाने के लिए राज्यों में नीतिगत संवाद या मतभेद होना लाजिमी था। यूरोपीय संघ में भी, जहां ज्यादातर राष्ट्रों ने अपने देश की सीमा को बंद कर दिया, लक्जमबर्ग जैसे छोटे राज्य ने एकल दुर्ग बनने की नीति खारिज कर दी। आज भी यहां बहस गरम है कि यूरोपीय संघ एकजुट होकर इस महामारी का सामना करे या भिन्न राष्ट्रों की अपनी-अपनी नीति हो।
भारत की संघीय प्रणाली में केंद्र की भूमिका नीति-निर्धारक की है और राज्यों की नीति-क्रियान्वयन व स्थानीय आपदा प्रबंधन की। इस मॉडल में विविधता भी है और एकजुटता भी। त्रासदी उभरने के कुछ दिनों के बाद इस लेखिका ने पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के कई जिलों में श्रमिकों, ग्राम-पंचायत पदाधिकारियों, उच्च-स्तरीय अधिकारियों और समाजसेवी वर्गों से बातचीत कर शहरी इंडिया से ग्रामीण भारत के बीच एक संवाद स्थापित करने का प्रयास किया। विश्व बैंक की नामी विशेषज्ञ दीपा नारायण और अन्य सहयोगियों ने ‘वॉयसेज ऑफ द पुअर (वल्र्ड बैंक, 2000)’ नामक रिपोर्ट में लिखा भी है कि गरीबी और उससे होने वाली कठिनाइयों की सबसे अधिक समझदारी गरीबों के पास ही है और उनकी आवाज चिंतन व सोच का एक महत्वपूर्ण जरिया है और नीति-निर्धारण की दिशा भी दिखाता है। 
बहरहाल, बातचीत के दरम्यान गोरखपुर के सहजनवा के निवासी अमर सिंह ने बताया कि वह 22 मार्च को ही एक मोटरसाइकिल के पीछे सवार होकर दिल्ली से 800 किलोमीटर की दूरी तय करने निकल गए थे। उस रात भी उन्होंने देखा था कि हाई-वे पर नोएडा के परी चौक से मथुरा तक अनगिनत आदमी थे। ‘उनकी कोई छोटी-मोटी टुकड़ियां नहीं थीं। लोग बीवी-बच्चे और सामान सहित पैदल चले जा रहे थे।’ उनके मुताबिक, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बस चलाकर ठीक किया। गांव के सेंटर में कई लोगों को केवल बदन में दर्द है, क्योंकि वे कई दिनों तक पैदल चले हैं। यहां लोग इतने भयभीत हैं कि एक मीटर क्या, पांच मीटर की दूरी से एक-दूसरे से बात करते हैं। 
बिहार में उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती कैमूर, सीवान, गोपालगंज, औरंगाबाद, बक्सर, भोजपुर जैसे जिलों में राहत-केंद्र बनाए गए हैं, जहां हर केंद्र में लगभग 3,000 लोग ठहराए गए। उनके भोजन, मेडिकल जांच की व्यवस्था करने के बाद जिलेवार बसें खोली गईं। प्रबंधन के तहत कलेक्टर, बीडीओ और ग्राम प्रधान को भी बाहर से आने वाले श्रमिकों की सूची दी गई। आपदा प्रबंधन के वरिष्ठ पदाधिकारी प्रत्यय अमृत के अनुसार, 3,265 स्कूलों में अभी 30 हजार से अधिक मजदूर रह रहे हैं, जिन्हें चौदह दिनों के गृह क्वारंटीन के तहत रखा गया है। यहां आपदा राहत केंद्र भी बनाए गए हैं, जिनमें 17.5 हजार से ज्यादा शहरी गरीबों (रिक्शाचालक या कूड़ा-कचरा उठाने वाले लोग, जिनके भोजन पर आफत आ गई है) को दोनों वक्त खाना दिया जा रहा है।
गांवों में बात करने पर कुछ विशिष्ट समझदारी उभरकर सामने आती है। मदारपुर पंचायत के राजेश राय के मुताबिक, बाहर से आने वाले लोगों के लिए हाई स्कूल में सेंटर खोला गया है, जहां उनके खाने-पीने का पूरा इंतजाम है। चूंकि अब 14 दिनों का क्वारंटीन पूरा हो गया है, इसलिए जांच करके यहां के लोगों को छोड़ने की व्यवस्था भी हो रही है। मेरे अपने गांव के निकट बराहिपुर में राजकीय उच्च विद्यालय में सात से दस लोग क्वारंटीन में हैं, और सुखद है कि यहां कोरोना का कोई मामला नहीं है। बेगूसराय के गोपालपुर मखला गांव के नौउला पंचायत में भी सेंटर बढ़िया चल रहा है, लेकिन लोगों को इस बीमारी के बारे में और समझाने की जरूरत है। गांव के एक पढ़े-लिखे नौजवान के मुताबिक, गरीब मजदूरों को भविष्य की चिंता सताने लगी है। दिहाड़ी मजदूरों की जातियां भले अनेक हैं (कुशवाहा, कुम्हार, पासवान इत्यादि), मगर उनकी समस्या एक है कि जल्द से जल्द कुछ काम मिल जाना चाहिए। गांव के अन्य लोगों का भी मानना है कि राज्य को संरक्षण का अपना हाथ बरकरार रखना चाहिए। जननायक कर्पूरी ठाकुर के क्षेत्र फुलपरास में भी श्रमिकों की ऐसी आवाज है। यहां के सांगी और बहुअरवा गांव में कुछ लोग इसलिए भी चिंतित हैं कि शादी-ब्याह पर भी लॉकडाउन हो गया है। कई लोगों ने खेतों में खड़ी गेहूं की फसल की भी चर्चा की। कटनी करने की मशीन पंजाब और राजस्थान से आती है। कुछ स्थानीय लोगों के पास यह मशीन है, जो किराये पर इसे देते हैं। रोहतास और भभुआ जिले में 680 से भी ज्यादा परिमशन की चिट्ठियां इस मशीन की सुलभ आवाजाही के लिए जारी की गई हैं, यानी सोशल डिस्टेंसिंग के साथ फसलों की कटाई हो सकेगी।
श्रमिकों ने यह भी बतलाया कि वे तुरंत दिल्ली वापस नहीं लौटना चाहते। न तो इस बीमारी का कहीं इलाज दिख रहा है, और न वे शहर में अपनी दुर्दशा कराना चाहते हैं। पटना हाईकोर्ट के अधिवक्ता रत्नेश का मानना है कि शहर वालों को अब विनम्र निवेदन करके श्रमिक वर्गों को न्योता देना पडे़गा। बिहार में काम की कमी नहीं है और यदि मजदूर छठ तक वापस नहीं जाना चाहते, तो वे निश्चिंत होकर अपने घर पर रह सकते हैं। 
साफ है, अमेरिका या दक्षिण कोरिया जैसे विकसित और अमीर राष्ट्र जिस तरीके से अपने यहां कोरोना से जंग लड़ रहे हैं, हमारी लड़ाई उससे भिन्न होगी। अपने यहां वायरस के संक्रमण से भी लड़ना है और आपदा प्रबंधन भी करना होगा। इसमें व्यापक सामाजिक संरक्षण एक स्थापित तरीका है। राज्य की इकाइयां इसे बखूबी निभा रही हैं, भले ही उनमें आपस में भिन्नताएं हों। यहां केंद्रबिंदु गरीब और उसका कल्याण है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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