फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनतथ्य, तर्क और भावना, तीनों की जीत

तथ्य, तर्क और भावना, तीनों की जीत

लगभग चार सदी पुराने एक विवाद का अंत बुधवार को लोकसभा में उस ऐतिहासिक घोषणा के साथ हो गया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट बनाने की बात कही।...

तथ्य, तर्क और भावना, तीनों की जीत
राकेश सिन्हा, राज्यसभा सांसदFri, 07 Feb 2020 12:00 AM
ऐप पर पढ़ें

लगभग चार सदी पुराने एक विवाद का अंत बुधवार को लोकसभा में उस ऐतिहासिक घोषणा के साथ हो गया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट बनाने की बात कही। इस घोषणा का ऐतिहासिक महत्व तीन कारणों से है- पहला, यह भारत की पंथनिरपेक्षता की उस परंपरा का परिचायक है, जिसमें विवाद विभाजन में नहीं, सामंजस्य में परिणत होता है। यह विवाद बाबर-काल से आधुनिक भारत तक चलता रहा। इसमें सड़कों पर संघर्ष से लेकर न्यायालय तक में निरंतर वाद-प्रतिवाद होता रहा। इसी क्रम में संस्कृति, सभ्यता, पंथनिरपेक्षता के साथ-साथ राष्ट्रवाद विमर्श का हिस्सा बनता रहा। और अंतत: इसका निर्णय देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हुआ। लंबे संघर्ष में कई प्रकार की कटुताओं से भरी इस यात्रा के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रति देश ने परिपक्वता के साथ सहमति जताई।

दूसरा कारण यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित इस ट्रस्ट में राजनीति से जुडे़ लोग नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का यह स्पष्ट मत रहा है कि राम मंदिर का मुद्दा सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और सभ्यताई है। हालांकि प्रकारांतर में इस मुद्दे का राजनीतिकरण जरूर हुआ, जो अस्वाभाविक भी नहीं था। चूंकि विवाद मंदिर-निर्माण से आगे बढ़कर राष्ट्रवाद और पंथनिरपेक्षता की परिभाषा से भी जुड़ गया था, इसीलिए राम जन्मभूमि आंदोलन को छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम सकारात्मक पंथनिरपेक्षता के रूप में भी देखा गया। इस संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जब सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए 1949-50 में पहल हुई थी, तब सोमनाथ ट्रस्ट में भारत सरकार के तीन केंद्रीय मंत्री शामिल थे- एन वी गाडगिल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और सरदार वल्लभभाई पटेल।

स्वयं भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इससे सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। लेकिन राम मंदिर के ट्रस्ट में सिर्फ धार्मिक-आध्यात्मिक और सामाजिक क्षेत्रों से जुडे़ व्यक्तियों को स्थान देकर प्रधानमंत्री मोदी ने उन सभी धारणाओं व आरोपों को गलत साबित कर दिया कि मंदिर आंदोलन के पीछे राजनीतिक महत्वाकांक्षा और एजेंडा रहा है।

तीसरा कारण वैचारिक है। इस संदर्भ में सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार की प्रक्रिया से इसकी तुलना स्वाभाविक है। जब सोमनाथ मंदिर के लिए ट्रस्ट बनाया जा रहा था, तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने केंद्रीय मंत्रियों और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की भागीदारी को इस आधार पर गलत बताया था कि इससे पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत खंडित होंगे। पंडित नेहरू के तर्क का जवाब राजेंद्र प्रसाद ने यह कहकर दिया कि आक्रांताओं के कुकृत्यों को देश के सामाजिक-धार्मिक जीवन से जोड़ना पंथनिरपेक्षता का निषेध होगा। के एम मुंशी ने नेहरू को लिखा था कि लोगों की सामूहिक चेतना इस मंदिर के जीर्णोद्धार के पक्ष में है और इसके पुनर्निर्माण से देश ने अपने उस अस्तित्व को प्राप्त किया है, जिसे मिटाने का प्रयास बर्बर आकांताओं ने धर्म के नाम पर किया था। सोमनाथ मंदिर का निर्माण उसी कलंक को मिटाने जैसा है।

राम जन्मभूमि आंदोलन और सोमनाथ के बीच में इस संदर्भ में बहुत अधिक समानता है। जिस प्रकार महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को नष्ट किया था, उसी प्रकार मीर बाकी ने भगवान राम के जन्मस्थान को नष्ट करके मस्जिद बनाई थी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने वक्तव्य में सदन और लोगों से एकजुटता के साथ मंदिर बनाने की अपील करना दरअसल उसी भाव की अभिव्यक्ति है कि आक्रांताओं को राष्ट्रीय जीवन के साथ जोड़ना और किसी धर्म के प्रतिनिधि के रूप में मानना या मानने की गलती करना न सिर्फ  अपनी विरासत, बल्कि वर्तमान और भविष्य, दोनों को जोखिम में डालना है।

इस ट्रस्ट के निर्माण के साथ वह अध्याय भी समाप्त हुआ, जिसमें तथ्य, तर्क और भावना, तीनों के आधार पर स्वामित्व का दावा किया जाता रहा है। सन 1949 से लगातार इस बात की गुहार मार्क्सवादी इतिहासकारों और बाबरी मस्जिद के समर्थकों द्वारा लगाई जाती रही कि जन्मभूमि आंदोलन एक बहुमतवादी अभिव्यक्ति है, जो अल्पसंख्यक के अधिकारों को कुचलने की कोशिश करती है। समाजशास्त्र और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्सवादी और नेहरूवादी विद्वानों के वर्चस्व के कारण इस तरह के निराधार तर्क को विमर्श का केंद्रबिंदु बना दिया गया था। लेकिन इतिहास कल्पना या वैचारिक महत्वाकांक्षा से निर्मित नहीं होता। तथ्यहीन इतिहास समाज को हमेशा भ्रमित करने का काम करता है।

राम जन्मभूमि विवाद पर दुनिया भर के इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की रुचि रही है। इसीलिए आजादी से पहले और आजादी के बाद मिलाकर चार पुरातत्वविदों ने खुदाई का काम किया। खुदाई से अंतत: जो प्रमाण निकला, उसने यह साबित कर दिया कि यही भगवान राम का जन्मस्थान है। इसीलिए चार सौ साल से भी अधिक पुराने कटुतापूर्ण विवाद पर न्यायालय का निर्णय सहज और सरल तरीके से आ पाया। इसने यह भी साबित किया कि भारत में औपनिवेशिक काल से धर्मनिरपेक्षता की जो परिभाषा गढ़ी गई, उसका एक लक्ष्य भारत की दस हजार साल पुरानी सभ्यता को धर्म की पहचान के आधार पर देखना और उसमें संतुलन बनाए रखने के लिए राजनीतिक श्रम करना रहा, जिसने भारत की विरासत और संस्कृति के प्रति सांप्रदायिक दृष्टिकोण थोपने का काम किया।

राम मंदिर आंदोलन के दौरान वैचारिक विमर्श और संघर्ष ने पंथनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का काम किया है। हालांकि यह काम सोमनाथ मंदिर के दौरान ही हो जाना चाहिए था, लेकिन सोमनाथ और राम मंदिर के संघर्ष और विमर्श में एक बुनियादी अंतर दिखाई देता है। सोमनाथ मंदिर के निर्माण के दौरान विमर्श राजनीति और बौद्धिक जीवन के शीर्ष स्तर के कुलीनों तक सीमित रहा, जबकि राम मंदिर के संघर्ष के दौरान विमर्श कुलीनों के वैचारिक घेरे से बाहर निकलकर सामान्य लोगों तक पहुंचा, इसीलिए इस ऐतिहासिक घटना को भारतीय राष्ट्रीय जीवन में सकारात्मक बना देने का काम लोगों की सामूहिक चेतना व आकांक्षा और उन ऐतिहासिक तथ्यों ने कर दिया, जिसे पश्चिम आरोपित पंथनिरपेक्षता के प्रवक्ताओं ने दबा रखा था। अत: इस ट्रस्ट का निर्माण तुष्टीकरण के युग का अंत और भारतीय परंपरा की नई सकारात्मक विविधतावादी पंथनिरपेक्षता के युग की शुरुआत मानी जाएगी। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें