फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनसरहद का विवाद, राजनीति की सीमा

सरहद का विवाद, राजनीति की सीमा

नेपाली संसद के ऊपरी सदन ‘राष्ट्रीय सभा’ में 59 सीटें हैं। 2 जनवरी, 2020 को यहां पर अभूतपूर्व एकता का परिचय सभासदों ने दिया। इस एकता की वजह कालापानी विवाद है। कालापानी विवाद का केंद्र काली...

सरहद का विवाद, राजनीति की सीमा
पुष्परंजन, संपादक, ईयू-एशिया न्यूजMon, 06 Jan 2020 01:28 AM
ऐप पर पढ़ें

नेपाली संसद के ऊपरी सदन ‘राष्ट्रीय सभा’ में 59 सीटें हैं। 2 जनवरी, 2020 को यहां पर अभूतपूर्व एकता का परिचय सभासदों ने दिया। इस एकता की वजह कालापानी विवाद है। कालापानी विवाद का केंद्र काली नदी है, जिसे महाकाली, काली गंगा या शारदा के नाम से हम सब जानते हैं। 2 नवंबर, 2019 को जारी नक्शे ने नेपाली राजनीति को गरमा रखा है। नेपाल का दावा है कि भारत ने नक्शा प्रकाशित करके उसके हिस्से के लिपुलेख, लिंपियाधुरा को निगल लिया है, जबकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने गुजरे गुरुवार को दोहराया कि नक्शे से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।

नेपाली संसद के ऊपरी सदन यानी राष्ट्रीय सभा की बैठक में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के सचेतक खिमलाल भट्टराई ने प्रस्ताव रखा कि हमें नेपाली भूभाग को अक्षुण्ण रखना है। कालापानी क्षेत्र से भारतीय सैनिकों को हटाने के वास्ते राष्ट्र की आवाज एक हो। भट्टराई के इस प्रस्ताव का अनुमोदन प्रमुख प्रतिपक्षी दल नेपाली कांग्रेस की सचेतक सरिता प्रसाई ने किया। यह कुछ विचित्र सा है कि जो विषय वहां की सवार्ेच्च अदालत में विचाराधीन है, उस पर भी संसद में प्रस्ताव पास किया जा रहा था।

कालापानी पर याचिका वरिष्ठ वकील विश्व प्रकाश भंडारी ने दायर की थी। सोमवार 30 दिसंबर, 2019 को ही सर्वोच्च अदालत के जज हरि प्रसाद फुयाल यह आदेश दे चुके थे कि सरकार 15 दिनों के भीतर कोर्ट को 1816 में हुई सुगौली संधि का मूल नक्शा प्रस्तुत करे, जिसमें कथित रूप से भारत-नेपाल सीमा को रेखांकित किया गया है। मगर उस आदेश की कॉपी बुधवार को तब जारी की गई, जब संसद में प्र्रस्ताव पास हो गया। उसकी वजह यह थी कि संसदीय प्रक्रिया पर कोई सवाल न करे कि सब-ज्यूडिस मामले पर ऊपरी सदन में प्रस्ताव क्यों रखा गया? कालापानी पर एक और पीआईएल वकील कंचन कृष्ण न्योपाने ने दायर कर रखी है। नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने कालापानी से जुड़ी दोनों याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करना तय किया है।

सवाल यह है कि इतने संवेदनशील विषय को नेपाल सुप्रीम कोर्ट की एकल पीठ क्यों देख रही है? यह केस भी ऐसे जज के हवाले है, जो 20 जजों की शृंखला में सबसे जूनियर हैं। दूसरा सबसे दिलचस्प हिस्सा इस जज का अतीत है। नेपाल में चंद लोग जानते होंगे कि सुप्रीम कोर्ट के जज हरि प्रसाद फुयाल कुछ महीने मोरंग जेल में बंदी रह चुके हैं। माओवादियों का समर्थक होने के कारण 22 मई, 2002 को विराटनगर के हिमालीपथ स्थित उनके घर से पुलिस ने उन्हें उठाया था। दो दिनों के बाद उन्हें मोरंग जेल भेज दिया गया, जहां से वह 1 सितंबर, 2002 को रिहा हुए थे।

इस घटना के बाद से फुयाल माओवादी नेतृत्व के ज्यादा करीब आए और यहां तक पहुंचे। 2 अप्रैल, 2019 को नेपाल सुप्रीम कोर्ट में तीन, और हाईकोर्ट में आठ नए जजों के चयन पर देश भर में सवाल उठा कि ये नियुक्तियां परिवारवाद और पैरवी के आधार पर हुई हैं। इनमें सर्वाधिक चर्चित वरिष्ठ वकील (अब जज) हरि प्रसाद फुयाल थे, जिन्हें प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का ‘यस मैन’ माना जाता है। न्यायमूर्ति फुयाल क्या भारत के विरुद्ध फैसला सुनाएंगे? न्यायपालिका के इतिहास में यह देखना दिलचस्प होगा।

कालापानी मुद्दे पर नेपाल को क्या हासिल होता है, उससे बड़ा सवाल यह है कि इसे लीड कौन कर रहा है? केपी शर्मा ओली, जो नेपाली राष्ट्रवाद के स्वघोषित मसीहा हैं, शायद 1996 को भूल गए, जब महाकाली संधि पर सरकार की साइड लेने की वजह से उन्हें ‘देशद्रोही’ बोला गया था। उन्हें ‘देशद्रोही’ कहने में यही माओवादी सबसे आगे थे। उन दिनों ओली पर यह तोहमत लगी थी कि महाकाली संधि को समर्थन देकर उन्होंने कालापानी में भारतीय सुरक्षा बलों की मौजूदगी को वैध करार दिया है। साथ में यह भी कि ओली की पार्टी नेकपा-एमाले ने नेपाल को भारत की कॉलोनी बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। महाकाली संधि पर 29 जनवरी, 1996 को तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी और उनके नेपाली समकक्ष प्रकाश चंद्र लोहानी ने काठमांडू में हस्ताक्षर किए थे। इस संधि पर दो तिहाई बहुमत के बाद ही मुहर लगनी थी। कई महीनों की राजनीतिक उठापटक, साम-दाम के बाद नेपाली कांग्रेस, नेकपा-एमाले और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने 20 सितंबर, 1996 को दो तिहाई बहुमत से संसद में इस संधि को पास कराया था।

उस प्रकरण में नेकपा-एमाले के चेयरमैन रहे मनमोहन अधिकारी तक एक्सपोज हो गए थे, जो महाकाली संधि के प्रबल विरोधी बताए जाते थे। नेकपा-एमाले सेंट्रल कमेटी के जो 17 सदस्य महाकाली संधि पर संसद में वोट देने के पक्ष में थे, उनमें तत्कालीन सांसद केपी शर्मा ओली भी थे। तब ओली अपनी पार्टी में विदेश मामलों के प्रभारी भी थे। आशा है कि नेपाली सुपीम कोर्ट कालापानी पर कोई फैसला देने से पहले महाकाली समझौते के दस्तावेजों को भी देखेगा।

कालापानी पर कल के राष्ट्रद्रोही, आज के राष्ट्रवादी इसलिए हैं, क्योंकि 17 मई, 2018 से दो जिस्म एक जान की तरह नेकपा-एमाले और नेकपा-माओवादियों का विलय हो गया। ओली और प्रचंड ने तभी तय कर लिया था कि नई बनी ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ के माध्यम से पावर शेयर कैसे करना है। कालापानी को लेकर मुख्य प्रतिपक्षी, नेपाली कांग्रेस भी अब राष्ट्रवादी है। संसद से लेकर सोशल मीडिया पर गरजने वाले शेर बहादुर देउबा को काश कोई याद दिलाता कि महाकाली संधि संसद में दो तिहाई बहुमत से पास कराते समय देश के प्रधानमंत्री तो आप ही थे। प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के साथ 12 फरवरी, 1996 को सबसे पहले महाकाली नदी के समन्वित विकास पर हस्ताक्षर उन्होंने ही किए थे।

इस पूरे प्रकरण का दुखद पहलू यह है कि प्रधानमंत्री स्तर के व्यक्ति ने कूटनीतिक मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। प्रधानमंत्री मोदी ने ओली को नववर्ष की बधाई के वास्ते फोन किया, उस दौरान नेपाली पीएम कालापानी विवाद को लेकर शुरू हो गए। इसके चंद दिनों पहले, भारतीय विदेश मंत्रालय ने ‘वाचिक नोट’ के जरिए  नेपाल को अवगत करा दिया था कि कालापानी पर हम विदेश सचिव स्तर की बातचीत जनवरी में करेंगे। हर्षवर्द्धन शृंगला 29 जनवरी को विदेश सचिव का प्रभार लेंगे, संभव है कि फरवरी में कालापानी पर बातचीत हो। मगर इस बीच नेपाली संसद में संकल्प प्रस्ताव और सुप्रीम कोर्ट में केस से क्या माहौल बिगडे़गा नहीं? 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें