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बेलिहाज पड़ोसी का कुबूलनामा

अच्छी बात है कि जो हम अब तक कहते आए हैं, उसे पाकिस्तानी हुकूमत भी मानने लगी है। पिछले साल पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर पाकिस्तान पोषित आतंकियों ने हमला किया था, जिसकी पुष्टि हमारी राष्ट्रीय जांच...

बेलिहाज पड़ोसी का कुबूलनामा
सतीश चंद्रा, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्तFri, 30 Oct 2020 10:51 PM
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अच्छी बात है कि जो हम अब तक कहते आए हैं, उसे पाकिस्तानी हुकूमत भी मानने लगी है। पिछले साल पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर पाकिस्तान पोषित आतंकियों ने हमला किया था, जिसकी पुष्टि हमारी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने भी की है। फिर भी, पाकिस्तान इसे हमेशा से नकारता रहा था। मगर अब उसके एक केंद्रीय मंत्री ने स्वीकार किया है कि यह हमला इमरान खान सरकार की उपलब्धि है। हालांकि, विवाद बढ़ता देख मंत्री फवाद चौधरी ने नेशनल असंबेली (संसद) में दिए अपने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया, पर तीर तो कमान से निकल चुका था।
यह समझना होगा कि पाकिस्तान झूठ की बुनियाद पर टिका एक मुल्क है। 1947-48 का हमला हो या 1965 का, पाकिस्तान हमेशा से दावा करता रहा कि भारत ने जंग की शुरुआत की, लेकिन वहां के एक सेवानिवृत्त एयर मार्शल ने बाद में खुद बयान दिए कि हमला पाकिस्तान की ओर से किया गया। कारगिल की कहानी भी अलग नहीं है। लिहाजा, पाकिस्तान भले लाख सफाई दे कि भारत में वह दहशतगर्दी को शह नहीं देता, लेकिन उसकी नीतियां खुद इसकी चुगली करती हैं।
पाकिस्तान के लिए फवाद चौधरी जैसे बयानात अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। आतंकी फंडिंग को लेकर वह अब भी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की निगरानी में है। फरवरी में आतंकी फंडिंग रोकने की उसकी नीतियों की फिर से समीक्षा की जाएगी। जाहिर है, खंडन के बावजूद यह बयान उसकी मुश्किलें बढ़ा सकता है।
ऐसा नहीं है कि इस कुबूलनामे से वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान बेपरदा हो जाएगा। पूरी दुनिया जानती है कि आतंकवाद उसकी विदेश नीति का हिस्सा है। लेकिन अपने-अपने संकीर्ण हितों के कारण वे पाकिस्तान पर दबाव नहीं बनाना चाहते। जैसे, अमेरिका को उसकी इसलिए जरूरत है, क्योंकि वह मानता है कि अफगानिस्तान से निकलने में पाकिस्तान उसकी मदद कर सकता है। चीन एशिया में भारत के बढ़ते कदम को थामने के लिए पाकिस्तान को शह देता रहता है। आकलन यह भी है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का जखीरा बिना चीन की मदद के संभव नहीं था। अभी ही, तमाम देश फ्रांस की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, लेकिन चीन के उइगर मुसलमानों की बदहाली पर चुप्पी साधे हुए हैं। लिहाजा, फवाद चौधरी का बयान पाकिस्तान के दागदार चेहरे पर एक और धब्बा मात्र होगा। इससे उसकी सेहत पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।
तो फिर हमें क्या करना चाहिए? जरूरी यह है कि पाकिस्तान की जड़ पर वार हो। चूंकि उसकी अंदरूनी हालत काफी खराब है; बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वाह, सिंध जैसे तमाम इलाकों में स्थानीय समुदायों, और खासतौर से पंजाबियों की नाराजगी हुकूमत से है। इसीलिए भारत चाहे, तो इन आंदोलनों को अपना समर्थन दे सकता है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमने कभी बलूचों की वकालत नहीं की, पठानों की मुश्किलों का जिक्र भी नहीं किया, और तो और, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की बदहाली की चर्चा भी नहीं की। भारत की तरफ से संयुक्त राष्ट्र में बतौर स्थाई प्रतिनिधि मेरा यही अनुभव रहा है। हमारी सरकार को अपनी यह नीति अब बदल लेनी चाहिए।
हमें समझना होगा कि पाकिस्तान हमसे कतई दोस्ती नहीं कर सकता। इतिहास भी इसी बात की गवाही देता है। 1960 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल समझौता किया था, जिसके तहत नदी का सिर्फ 20 फीसदी पानी हम अपने पास रखते हैं और शेष पानी पाकिस्तान को उपयोग के लिए दे देते हैं। ऐसा उदारमना समझौता शायद ही कोई देश करता है। मगर बदले में, हमें 1965 की जंग मिली। इसी तरह, 1972 में शिमला समझौता करके हमने पाकिस्तान से जीती तमाम जमीनें वापस कर दीं और 90 हजार के करीब उसके सैनिकों को रिहा किया, लेकिन इसका नतीजा भी सिफर रहा। 1999 की कारगिल जंग भी भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सदा-ए-सरहद लाहौर बस-यात्रा के बाद हुई थी। जाहिर है, हमने बार-बार दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन बार-बार उसे हमारी कमजोरी ही समझा गया है।
एक बात और, हमारे यहां जितनी भी आतंकी घटनाएं हुई हैं, उन्हें मैं दहशतगर्दों के प्रयासों की चरम परिणति मानता हूं। इसके अलावा, न जाने कितनी घटनाओं को हमारे सुरक्षा बलों, खुफिया एजेंसी या पुलिसवालों ने हकीकत बनने ही नहीं दिया। अगर ऐसे हमले साकार हो जाते, तो न जाने जान-माल की कितनी हानि होती। जाहिर है, इन आतंकियों से पार पाने के लिए हमें अपने सुरक्षा बलों पर, पुलिस बलों या अन्य एजेंसियों पर तमाम  तरह के खर्च करने पड़ते हैं। अगर पाकिस्तान हमारा दोस्त होता, तो दहशतगर्दी से बचाव पर होने वाले ये तमाम खर्च हम शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास जैसे कामों पर कर रहे होते, जिसका फायदा भारत व उप-महाद्वीप के साथ-साथ विश्व को भी होता।
अच्छी बात है कि मोदी सरकार ने पाकिस्तान को घेरना शुरू किया है। कुछ क्षेत्रों में सख्त कदम उठाए भी गए हैं। बालाकोट जैसी कार्रवाई की गई है। हमें इन प्रयासों को और गति देनी होगी। फवाद चौधरी जैसे पाकिस्तानी नेताओं का बयान इसमें हमारी मदद कर सकता है। हम ऐसे बयानों के आधार पर वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान को लगातार आईना दिखा सकते हैं। उसे धीरे-धीरे अनुशासन में लाना ही होगा। दुनिया भी आहिस्ता-आहिस्ता इस ओर बढ़ेगी। ऐसी ही रणनीतियों से यह उम्मीद है कि अफगानिस्तान से जब अमेरिका बाहर निकल जाएगा, तो उसका रवैया पाकिस्तान के खिलाफ बिल्कुल उलट होगा।
यहां मुझे 90 की दशक की वह घटना याद आ रही है, जब मैं उच्चायुक्त के तौर पर पाकिस्तान में अपनी सेवा दे रहा था। एक दिन एक दावत में तमाम उच्चायुक्तों व राजदूतों के साथ वहां की संसदीय समिति के अध्यक्ष भी थे। मैंने उन्हें एक गैर-राजनीतिक सवाल पूछा कि आपके मुल्क की अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है, कैसे निपटेंगे? पहले तो वह चौंके, फिर जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं, पश्चिम हमें संभालता रहा है, आगे भी वही हमें उबारेगा’। यानी, जिस मुल्क के सियासतदान बाहरी इमदादों को ही अपनी आमदनी मानते हों, उनकी सोच को भला हम कितना बदल सकेंगे? 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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