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ताकि शिक्षा की सूरत और सीरत बदले

सरकार की किसी भी नीति का मूल मकसद होता है, समस्याओं को पहचानना और उनका बेहतर समाधान। नई शिक्षा नीति इस कसौटी पर कमोबेश खरी उतरती दिख रही है। मौजूदा वक्त में शिक्षा की घटती गुणवत्ता देश की सबसे गंभीर...

ताकि शिक्षा की सूरत और सीरत बदले
अनिल स्वरूप, पूर्व शिक्षा सचिव, भारत सरकारThu, 30 Jul 2020 10:52 PM
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सरकार की किसी भी नीति का मूल मकसद होता है, समस्याओं को पहचानना और उनका बेहतर समाधान। नई शिक्षा नीति इस कसौटी पर कमोबेश खरी उतरती दिख रही है। मौजूदा वक्त में शिक्षा की घटती गुणवत्ता देश की सबसे गंभीर समस्या है। नई शिक्षा नीति इस पर ध्यान दे रही है। कई दूसरी समस्याओं का भी इसमें सैद्धांतिक हल ढूंढ़ा गया है। मगर बड़ा और अहम सवाल यह है कि इसे व्यावहारिकता की जमीन पर उतारना कितना आसान है? इसका जवाब खोजने से पहले हमें शिक्षा क्षेत्र की घटती गुणवत्ता की वजहों पर गौर करना होगा।
हमारा शिक्षा क्षेत्र योग्य शिक्षकों की कमी से लगातार जूझ रहा है। उनको प्रशिक्षण देने वाले बीएड और डीएलएड कॉलेज शिक्षा माफिया के गढ़ बन गए हैं। इनमें से कई कॉलेज तो ऐसे हैं, जो अस्तित्व में ही नहीं हैं, लेकिन डिग्रियां खूब बांटते हैं। यहां से प्रशिक्षण पाने वाले शिक्षक बच्चों को कैसी शिक्षा दे पाएंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है। नई शिक्षा नीति इस परंपरा को तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध दिखती है। अब राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद शिक्षकों के लिए पेशेवर मानक तो तैयार करेगा ही, टीचर्स ट्रेनिंग के लिए एक नया सिलेबस भी बनाएगा, जिसके कारण शिक्षण-कार्य के लिए कम से कम योग्यता चार वर्षीय इंटीग्रेटेड कोर्स हो जाएगी। इस पर फैसला तीन साल पहले ही हो गया था, लेकिन नई नीति के माध्यम से अब इसे अमल में लाने का प्रयास हो रहा है।
शिक्षकों का चयन भी एक बड़ी समस्या है। एक पूर्व मुख्यमंत्री शिक्षक चयन में फर्जीवाडे़ के कारण इन दिनों जेल में भी हैं। नई शिक्षा नीति इसके लिए चयन परीक्षा की वकालत करती है। इसके अलावा, वह यह भी सुनिश्चित करती है कि चयन के बाद शिक्षक पठन-पाठन में लगातार शामिल रहें और अपनी योग्यता को निखारने के लिए प्रशिक्षण-कार्य करते रहें। स्कूली बच्चों को मातृभाषा में पढ़ने की छूट देना भी एक अच्छी सोच है। हालांकि, इसे व्यावहारिक रूप में अमल में लाना मुश्किल होगा, क्योंकि आज स्कूलों को जितने शिक्षकों की दरकार है, उतने की भी नियुक्ति नहीं हो पा रही है। फिर, मातृभाषा में शिक्षा उपलब्ध कराने से ऐसे शिक्षकों की जरूरत बढ़ जाएगी, जो दो भाषाओं में दक्ष हों। जाहिर है, इन सबके लिए योग्य शिक्षकों के अलावा पर्याप्त धनराशि की भी जरूरत होगी, जिसके बारे में नई शिक्षा नीति स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहती।
खराब शैक्षणिक व्यवस्था की दूसरी वजह है, बच्चों के आकलन की गलत प्रक्रिया। मौजूदा मूल्यांकन प्रक्रिया से यह पता नहीं चलता कि बच्चा कितना सीख रहा है? इसके लिए अब एक राष्ट्रीय संस्था बनाई जाएगी, जो समय-समय पर मूल्यांकन करेगी। अब तक यह काम एनसीईआरटी के जिम्मे था, जो अच्छा काम तो कर रही थी, मगर एक विशेषज्ञ संस्था बन जाने से हालात और बेहतर होंगे। इस संस्था को न सिर्फ धरातल की समस्याओं का ज्ञान होगा, बल्कि उनके समाधान का मार्गदर्शन भी वह कर सकेगी।
तीसरा कारण था, नौनिहालों की शिक्षा पर नाममात्र का ध्यान। अभी तक इस बारे में ज्यादा सोचा ही नहीं गया था, जबकि सात-आठ साल का बच्चा दिमागी रूप से संयत हो जाता है। ‘अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन’ यानी बच्चों के शुरुआती दिनों की शिक्षा काफी मायने रखती है। नई शिक्षा नीति बताती है कि इसके लिए शिक्षा विभाग और बच्चों की बेहतरी में जुटी संस्थाएं आपस में मिलकर काम करेंगी। 
चौथी वजह है, उच्च शिक्षा यानी महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए होने वाली रस्साकशी। इसी के कारण 10-12वीं की परीक्षा में परीक्षार्थियों को भाषा के पेपर में भी शत-प्रतशित अंक मिलने लगे हैं। चूंकि नई शिक्षा नीति के तहत दाखिले की परीक्षा आयोजित की जाएगी, इसलिए दसवीं-बारहवीं में परीक्षार्थियों पर बनने वाला अंकों का दबाव खत्म हो जाएगा। यह परीक्षा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होगी, जिससे बच्चे अपनी योग्यता के मुताबिक महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में दाखिला ले सकेंगे।
पांचवां कारण है, छात्र-छात्राओं का ढर्रे पर सोचना। इससे उच्च शिक्षा को लेकर नीरसता का माहौल बनने लगा था। मगर नई शिक्षा नीति पाठ्येत्तर गतिविधियों और वोकेशनल कोर्स पर पर्याप्त ध्यान दे रही है। इससे बच्चों में परंपरा से हटकर काम करने की सोच विकसित होगी, और आने वाले वर्षों में उनमें यह समझ भी विकसित हो सकेगी कि वोकेशनल कोर्स करने से नौकरी मिलने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज्यादा है।
जाहिर है, नई शिक्षा नीति समस्याओं पर तो गौर कर रही है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर उनका आधा-अधूरा समाधान ही पेश कर रही है। इसमें पहली समस्या तो जाहिर तौर पर धनराशि के अभाव की है। पैसों का इंतजाम कैसे होगा, इस पर नई नीति चुप है। इसमें सिर्फ मान लिया गया है कि बजट का इंतजाम हो जाएगा। फिर, अन्य कठिनाइयां भी हैं, जैसे मातृभाषा में पठन-पाठन की मुश्किलें। जरूरी था कि शिक्षा की बेहतरी में निजी क्षेत्र के महत्व को पहचाना जाता। आंकडे़ साफ बताते हैं कि निजी स्कूल में जाने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। माना जाता है कि लगभग 50 प्रतिशत बच्चे अभी ही निजी स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं। बेशक, सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में सुधार जरूरी है, लेकिन निजी स्कूलों के महत्व को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। नई शिक्षा नीति निजी स्कूलों की बात एकाध जगहों पर करती भी है, तो उन पर नियंत्रण की बात करती है, उनको प्रोत्साहित करने की नहीं। अगर सरकार इनमें निवेश को प्रोत्साहित करे या निजी-सार्वजनिक सहयोग के तहत निजी स्कूलों को कुछ राहत दे, तो देश का शैक्षणिक माहौल काफी हद तक सुधर सकता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निजी स्कूलों को मनमानी की छूट दे दी जाए। उन पर निगरानी रखते हुए उनका लाभ उठाने की जरूरत है।
नई शिक्षा नीति से इंस्पेक्टर राज के लौटने का भी एहसास होता है। इसमें उच्च शिक्षा के लिए एक ही नियामक संस्था की वकालत की गई है। तकनीकी रूप से उसे नियामक तो नहीं कहा गया है, लेकिन जिस तरह के दायित्व उसे सौंपे जाने की संभावना है, उससे वह काम नियामक का ही करेगी। इससे भी बचा जाना चाहिए था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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