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चुनावी मौसम में फिर ‘रेवड़ियों’ की बहार

घोषणाएं फिर चर्चा में हैं। गुजरात में सभी प्रमुख राजनीतिक दल- भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र जारी हो चुके हैं। सबसे पहले आप का घोषणापत्र आया, जिसे ‘सात गारंटी’ नाम दिया गया। उसके बाद...

चुनावी मौसम में फिर ‘रेवड़ियों’ की बहार
Amitesh Pandeyविजय विद्रोही, वरिष्ठ पत्रकारTue, 29 Nov 2022 11:35 PM
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घोषणाएं फिर चर्चा में हैं। गुजरात में सभी प्रमुख राजनीतिक दल- भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र जारी हो चुके हैं। सबसे पहले आप का घोषणापत्र आया, जिसे ‘सात गारंटी’ नाम दिया गया। उसके बाद कांग्रेस का घोषणापत्र आया, जिसमें ‘सात वचन’ दिए गए। तब आप ने कहा कि कांग्रेस ने ‘चीटिंग’ कर ली, हमारी गारंटियां चुरा ली हैं। अब भाजपा का घोषणापत्र आया है, जिसे ‘संकल्प पत्र’ नाम दिया गया है। आप और कांग्रेस, दोनों ने अब भाजपा पर ‘चीटिंग’ करने का आरोप लगाया है। कोई बिजली-पानी मुफ्त दे रहा है, कोई दस से बीस लाख नौकरियां देने का वायदा कर रहा है, कोई स्कूटी बांटने का भरोसा दिला रहा है, तो कोई पुरानी पेंशन योजना लागू करने की बात कर रहा है। कुल मिलाकर रेवड़ियां बांटने की होड़ मची है, जिसे हर कोई लोक-कल्याणकारी कार्यक्रम बता रहा है। कुछ कह रहे हैं कि मामला रेवड़ियों से उठकर अब जलेबी-बर्फी पर आ गया है। इसके साथ ही ‘रेवड़ी कल्चर’ पर फिर बहस शुरू हो गई है। 
चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को प्रस्ताव दिया था कि उनको चुनावी वायदों को पूरा करने पर होने वाले खर्च के बारे में भी बताना चाहिए और यह रकम कैसे जुटाई जाएगी, इसका भी घोषणापत्र में जिक्र करना चाहिए। भाजपा और अकाली दल को छोड़कर किसी अन्य दल ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव पर अपनी सहमति नहीं दी। भाजपा ने भी यह कहकर पेच फंसा दिया कि रेवड़ी और कल्याणकारी योजना में फर्क होता है, जिसे आयोग को समझना चाहिए। वैसे गुजरात चुनाव के लिए अपने-अपने घोषणापत्र जारी करने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने वायदों के अर्थशास्त्र को सामने नहीं रखा है। भाजपा चाहती, तो अपने संकल्प पत्र के साथ खर्च और पैसे के स्रोत के बारे में कागज नत्थी कर सकती थी, इससे एक अच्छी पहल होती और दूसरे दलों की घेराबंदी भी करने का मौका उसे मिलता, लेकिन ऐसा हो न सका। 
वैसे रेवड़ियों का मामला सुप्रीम कोर्ट सुन रहा है। उसने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से एक विशेषज्ञों की समिति बनाने को कहा है, जिसमें वित्त आयोग, नीति आयोग, रिजर्व बैंक, विधि आयोग और सियासी दलों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक हो और उनके विचारों-सुझावों को आधार बनाकर आगे कुछ किया जा सके। तीन चीजें साफ हैं, केंद्र और राज्य सरकारें रेवड़ियां बांटने में लगी हैं। दो, मौजूदा कानून वित्त आयोग, नीति आयोग, रिजर्व बैंक आदि को इजाजत नहीं देते कि वे रेवड़ियों पर कोई फैसला ले सकें। 
तीन, केंद्र सरकार भी समझती है कि अगर उसने कुछ थोपने की कोशिश की, तो विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के नेता माहौल बनाना शुरू कर देंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य विशेष की जनता की भलाई नहीं चाहते हैं। आखिर भारतीय रिजर्व बैंक का काम महंगाई को रोकना है, रेवड़ियों पर रोक लगाना नहीं। वित्त आयोग केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आर्थिक संसाधनों के बंटवारे का काम करता है। अगर वह चुनावी रेवड़ियों पर नजर रखने लगेगा, तो इसे संघीय ढांचे पर प्रहार बताया जाएगा। नीति आयोग का काम योजनाएं बनाने का है। उसका भी रेवड़ियों से लेना-देना नहीं है, यानी बड़ा सवाल यही है कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?
सबसे बड़ी रेवड़ी मुफ्त बिजली है। भारत सरकार के अनुसार, 31 मई, 2022 तक राज्य सरकारों पर बिजली कंपनियों का एक लाख करोड़ रुपये बकाया था। इसके अलावा राज्य सरकारों को बिजली वितरण कंपनियों को करीब 63 हजार करोड़ रुपये चुकाने थे। राज्य सरकारों ने तो किसानों और आम जनता को सब्सिडी दे दी, लेकिन इसका 76 हजार करोड़ रुपये बिजली कंपनियों को नहीं चुकाया। कुछ राज्यों के पास तो विकास योजनाओं के लिए ही सीमित पैसा बचा है। कुल आय का अस्सी फीसदी से ज्यादा रकम पेंशन, वेतन-भत्तों और लिए कर्ज पर ब्याज चुकाने में निकल जाती है। इसके बावजूद कुछ जानकारों का कहना है कि चुनावी रेवड़ी नेताओं और मतदाताओं के बीच का मामला है। सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। कुछ सब्सिडी जरूरी होती हैं, कुछ समय विशेष के लिए जरूरी होती हैं, तो कुछ विशुद्ध रिश्वत होती हैं। जन-प्रतिनिधि नीतियां बनाते हैं, उसके हिसाब से जनता के बीच जाते हैं और वायदे करते हैं। अब इन वायदों से अगर आयकर देने वाले वोटर प्रभावित होते हैं, तो वे उस सियासी दल के खिलाफ वोट देकर अपना गुस्सा प्रकट कर सकते हैं। विधायक और सांसद सदनों में इस पर बहस कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के पास बहुत जरूरी काम करने को बचे हैं। निचली अदालतों में तीन साल से चालीस फीसदी मामले और उच्च अदालतों में साठ फीसदी मामले लंबित पड़े हैं। इन मामलों के निपटारे पर सुप्रीम कोर्ट को ध्यान देना चाहिए। ऐसा कुछ जानकारों का मानना है।
हकीकत तो यही है कि राज्यों की माली हालत अच्छी नहीं है। वित्त मंत्रालय के अनुसार, 2019 से 2021 के बीच आंध्र प्रदेश सरकार ने करीब 24 हजार करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश सरकार ने साढ़े 17 हजार करोड़ रुपये, पंजाब सरकार ने 2,900 करोड़ रुपये और मध्य प्रदेश सरकार ने 2,700 करोड़ रुपये का कर्ज लिया। इसके लिए किसी सरकार ने सरकारी भवनों को रेहन पर रखा, तो किसी ने सचिवालय को, तो किसी ने अदालत परिसर को। स्थापित परंपरा के अनुसार, कोई भी राज्य सरकार अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3.5 फीसद ही कर्ज बाजार से ले सकती है। इससे बचने के लिए राज्य सरकारें कर्ज तो लेती हैं, लेकिन बजट में उसे दिखाती नहीं हैं, इसलिए लोगों को राज्य के कर्ज का साफ तौर पर पता नहीं चलता है। इस तरह का कर्ज तेलंगाना सरकार ने 56 हजार करोड़ रुपये का लिया। आंध्र प्रदेश सरकार ने 28 हजार करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 हजार करोड़ रुपये, केरल और कर्नाटक सरकार ने दस-दस हजार करोड़ रुपये का कर्ज ले रखा है। 
जाहिर है, बहुत-सी राज्य सरकारें कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं और दिन-ब-दिन हालात भयावह होते जा रहे हैं। चुनावी रेवड़ी आम लोगों को भी पसंद आती है, लेकिन उन्हें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी नेता या दल अपनी जेब से नहीं, सरकारी खजाने से ही रेवड़ियां बांटेंगे और एक-एक रेवड़ी की कीमत अंतत: आम लोगों को ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चुकानी पड़ेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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