अभिनेता किच्चा सुदीप की एक छोटी-सी वीडियो क्लिप ने इस सप्ताह सोशल मीडिया पर आग लगा दी। इसकी वजह से भाषा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर तीखी बहस शुरू हो गई है। एक तरफ, जहां यह शीतयुद्ध पुराने राग को अलापने जैसा रहा है, तो दूसरी तरफ, यह उन तथ्यों को सामने लाने में भी कामयाब रहा, जिसे आम लोग अमूमन बिसरा चुके हैं। यह पूरा विवाद किच्चा के साथ शुरू हुआ, जिन्होंने शायद दक्षिण भारतीय फिल्मों, विशेषकर केजीएफ-2 की अभूतपूर्व सफलता से उत्साहित होकर यह कह दिया कि ‘हिंदी अब राष्ट्रीय भाषा नहीं रही’। देखा जाए, तो तथ्य भी यही है कि हिंदी कभी राष्ट्रीय भाषा नहीं थी। यह अंग्रेजी की तरह केंद्र सरकार की आधिकारिक भाषा है। मगर किच्चा ने चूंकि कोई लिखित ्क्रिरप्ट नहीं पढ़ी, इसलिए उनके शब्द अपने अर्थ से भटक गए। शायद वह कहना चाहते थे कि हिंदी फिल्म जगत के दिन लद गए हैं और अन्य भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों ने इसके दबदबे को खत्म कर दिया है।
बहरहाल, मुंबई से अभिनेता-निर्माता अजय देवगन ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। उन्होंने ट्वीट किया, ‘हिंदी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा थी, है और हमेशा रहेगी।’ मगर ऐसा कहते हुए वह यह भूल गए कि भारतीय संविधान 22 भाषाओं को मान्यता देता है और हिंदी उन्हीं में से एक है। हालांकि, हिंदी को विशेषाधिकार हासिल है, क्योंकि यह केंद्र और कई राज्य सरकारों के कामकाज की आधिकारिक भाषा है। अन्य भारतीय भाषाएं भी आधिकारिक भाषाएं हैं, लेकिन वे अपने-अपने राज्यों या क्षेत्रों तक सीमित हैं।
अजय देवगन को मातृभाषा, आधिकारिक भाषा और राष्ट्रभाषा के बीच अंतर करना चाहिए। जहां तक मातृभाषा की बात है, तो यह सबकी अलग-अलग होती है। हिंदी पट्टी में ही हिंदी व्यापक रूप से बोली जाती है, लेकिन बृज, अवधी, भोजपुरी जैसी अलग-अलग भाषाएं भी इसी क्षेत्र में हैं। इसके अलावा, भारत में हजारों तरह की बोलियां भी हैं, जिनकी हम यहां चर्चा नहीं कर रहे। रही बात आधिकारिक भाषा की, तो भारत की कोई आधिकारिक भाषा नहीं है, और न यह कोई असामान्य बात है। कई देशों के पास आधिकारिक भाषा नहीं है। अमेरिका भी उन्हीं में एक है।
सोशल मीडिया पर जहां इन दोनों सितारों ने एक-दूसरे के खिलाफ तलवारेें खींच लीं, तो राजनेताओं ने भी इसमें कदमताल मिलाना शुरू कर दिया। उमर अब्दुल्ला ने जहां सभी को कश्मीर की याद दिलाई कि भारत विविधताओं का देश है, तो वहीं कर्नाटक के राजनेता, जिनकी नजर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव पर है, किच्चा के समर्थन में आगे आ गए और उनके बयान की सराहना करने लगे। कुछ समाचार चैनल तो गलत तर्कों के आधार पर हिंदी और अंग्रेजी के बीच तुलना करने लगे। एक एंकर का सुझाव था, ‘चूंकि 44 करोड़ भारतीय हिंदी बोलते हैं और महज 10 करोड़ अंग्रेजी में सहज हैं, तो हिंदी को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बना देना चाहिए?’ वह दरअसल यह भूल रहे थे कि अंग्रेजी को हिंदी की तरह ही संपर्क भाषा माना गया है, क्योंकि सभी भारतीय भाषाएं हिदी की तरह हैसियत की मांग करती रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो सभी भारतीय भाषाएं केंद्र सरकार की कामकाजी भाषा के रूप में अपनी मान्यता की इच्छुक हैं। अब चूंकि अनुवाद कार्य करने वाले आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर के आ जाने से कई भाषाओं में एक साथ संवाद करना संभव हो गया है, इसलिए यदि सरकार अपनी इच्छाशक्ति दिखाती है, तो सभी भाषाओं को समान दर्जा देकर भाषा का विवाद सुलझाया जा सकता है।
यह घटनाक्रम सोशल मीडिया की सीमाओं और उसके काले पक्ष को भी जाहिर करता है। इसके कई उपयोगकर्ता दुष्प्रचार के शिकार हो जाते हैं। सच तो यह है कि भाषा एक भावनात्मक और संवेदनशील मसला है, जिसकी व्याख्या करने का काम सिने कलाकारों को छोड़ देना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि भाषायी और पहचान संबंधी विवाद ही पड़ोसी देश श्रीलंका में गृहयुद्ध के कारण बने थे। बेशक, बाहुबली, पुष्पा, केजीएफ-1, केजीएफ-2 जैसी दक्षिण की फिल्मों में नयापन है, लेकिन हमें इनका आनंद लेना चाहिए, न कि इन फिल्मों की सफलता से हिंदी सीने जगत को चोट पहुंचानी चाहिए। हमारे देश के सिनेमा दर्शक ऐसी बेजा तुलनात्मक बहसों में नहीं उलझना चाहते।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)