मंदी आ ही गई। दुनिया की चौथी और यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी अब मंदी की चपेट में है। आंकड़ों की बाजीगरी के लिहाज से देखें, तो इसे ‘टेक्निकल रिसेशन’ ही कहा जाएगा, क्योंकि जर्मनी की अर्थव्यवस्था लगातार दूसरी तिमाही में सिकुड़ती नजर आई है। हालांकि, दुनिया के कई बड़े अर्थशास्त्री पिछले साल से ही चेतावनी दे रहे हैं कि 2023 के बीच में या अंत तक अनेक देश मंदी की चपेट में आ सकते हैं। फिर भी, जर्मनी की खबर अचानक एक झटके की तरह आई है। झटका इसलिए, क्योंकि उसको उम्मीद थी कि वह मंदी के एकदम नजदीक से निकल जाएगा। वहां आर्थिक आंकड़े जारी करने वाली एजेंसी ‘स्टैटिस्टिक्स ब्यूरो’ का अनुमान था कि जनवरी से मार्च की तिमाही में देश की जीडीपी न बढ़ेगी, न घटेगी। यानी, शून्य प्रतिशत की वृद्धि दर पर यह यूरोपीय देश मंदी को गच्चा देने में कामयाब हो जाएगा, लेकिन अब उसने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके हिसाब से जीडीपी में 0.3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। इससे पहले की तिमाही में भी उसकी जीडीपी, यानी सकल घरेलू उत्पाद में 0.5 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी। नतीजतन, लगातार दूसरी तिमाही की गिरावट के साथ खतरे की घंटी बज गई।
जर्मन सरकार ने पिछले ही महीने दम भरा था कि विकास दर दोगुनी होने वाली है और इस साल जर्मनी की जीडीपी में 0.4 प्रतिशत की वृद्धि होगी। हालांकि, जनवरी में कहा गया था कि यह बढ़ोतरी 0.2 फीसदी होने वाली है। दरअसल, पिछले साल यह आशंका थी कि जर्मनी को सर्दियों में गंभीर ऊर्जा संकट झेलना पड़ सकता है, लेकिन इस संकट के टल जाने से सरकार को विकास दर अनुमान बढ़ाने का हौसला मिल गया। हालांकि, अब यह लगभग साफ है कि सरकार को तरक्की का अनुमान घटाना पड़ेगा। यही नहीं, अब बड़ी चिंता यह है कि अगले तीन महीनों का हाल क्या होगा? अर्थशा्त्रिरयों के हिसाब से अभी ऐसे संकेत दिख रहे हैं कि अप्रैल से जून के बीच भी उसकी अर्थव्यवस्था का हाल नाजुक रहने वाला है। हालांकि, उसके केंद्रीय बैंक बुंडेसबैंक को उम्मीद है कि इस तिमाही में अर्थव्यवस्था में कुछ बढ़त दिखाई देगी। उसके हिसाब से उपभोक्ता खर्च में कमी का हिसाब औद्योगिक गतिविधि में बढ़ोतरी से बराबर हो जाएगा।
यहां याद रखना जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि आधुनिक विश्व में, यानी दुनिया के सबसे अमीर देशों में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे कमजोर रहने वाली है। उसका अनुमान है, जर्मनी की जीडीपी इस साल 0.1 प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है। आईएमएफ ने यह बात उस वक्त कही है, जब उसने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 0.3 प्रतिशत की गिरावट के अनुमान को 0.4 फीसदी की बढ़ोतरी में बदला है।
जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी ही नहीं, सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था मानी जाती है। फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक यह देश मंदी की चपेट में चला गया? और वह भी ऐसे कि सरकार को हवा तक नहीं लगी? हालांकि, यह बात सच है कि कोरोना महामारी के समय से ही जितनी गंभीर मंदी या महामंदी की भविष्यवाणियां होती रही हैं, यह मंदी उनके मुकाबले काफी हल्की है। फिर भी, यह समझना जरूरी है कि आखिर एक समृद्ध और मजबूत देश कैसे मंदी की गिरफ्त में आ गया?
इसकी सबसे बड़ी वजह महंगाई है। महंगाई जिसकी जड़ में यूक्रेन पर रूस का हमला माना जा सकता है, या रूस के खिलाफ अमेरिका और यूरोपीय देशों के गठजोड़ को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, तब तो इरादा यह था कि इससे मॉस्को की आर्थिक कमर टूट जाएगी। मगर अब पता चल रहा है कि इसका उल्टा असर हो रहा है। प्रतिबंध लगने के साथ ही रूस ने यूरोपीय देशों के लिए गैस और कच्चे तेल के दाम बढ़ा दिए थे। वह इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा था। हालांकि, साल भर बाद अब दाम काफी गिर गए हैं, पर सिर्फ तेल और गैस के दाम गिरने से अर्थव्यवस्था में तेजी की उम्मीद कर रहे विशेषज्ञों को भी वैसा ही झटका लग रहा है, जैसा जर्मनी की सरकार को लगा। हो यह रहा है कि ऊर्जा संकट से निकलने के साथ ही खाद्य संकट भी खड़ा हो गया है। जर्मनी में इसका असर दिखने लगा है।
वहां अप्रैल में महंगाई का आंकड़ा 7.2 प्रतिशत था, जो यूरोपीय संघ के औसत आंकड़े से ऊपर था। हालांकि, यह आंकड़ा पूरी कहानी नहीं कहता। वजह यह है कि ऊर्जा, यानी बिजली, गैस और तेल सस्ता होने से महंगाई का आंकड़ा तो गिरा है, लेकिन खाने-पीने की महंगाई आसमान छू रही है। और यह उपभोक्ता को सबसे ज्यादा चुभ रही है।
बुंडेसबैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि खाने-पीने के सामान, फर्नीचर और कपड़ों की खरीदारी में महंगाई का दबाव साफ दिख रहा है। इसके साथ ही उद्योगों को मिलने वाले ऑर्डर कम होने से भी लगता है कि ऊर्जा की महंगाई का औद्योगिक विकास पर बुरा असर पड़ रहा है। मार्च के महीने में जर्मनी में खाद्य उत्पादों की बिक्री फरवरी के मुकाबले 1.1 प्रतिशत कम रही, और एक साल पहले की तुलना में तो यह गिरावट 10.3 फीसदी थी।
बात सिर्फ जर्मनी की नहीं है। अन्य यूरोपीय देशों का भी ऐसा ही हाल है। रूस-यूक्रेन संकट के बाद से फ्रांस में भी औसत उपभोक्ता का खाने-पीने पर खर्च 10 प्रतिशत कम हो चुका है। उधर, ब्रिटेन में सांख्यिकी विभाग के एक सर्वे से पता चला है कि 20 फीसदी सबसे गरीब आबादी में हर पांच में से तीन लोग खाने-पीने में कटौती को मजबूर हैं। यही वजह है कि ब्रिटेन में जहां अप्रैल में महंगाई का आंकड़ा काफी गिरा हुआ दिख रहा है, वहीं खाने-पीने की चीजों के दाम पिछले साल के मुकाबले 19.3 प्रतिशत ऊपर दिखाई पड़ रहे थे। अभी इसमें राहत मिलने के भी कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया में खाद्य सामग्री की कमी इसकी वजह नहीं है, लेकिन पैदावार को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के रास्ते में रुकावटें खड़ी हो गई हैं, जो इस मुश्किल को बढ़ा रही हैं।
यूक्रेन की लड़ाई का यह असर काफी देर से सामने आ रहा है, लेकिन जल्दी चला जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता। खासकर, यूरोप और अमेरिका की सरकारें, जो कोरोना काल में नोट छाप-छापकर और खर्च बढ़ाकर मान रही थीं कि मंदी को टालने में वे कामयाब हो गई हैं, उनके लिए यह बड़ी मुश्किल घड़ी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)