Hindi Newsओपिनियन hindustan opinion column 29 may 2021

आर्थिक गैर-बराबरी भी बीमारी 

पिछले साल मार्च में जब पूर्ण लॉकडाउन लगाकर और आजीविका पर होने वाले इसके नुकसान से आंखें मूंदते हुए मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया था, तब वे गांवों की ओर लौटने को मजबूर हो गए थे। घर वापसी की उनकी...

Manish Mishra यामिनी अय्यर, प्रेसिडेंट, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, Fri, 28 May 2021 05:19 PM
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पिछले साल मार्च में जब पूर्ण लॉकडाउन लगाकर और आजीविका पर होने वाले इसके नुकसान से आंखें मूंदते हुए मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया था, तब वे गांवों की ओर लौटने को मजबूर हो गए थे। घर वापसी की उनकी वह लंबी यात्रा पहली लहर से मिली पीड़ा और कठिनाई का प्रतीक थी। एक साल बाद, आज आम जनमानस पर देश की बदहाल स्वास्थ्य सेवा और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के भी परेशान होने की तस्वीरें हावी हैं। विडंबना यह है कि स्वास्थ्य संकट ने आजीविका के संकट को मानो गायब कर दिया है, जिसका भारत सामना कर रहा है। इससे वे आवाजें भी मंद पड़ गई हैं, जो एक साल पहले अपने अधिकारों के लिए मुखर थीं। यह इस बात का पैमाना है कि राष्ट्र किस आसानी से अपने लोगों को छोड़ देता है। दूसरी लहर में आजीविका के आसन्न संकट को समझने के लिए सरकारें तैयार नहीं हैं और लोगों को दी जा रही राहत अब भी नाकाफी है। नतीजतन, देश का वंचित और गरीब तबका अब अपने मृत परिजन की सम्मानजनक अंतिम विदाई भी नहीं कर पा रहा।
दूसरी लहर ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है, जो कोविड-19 के कारण ढांचागत असमानता के गहराने के संकेत दे रही है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने हाल ही में देश में कामकाजी वर्गों की स्थिति का जायजा लेते हुए ‘द स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ रिपोर्ट जारी की है। इसमें बताया गया है कि 2020 में देश के अधिकांश श्रमिकों की आमदनी में तेज गिरावट दिखी है। गरीब परिवारों की कुल आमदनी में यह गिरावट काफी ज्यादा थी। अंतिम पायदान के 10 फीसदी घरों में 27 फीसदी कम पैसे आए। गरीबों की आमदनी कम होने से उपभोग पर खासा असर पड़ा है। ‘हंगर वाच’ नामक संस्था बताती है कि अक्तूबर, 2020 में उसने जो सर्वे किया था, उसमें भाग लेने वाले हर तीन में से एक ने ‘कभी-कभी’ या ‘अक्सर’ एक समय भूखे रहने बात कही थी, और 71 फीसदी परिवारों ने भोजन में पोषक तत्वों की कटौती की बात मानी थी।
लॉकडाउन के बाद के आर्थिक सुधारों ने अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक गड़बड़ी को बेपरदा कर दिया, जिससे भारत पिछले साल निपटने में विफल रहा था। अर्थशास्त्री प्रांजुल भंडारी के मुताबिक, औपचारिक अर्थव्यवस्था में यह दिखा कि महामारी के दौरान सूचीबद्ध कंपनियां छोटी व असंगठित इकाइयों की कीमत पर फायदे कमा रही हैं, जबकि प्रतिकूल हालात में भी देश के अधिकांश श्रमिकों को रोजगार  छोटी व असंगठित इकाइयां देती हैं। इस बेरोजगारी बढ़ाते आर्थिक सुधार के कारण संगठित क्षेत्र के वेतनभोगी कर्मी असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर हुए। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई के आंकड़ों के आधार पर ‘द स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले साल भारत के संगठित वेतनभोगियों में से लगभग आधे असंगठित क्षेत्र में चले गए। उन्होंने या तो खुद का काम शुरू किया (30 फीसदी), निविदा पर काम करना शुरू किया (10 फीसदी) या फिर वे बिना सामाजिक सुरक्षा वाले रोजगार से जुड़ गए (नौ फीसदी)। दिक्कत यह है कि सरकार ने उन्हें राहत देने के लिए कोई खास जतन नहीं किए। सीमित आर्थिक प्रोत्साहन और आय-समर्थन की कमी ने देशे में असमानता को और गहरा कर दिया। हालांकि, भूख और भुखमरी के खिलाफ सरकार ने कुछ मदद जरूर की।
दूसरी लहर अपने साथ तमाम तरह की चुनौतियां लेकर आई है, जो असमानता को और बढ़ाएगी। इसकी पहली वजह है- चूंकि केंद्र ने कुछ जिम्मेदारियों से अपने हाथ खड़े कर लिए हैं, इसलिए राज्य सरकारें अब अपने तईं योजनाएं बना रही हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि राज्यवार लॉकडाउन की खिचड़ी बन गई, और वंचित तबकों को आर्थिक राहत देने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ राज्य सरकारों पर आ गई। लोगों को राहत पहुंचाने या आर्थिक मदद करने जैसे काम सैद्धांतिक तौर पर राज्य सरकारों के हवाले ही होने चाहिए, क्योंकि उन्हीं पर कई तरह के आर्थिक प्रभाव पड़ने की आशंका होती है। मगर, अब जब राज्यों को टीकाकरण, स्वास्थ्य ढांचा और राहत के लिए आर्थिक बोझ खुद उठाने को कहा जा रहा है, तब गरीबों को पर्याप्त आर्थिक सहायता मिल पाना मुश्किल जान पड़ता है। इसके अभाव में विशेषकर गरीब राज्योें में राहत के उपाय शायद ही परवान चढ़ सकेंगे।
दूसरी वजह, राज्य सरकारें साल 2020 के महत्वपूर्ण सबक सीखने में विफल रहीं। केंद्र द्वारा घोषित एकमात्र राहत उपाय, और जिसे राज्यों की सहयोग से पूरा किया गया, वह था जन-वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से खाद्यान्न बांटना। हालांकि, प्रवासी मजदूरों को इससे दूर रखा गया, जिसके कारण आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को दखल देकर कहना पड़ा कि राज्य सरकारें खाद्यान्न बंटवारे की अपनी योजना का विस्तार कर उसमें प्रवासी मजदूरों को भी शामिल करें। मगर आज भी कागजी कार्रवाई को लेकर नौकरशाही मनोग्रंथी और अस्थाई राशनकार्ड बांटने में हीला-हवाली खाद्यान्न तक आसान पहुंच की राह में बाधा बनी हुई है। आखिरी कारण, पिछले साल के विपरीत, इस वर्ष कोरोना ग्रामीण इलाकों में फैल रहा है। साल 2020 में श्रमिकों ने संकट से बचने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर खासा भरोसा किया था, और अर्थव्यवस्था ग्रामीण मांग पर निर्भर थी। लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं है। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि मई में ग्रामीण भारत में बेरोजगारी बढ़ी है, और मनरेगा के लिए जितनी मांग हो रही है, आपूर्ति उससे बहुत कम है। साफ है, आजीविका का संकट स्पष्ट और विकट है। बहरहाल, खबरें हैं कि केंद्र आर्थिक पैकेज देने के बारे में सोच रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजकोषीय घाटे और खौफ खाए बाजार पर इसके असर को लेकर चिंता है। फिर भी, सरकार जितनी देर से कदम उठाएगी, मांग पैदा होने में उतना ही वक्त लगेगा। लिहाजा, हमें वही रास्ता अपनाना चाहिए, जो जगजाहिर है। राज्य सरकारों की आर्थिक मदद को बढ़ाना, जन-वितरण  प्रणाली का विस्तार करना और मनरेगा को लगातार जारी रखते हुए उसके बजट को बढ़ाना आवश्यक है। सरकार का उदार रुख अभी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। यदि नागरिकों के लिए नहीं, तो कम से कम बाजार के लिए ही वह तत्काल कदम उठाए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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