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समझदारी से ही बचेगा डब्ल्यूएचओ 

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद करने और इस संगठन से बाहर निकलने की धमकी दी। इस खबर को देख-सुनकर मैं करीब 40 साल पहले...

समझदारी से ही बचेगा डब्ल्यूएचओ 
एनएन वोहरा, पूर्व राज्यपाल Thu, 28 May 2020 08:50 PM
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद करने और इस संगठन से बाहर निकलने की धमकी दी। इस खबर को देख-सुनकर मैं करीब 40 साल पहले के दिनों में लौट गया, जब अमेरिका से आए इसी तरह के एक खतरे से मेरा वास्ता पड़ा था। उस वक्त मैं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में अपनी सेवा दे रहा था।
वह 1982 की मई थी, जब मैं विश्व स्वास्थ्य महासभा के सालाना सत्र में अपने देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए जिनेवा गया था। उस समय संगठन के 160 के अधिक सदस्य देश बैठक में भाग ले रहे थे और दो हफ्ते तक स्वास्थ्य व चिकित्सा से जुडे़ कई अहम मुद्दों पर चर्चा करने वाले थे। बैठक के मुख्य एजेंडे को दो समितियों के अधीन कर दिया गया था, जिनके नाम ‘ए’ और ‘बी’ रखे गए थे।
सन 1982 की उस विश्व स्वास्थ्य महासभा में मुझे सर्वसम्मति से ‘बी’ समिति की अध्यक्षता सौंपी गई। जिनेवा में नियुक्त हमारे तत्कालीन राजदूत एपी वेंकटेश्वरन ने इस घटना को भारत की ‘कूटनीतिक जीत’ बताई, खासतौर से इसलिए, क्योंकि इसके लिए अपने पक्ष में जनमत बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई थी। संयुक्त राष्ट्र के किसी भी अन्य संगठन की तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन में भी सदस्य देश स्वास्थ्य संबंधी मसलों पर चर्चा करते हुए ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते, ताकि उन्हें तात्कालिक राजनीतिक विवाद पर अपने विचार रखने का मौका मिल जाए। विश्व स्वास्थ्य महासभा की कार्यवाही शुरू होने से पहले मैंने अपनी समिति को सौंपी गई कार्य-सूची को ध्यान से पढ़ा। न तो मुझे, और न ही मेरे अनुभवी सचिवालय कर्मियों को यह एहसास हुआ कि सूची में ऐसा कोई मसला है, जिससे विवाद होगा और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अस्तित्व पर ही खतरा आ जाएगा। 
वह दरअसल, एक ड्राफ्ट रिजॉल्यूशन यानी मसौदा प्रस्ताव था, जो अफ्रीकी-अरब देशों के एक समूह द्वारा पेश किया गया था। उस प्रस्ताव में इजरायल के कब्जे वाले इलाके में फलस्तीनियों की खराब सेहत पर ध्यान देने की मांग की गई थी। प्रस्ताव पर विवाद होने का मुझे कतई अंदेशा नहीं था, क्योंकि इसी तरह के कई अन्य प्रस्ताव भी थे, जिनमें साइप्रस और लेबनान में शरणार्थियों और यमन के बाढ़-प्रभावित इलाकों में लोगों को स्वास्थ्य-संबंधी मदद करने की मांग की गई थी। 
जब यह एजेंडा सामने रखा गया, विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व महानिदेशक हाफडेन महलर उस समय मंच पर मेरे साथ थे। फलस्तीन के प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख को मैंने इसे पेश करने की अनुमति दी। अन्य बातों के साथ-साथ एजेंडा नोट में इस विषय से जुड़ी एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का संदर्भ दिया गया था, और फलस्तीन मुक्ति संगठन, इजरायल के स्वास्थ्य मंत्रालय और फलस्तीनी शरणार्थियों को राहत देने के लिए बनी एक खास संयुक्त राष्ट्र एजेंसी की रिपोर्टों का जिक्र था। प्रस्ताव में न सिर्फ कब्जे वाले क्षेत्र में विश्व स्वास्थ्य संगठन की निगरानी में स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना की मांग की गई थी, बल्कि इस मामले में संयुक्त राष्ट्र महासभा के पहले के प्रस्ताव का भी संदर्भ दिया गया था। इससे पहले कि मैं इस विषय पर संबोधित करने के लिए अगले प्रतिनिधि को बुलाता, अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख डॉ जॉन ब्रायंट (वह कार्यकारी समिति के सदस्य भी थे) तुरंत अपनी बात रखने की मांग करने लगे, जबकि आमतौर पर प्रस्ताव पेश करने वाले देश के सभी प्रतिनिधियों के संबोधन के बाद ही कोई अन्य सदस्य टिप्पणी करता है। 
ब्रायंट को प्रस्ताव के एक हिस्से पर गंभीर आपत्ति थी। उनका मानना था कि यदि इसे स्वीकार कर लिया जाता है, तो इजरायल की सदस्यता से जुड़े अधिकार प्रभावित होंगे। उन्होंने एलान कर दिया कि इस मामले पर यदि और चर्चा की गई, तो उनका देश इसी समय अपनी आर्थिक सहायता रोक देगा और विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर निकल जाएगा। उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन का आधा बजट अमेरिकी इमदाद पर निर्भर था। जैसे ही ब्रायंट ने अपनी बात पूरी की, इजरायल और कई अन्य देशों के प्रतिनिधि खड़े होकर अमेरिकी रुख का समर्थन करने लगे। जवाब में, फलस्तीन और कई अरब व अफ्रीकी देशों के प्रतिनिधि भी खड़े होकर फलस्तीन के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने लगे। यह एक अप्रत्याशित स्थिति थी।
चूंकि बार-बार अनुरोध के बावजूद शांति नहीं बन पा रही थी, इसलिए मैंने सत्र को थोड़ी देर के लिए रोक दिया। महलर के साथ एक संक्षिप्त चर्चा करने के बाद मैं असेंबली हॉल में गया और अगले डेढ़ घंटे तक उन तमाम प्रतिनिधियों से बात की, जो इस विवाद में शामिल थे। बातचीत में मैंने पाया कि वे सहमति बनाने को तैयार नहीं हैं। मुझे लगा कि यदि स्थिति को यूं ही बेकाबू होने दिया गया, तो मेरी अध्यक्षता में विफलता का दाग लगेगा, साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। मंच पर वापस आकर, मैंने घोषणा की कि मेल-मिलाप का मेरा प्रयास जारी रहेगा और समिति अगली सुबह तय वक्त पर बैठेगी। अगले 12 घंटे तक मैंने दोनों पक्षों के प्रमुखों के साथ गंभीर विचार-विमर्श किया और महासभा में शामिल कई ख्यात स्वास्थ्य मंत्रियों से भी मिला। देर शाम वहां पहुंचे फलस्तीन के सम्मानित नेता यासर अराफात से भी मैंने मुलाकात की।
अरब, अफ्रीकी, इजरायली, अमेरिकी और अन्य तमाम संबंधित प्रतिनिधिमंडलों के साथ कई दौर की बातचीत के बाद मुझे उनके रुख को नरम करने में सफलता मिली। मूल प्रस्ताव को नए सिरेसे तैयार करने पर मैंने उन्हें राजी कर लिया। अगली सुबह जब मैंने बैठक की शुरुआत की, तब तक हॉल में शांति छा चुकी थी। मैंने पिछले दिन के अपने प्रयासों और मूल प्रस्ताव में किए गए बदलाव के बारे में संक्षिप्त में बताया। उसके बाद संशोधित प्रस्ताव पढ़ा और पूछा कि किसी को आपत्ति तो नहीं? कहीं से कोई विरोध नहीं हुआ। लिहाजा, मैंने प्रस्ताव के पारित होने की घोषणा की और अगले एजेंडा पर बात करने के लिए अपना गैवल (बेंच को पीटने वाला हथौड़ा) मारा। हम सभी ने राहत की सांस ली, और इस तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन को बचा लिया गया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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