फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियननेपाल से बाढ़ न लाएं नदियां 

नेपाल से बाढ़ न लाएं नदियां 

मानसून के मौसम में उत्तर बिहार और नेपाल से लगने वाले उत्तर प्रदेश के जिलों में बाढ़ कहर बनकर टूटती है। नेपाल के तराई इलाके भी इन दिनों इसी तरह पानी में डूब जाते हैं। इन इलाकों के लोग हर साल यह त्रासदी...

नेपाल से बाढ़ न लाएं नदियां 
रंजीत रे,नेपाल में रह चुके पूर्व राजदूतFri, 28 Aug 2020 10:18 PM
ऐप पर पढ़ें

मानसून के मौसम में उत्तर बिहार और नेपाल से लगने वाले उत्तर प्रदेश के जिलों में बाढ़ कहर बनकर टूटती है। नेपाल के तराई इलाके भी इन दिनों इसी तरह पानी में डूब जाते हैं। इन इलाकों के लोग हर साल यह त्रासदी भोगते हैं। सीमा पार करने वाली कोसी, गंडक/ नारायणी और करनाली/ घाघरा के साथ-साथ राप्ती और महाकाली/ शारदा जैसी नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में भारी बारिश होने से धारा प्रवाह इतना तेज हो जाता है कि मैदानी इलाकों में ये नदियां सब कुछ बहा ले जाती हैं।
अब तक दोनों देशों ने बाढ़-नियंत्रण के कई उपाय किए, जिनमें अमूमन नदियों को बांधने के प्रयास किए गए हैं। बांध-निर्माण इसी उपाय का हिस्सा है। मगर इन सबकी अपनी मुश्किलें हैं। दरअसल, ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में मिट्टी के कटाव और भूस्खलन के कारण खासतौर से पूर्वी नदियां भारी गाद लिए नीचे उतरती हैं। इस कारण मैदानी इलाकों में उनका तल ऊंचा उठने लगा है। यही कारण है कि कुछ जगहों पर कोसी अब आसपास की सतह से ऊपर बहने लगी है। तटबंध अस्थाई तौर पर राहत देने वाले उपाय हैं। अगर लंबे समय तक नदी के तटों का अतिक्रमण किया जाए, तो नतीजे भयावह हो सकते हैं। 2008 का दुखद अनुभव हम शायद ही भूल सकते हैं, जब कोसी का पूर्वी तटबंध टूट गया था। समस्या इसलिए ज्यादा जटिल हो गई है, क्योंकि पिछले 200 वर्षों में कोसी ने अपना रास्ता काफी बदल लिया है।
बाढ़ के लिए दोनों देश एक-दूसरे को दोषी मानते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री से शिकायत करते हैं कि सीमा-पार करने वाली इन नदियों और उनकी सहायक धाराओं के लिए तटबंध-निर्माण में नेपाल पूरा सहयोग नहीं दे रहा, जबकि कुछ कार्यों में तो केंद्र सरकार ही आर्थिक मदद दे रही है। दूसरी तरफ, नेपाल अपने तराई क्षेत्र में आने वाली बाढ़ के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराता है। उसका आरोप है कि भारत ने जल-निकासी के लिए पर्याप्त व्यवस्था किए बिना सीमावर्ती इलाकों में सड़कें बना दी हैं। बकौल नेपाल, ये सड़कें बांध की तरह काम करती हैं और नेपाल की जमीन और गांवों के डूबने की वजह बनती हैं। हालांकि, भारत-नेपाल की एक साझा तकनीकी टीम इस आरोप से इत्तेफाक नहीं रखती। यह अलग बात है कि नेपाली अधिकारियों ने इस टीम की रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया है।
ऐसे में, इस समस्या को जड़ से मिटाने के लिए दीर्घकालिक स्थाई दृष्टिकोण की जरूरत है। लिहाजा, भारत को मिट्टी के कटाव को रोकने और पुन: वनरोपण परियोजनाओं में नेपाल का सहयोग करना चाहिए। इन परियोजनाओं में चुरे (शिवालिक) पहाड़ियों पर चल रहे राष्ट्रपति चुरे संरक्षण कार्यक्रम को भी शामिल किया जाना चाहिए। इससे भी अहम यह है कि हमें नेपाल की कई जलाशय परियोजनाओं को गति देने की जरूरत है, जिन पर पूर्व में हमने सहमति तो बनाई, लेकिन उनका काम धीमी गति से चलता रहा है। मोदी सरकार का महाकाली/ शारदा नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर जल-विद्युत परियोजना पर खासा जोर है, जो 1990 के दशक के मध्य से लगभग दो दशकों तक ठप पड़ी हुई थी। दुर्भाग्य से, इसमें फिर से पेच फंस गया है, क्योंकि भारत का यह प्रस्ताव नेपाल मानने को तैयार नहीं कि महाकाली के पानी में शारदा बैराज के पानी को भी शामिल कर लिया जाए।
अगर यह मसला राजनीतिक स्तर पर नहीं सुलझ पाता है, तो यह परियोजना फिर से लटक जाएगी और इसकी लागत भी बहुत बढ़ जाएगी। पिछली बार, जब इसका काम रुका था, तब इसकी कुल लागत 12,000 करोड़ से बढ़कर करीब 40,000 करोड़ रुपये हो गई थी, जबकि इसकी कुल क्षमता जल-स्तर, प्रवाह जैसे जल-विज्ञान संबंधी कारणों की वजह से 6,720 मेगावाट से घटकर 5,040 मेगावट रह गई थी।
इसके अलावा, कोसी नदी पर प्रस्तावित उच्च बांध को भी हमें तवज्जो देनी चाहिए। बेशक दशकों पहले कोसी बैराज बनाया गया था, और तटबंधों के कामों में भी तेजी आई है, लेकिन प्रस्तावित उच्च बांध का काम सिरे नहीं चढ़ सका, जबकि 1950 के दशक में ही इसका खाका तैयार हो गया था। इसको गति देने के लिए साल 2004 में संयुक्त परियोजना कार्यालय भी बनाया गया, लेकिन विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने के लिए जरूरी सर्वे संबंधी कामों को वह अब तक पूरा नहीं किया जा सका है। हालांकि, इसकी एक वजह स्थानीय लोगों का विरोध भी है। लिहाजा, उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए, विशेष रूप से उन इलाकों के लोगों की, जो डूब क्षेत्र बन जाएंगे। नेपाल हमें जमीन पर कम समर्थन दे रहा है, क्योंकि जलमग्न इलाके उसी के हैं, जबकि सिंचाई व बाढ़-नियंत्रण के लिहाज से बड़ा फायदा भारत को होगा। नेपाल के हितों को ध्यान में रखते हुए ही सनकोसी संग्रहण-सह-डायवर्जन योजना को इस परियोजना में शामिल किया गया है। जाहिर है, कोसी परियोजना की लागत और लाभ को निष्पक्ष ढंग से साझा करने की दिशा में काम करने की दरकार है।
अब तक भारत द्विपक्षीय नजरिए से ही सोचता रहा है। मगर इसमें बांग्लादेश भी एक पक्ष है, क्योंकि इस परियोजना से गंगा और पद्मा नदी का पानी भी नियंत्रित हो जाएगा। ऐसे में, त्रिपक्षीय सहयोग फायदेमंद साबित होगा, जिससे नेपाल के लिए इस परियोजना पर आगे बढ़ना आसान हो जाएगा। यदि यह परियोजना साकार होती है, तो नेपाल के लिए बड़ा लाभ यह होगा कि गंगा और कोसी के साथ अंतर्देशीय जलमार्ग बनाया जा सकेगा, जिससे कारोबार में उसकी परिवहन लागत कम हो जाएगी। इससे उप-क्षेत्र में आपसी सहयोग की भावना भी मजबूत होगी। हालांकि, अभी नेपाल के साथ हमारे रिश्ते बहुत सुखद नहीं हैं और फिलहाल यह संभावना नहीं है कि बाढ़-नियंत्रण से जुड़ी समस्याओं का आसानी से समाधान हो सकेगा। फिर भी, भारत को राजनीतिक स्तर पर उन तमाम जलाशय परियोजनाओं पर विचार करना चाहिए, जो साझा तौर पर तैयार हो रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें