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जटिल चुनावी समर में बिहार

बिहार का चुनावी समर जारी है। चुनाव का माहौल कोरोना के भय का पग-बंध काटकर शहरों के साथ-साथ गांवों, गलियों, खेतों, खलिहानों में फैलता जा रहा है। रैलियां, सभाएं, बैठकें लगातार जारी हैं। इन सबके साथ...

जटिल चुनावी समर में बिहार
बद्री नारायण निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान Mon, 26 Oct 2020 11:39 PM
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बिहार का चुनावी समर जारी है। चुनाव का माहौल कोरोना के भय का पग-बंध काटकर शहरों के साथ-साथ गांवों, गलियों, खेतों, खलिहानों में फैलता जा रहा है। रैलियां, सभाएं, बैठकें लगातार जारी हैं। इन सबके साथ बिहार चुनाव दिन-ब-दिन जटिल होता जा रहा है। यह जटिलता कई रूपों में दिखाई पड़ रही है। इसी बढ़ती जा रही जटिलता के कारण यह चुनाव कई ‘किंतु-परंतु’ का चुनाव बनता जा रहा है। इसी कारण जहां कुछ राजनीतिक आकलनों में एनडीए को विजयी होते, किंतु नीतीश कुमार को कमजोर होते देखा जा रहा है, वहीं कुछ आकलनों में एनडीए के विजय की भविष्यवाणी तो की जा रही है, किंतु तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महा-गठबंधन को मजबूत होते, तेजस्वी पर लोगों का विश्वास बढ़ते भी देखा जा रहा है। यह चुनाव इसलिए भी जटिल, पर रोचक होता जा रहा है, क्योंकि एक तरफ चिराग पासवान के नेतृत्व में लोक जनशक्ति पार्टी है, जो अब तक राज्य एवं केंद्र में एनडीए का घटक दल रहा है, लेकिन अब वर्तमान मुख्यमंत्री को निशाना बना रहा है। वहीं दूसरी तरफ, वह एनडीए के बड़े घटक दल भाजपा के साथ दिखने की कोशिश करने में भी लगा है। हालांकि भाजपा उससे अपने किसी भी तरह के रिश्ते से इंकार करने में लगी है। बिहार विधानसभा का आगामी चुनाव इस मामले में भी रोचक है कि इसके विमर्श में बड़े दलों एवं महा-गठबंधन का वर्चस्व तो साफ दिख रहा है, पर मुकेश साहनी की पार्टी वीआईपी एवं पुष्पम प्रिया की प्लूरल्स पार्टी जैसे छोटे व नए राजनीतिक दल हैं। ये दल सोशल साइट्स, मीडिया एवं लोगों की बातचीत में बिहार के कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण दिखाई एवं सुनाई पड़ रहे हैं। भोजपुरी गानों के रैप ‘बिहार में काबा’ और ‘बिहार में इबा’ की जबाबी कव्वाली तो चल ही रही है।
बिहार का यह विधानसभा चुनाव बहुरूपों का कोलॉज है। इसमें अंतर्विरोधों की टकराहटों की गूंज भी साफ सुनी जा सकती है। इसमें एक तरफ बाहुबली मैदान में हैं, तो दूसरी तरफ, शरीफ भी, नव रईस भी। खेतिहर मजदूरों एवं दलितों की जनतंात्रिक आवाजें भी इस चुनाव में गूंजने को बेताब हैं।
बिहार में चुनाव को जानने-समझने के दौरान आपको देखने-सुनने को मिल सकता है कि ज्यादातर लोग सरकार से खुश तो नहीं हैं, पर नाराजगी भी इतनी ज्यादा नहीं है कि ‘सत्ता परिवर्तन की लहर आ जाए।’ लेकिन हां, उनके 15 वर्ष के शासन से उपजे कई असंतोष एवं ऊब अंतर्धारा के रूप में भीतर ही भीतर रेंगते कई जगह कई बार आप सुन और महसूस कर सकते हैं।
अगर आप बिहार के ग्रामांचलों में घूमें, तो विपक्ष के महा-गठबंधन की ओर से  मुख्यमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे तेजस्वी यादव के प्रति लोगों में धीरे-धीरे आकर्षण बढ़ता आप देख और सुन सकते हैं, किंतु यह आकर्षण बढ़ते-बढ़ते उस बिन्दु तक पहुंच जाए, जहां से वह सत्ता में परिवर्तन का कारण बन जाए, तो यह होना अभी बाकी है।
यहां प्रतिद्वंद्विता के त्रिकोण में भाजपा की मौजूदगी का मूल कारण लोगों में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बढ़ता प्रभाव है। बिहार की आधी आबादी महिलाओं के बीच पहले नीतीश कुमार बहुत लोकप्रिय थे। अब नरेंद्र मोदी की छवि उनके बीच लोकप्रिय हुई है। बिहार के गरीबों से बात करते हुए केंद्रीय योजनाओं के लाभ के कारण नरेंद्र मोदी के प्रति बढ़ता आकर्षण देखा, सुना और महसूस किया जा सकता है। बिहार में यों तो शहरी क्षेत्र लगभग 11 प्रतिशत है, जहां भाजपा का ज्यादा प्रभाव माना जाता है, किंतु आज बिहार शहरी आकांक्षा वाले राज्य में तब्दील होता जा रहा है। अर्थात पूरे राज्य में सड़कों और फ्लाई ओवर ने गांवों में भी शहरी आकांक्षाओं को बढ़ाया है। ये बढ़ती शहरी आकांक्षाएं बिहार के संदर्भ में अगर देखें, तो भाजपा के पक्ष में जा सकती हैं। 
नीतीश कुमार ने बिजली, सड़क, साइकिल इत्यादि तो दिए, पर जनतंत्र में जनता की लगातार बढ़ती आकांक्षाएं, रोजगार की कमी, शिक्षा व्यवस्था में गिरावट, कोरोना को रोकने के लिए सरकार के प्रभावी पहल की कमी, बाढ़, प्रवासियों के प्रति सरकार के रवैये ने उनके प्रति असंतोष सृजित किया है। विपक्ष बार-बार चुनाव के विमर्श को बेरोजगारी, बेकारी, अविकास पर ले जाना चाह रहा है। वहीं सत्ता पक्ष लालू राज की अंधेरगर्दी की स्मृति को जगाने में लगा है। उनसे यह समझने में कहीं चूक हो रही है कि बिहार के मतदाताओं का बड़ा भाग बीस वर्ष के आस-पास के उन युवाओं का है, जिन्होंने लालू राज देखा ही नहीं है। जिन्होंने लालू राज को देखा एवं भोगा भी है, वे अतीत में जाने की जगह बेहतर वर्तमान बनता देखना चाहते हैं। एक आंकड़े के अनुसार, बिहार में जो लगभग 67 लाख नए मतदाता बने हैं, उनमें लगभग 16 लाख वे प्रवासी हैं, जो सरकार से ज्यादा नाराज नहीं, तो खुश भी नहीं हैं। बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में लगभग 60 सीटों पर जीत-हार का अंतर बहुत थोड़ा था। ऐसा विधानसभाओं में जीत-हार का गणित ये प्रवासी बना-बिगाड़ सकते हैं। 
इसके बावजूद नीतीश कुमार प्रभावी छवि के रूप में विद्यमान हैं। लोगों के तर्क एवं आकांक्षाओं के कई बार उनके विरुद्ध होने के बावजूद उनकी छवि लोगों को वोट देने के लिए आकर्षित करती है। बिहार के जन-मन का यह रोचक अन्तर्विरोध आप बिहार में घूमते हुए सुन एवं देख सकते हैं। ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की धार कुंद होने पर भी नीतीश कुमार बिहार के चुनावी भंवर में मजबूती से खड़े हैं। उधर भाजपा के कील-कांटे मजबूत हैं। सत्ता विरोधी रुझान का घाटा जनता दल यूनाइटेड को ज्यादा, भाजपा को कम होता दिख रहा है। राजद के नेतृत्व में महा-गठबंधन की पूरी संभावना ‘तेजस्वी के नेतृत्व’ के प्रति लोगों के विश्वास पर टिकी है। चुनाव के वक्त करवट लेने वाले वोटों की भी बड़ी भूमिका जीत-हार तय करने में होती है। देखते हैं, ऐसे ‘मनचले वोट’ इस बार किधर करवट लेते हैं। बिहार के एक गांव के एक बुजुर्ग ने बातचीत में मुझसे कहा, ‘यह चुनाव है, इसके बारे में क्या कहा जाए, यह आम के अचार की तरह कई बार बनते-बनते बिगड़ जाता है और कई बार बिगड़ते-बिगड़ते बन जाता है।’ बिहार के इस चुनाव में कई छवियां बन-बिगड़ रही हैं, कई वृतांत गढ़े और मढ़े जा रहे हैं। बिहार के लोगों से इस चुनावी वक्त में संवाद करते हुए एक बात आपको बार-बार महसूस होगी कि जनता इस चुनावी वक्त में अपने को मजबूत महसूस कर रही है। यही शायद हमारे जनतंत्र की खूबी है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 
 

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