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ग्लोबल से लोकल तक वापसी

राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘वोकल फॉर लोकल’ पर खासा जोर दिया था। अब उसका असर दिखने लगा है। खबरों के मुताबिक, कैंटीन...

Rohit अनुज शर्मा, असोसिएट प्रोफेसर, बिमटेक, Tue, 26 May 2020 09:28 PM
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ग्लोबल से लोकल तक वापसी

राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘वोकल फॉर लोकल’ पर खासा जोर दिया था। अब उसका असर दिखने लगा है। खबरों के मुताबिक, कैंटीन स्टोर्स डिपार्टमेंट (सीएमडी) और सेंट्रल पुलिस कैंटीन (सीपीसी) जैसे सरकारी स्टोर्स अपने आपूर्तिकर्ताओं से यह पूछने लगे हैं कि उत्पाद कहां तैयार हुआ और कच्चा माल किन देशों से आया? इससे ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री अपने भाषण से वैश्विक आर्थिक ताकतों की उस जमात में शामिल हो गए हैं, जो वैश्वीकरण की राह छोड़कर संरक्षणवाद की ओर बढ़ने को तैयार है।
19वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों से लेकर अब तक वैश्वीकरण के कई दौर आए हैं। पहले चरण का अंत 1929 में हुआ था, जिसमें यूरोपीय और अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं ने उल्लेखनीय रफ्तार पकड़ी और बाकी दुनिया के साथ उनका मेल-जोल बढ़ा। साल 1929 की महामंदी के बाद दुनिया की कई सरकारों ने संरक्षणवादी नीतियां अपनाईं। वैश्वीकरण-मुक्त यह अर्थव्यवस्था 1970 के दशक तक कायम रही। इसके बाद वैश्वीकरण का दूसरा दौर आया। भारत ने भी आजादी के बाद चार दशकों से अधिक समय तक संरक्षणवादी नीतियां अपनाईं। हालांकि, चीन में बाजार सुधार (1978 के बाद) और 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में रूस की वापसी के साथ ही विश्व की अर्थव्यवस्थाएं फिर से आपस में जुड़ने लगीं।
वैश्वीकरण का जो रूप हम आज देख रहे हैं, उसकी शुरुआत 2008 के आर्थिक संकट के साथ हुई, और बाद में 2018 में शुरू हुई अमेरिका-चीन की कारोबारी जंग से यह खासा प्रभावित हुई। अब कोविड-19 के कारण इस पर नकारात्मक असर पड़ा है। जापान जैसे देशों ने तो चीन में अच्छा कारोबार कर रही अपनी कंपनियों को वापस बुलाने के लिए करीब दो अरब डॉलर के पैकेज का एलान किया है। इकोनॉमिस्ट  के मुताबिक, अमेरिका भी इंटेल और ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (टीएसएमसी) जैसे उद्यमों को वापस आने का न्योता दे रहा है। कई अर्थशास्त्री तो यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि कोविड-काल के बाद वैश्विक आपूर्ति शृंखला काफी कुछ क्षेत्रीय हो जाएगी।
भारतीय प्रधानमंत्री ने भी अपने भाषण में पीपीई किट और एन-95 मास्क का उदाहरण देकर आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जोर दिया, साथ ही आपदा को अवसर में बदलने की बात कही। मगर, आयात के मामले में चीन पर हमारी निर्भरता अभी काफी ज्यादा (लगभग 14 प्रतिशत) है। दवाई उद्योग, मोटर गाड़ी के कल-पुर्जे, बिजली के उपकरण, सौर ऊर्जा उद्योग और खिलौना उद्योग के लिए हमें चीन की अधिक जरूरत पड़ती है। रसायन व उर्वरक मंत्रालय के अनुसार, भारत दवा के लिए जितना कच्चा माल यानी एपीआई दूसरे देशों से मंगवाता है, उसका दो-तिहाई चीन से आता है। इसके अलावा, हम करीब 60 फीसदी चिकित्सा उपकरण चीन से आयात करते हैं। मोबाइल उद्योग में इस्तेमाल होने वाले 88 फीसदी कल-पुर्जे भी चीन जैसे देशों से आते हैं। हालांकि, रत्न और आभूषण, भारी मशीनें, प्लास्टिक, वनस्पति तेल जैसे उत्पादों के लिए हम क्रमश: संयुक्त अरब अमीरात, जापान, दक्षिण कोरिया और मलेशिया पर निर्भर हैं।
जाहिर है, ‘आत्मनिर्भरता’ व ‘वोकल फॉर लोकल’ की राह में कई चुनौतियां हैं। सबसे पहले तो हमें आयातित उत्पादों का देशज विकल्प ढूंढ़ना होगा। यदि आत्मनिर्भरता की ओर हमें बढ़ना है, तो आयातित हर वस्तु का उत्पादन देश को स्वयं करना होगा, फिर चाहे हम उसके कुशल उत्पादन में सक्षम हों या नहीं हों यानी देश उन क्षेत्रों में भी अपने संसाधन खर्च करेगा, जहां उत्पादकता कम हैै। तुलनात्मक लाभ का सिद्धांत कहता है कि यदि अपेक्षाकृत कम लागत में गुणवत्तापूर्ण उत्पादन करने वाले क्षेत्रों को कम संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, तो लाभ की स्थिति खत्म हो सकती है। नेहरू-इंदिरा के दौर में आत्मनिर्भरता पर केंद्रित संरक्षणवाद का हमारा अनुभव सुखद नहीं रहा। उन्हीं नीतियों के कारण विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 1985 तक घटकर 0.45 प्रतिशत रह गई, जो 1950 में 2.2 फीसदी थी। आजादी के बाद के तीन दशकों में जीडीपी विकास दर महज 3.5 प्रतिशत थी। ऐसे में, उन्हीं नीतियों की ओर लौटने से कोरोना-प्रभावित अर्थव्यवस्था और बिगड़ सकती है। इसलिए दवाई, इलेक्ट्रॉनिक या मोटर वाहन से जुड़े जरूरी घटकों का आयात जारी रखना उचित होगा। हमें तब तक वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बने रहना चाहिए, जब तक कि ये हमारी उत्पादकता में इजाफा करते हैं। हां, हमें अलग-अलग देशों से आयात करना चाहिए, ताकि किसी एक देश से मुश्किल होने पर आपूर्ति बाधित न हो।  
दूसरी चुनौती सीमा और गैर-सीमा शुल्क से जुड़ी है। मीडिया में सरकारी अधिकारियों के हवाले से बताया गया है कि आने वाले समय में सरकार निर्यातकों को अधिक लाभ देकर विभिन्न क्षेत्रों में निर्यात को बढ़ावा देगी और गैर-सीमा शुल्क लगाकर आयात को हतोत्साहित करेगी। आयात पर सीमा और गैर-सीमा शुल्क जैसी रुकावटें पैदा करने से हालात बिगड़ सकते हैं, क्योंकि अन्य देश भी हम पर ऐसा प्रतिबंध लगा सकते हैं। अमेरिका-भारत का कारोबारी रिश्ता इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे में, आयातित उत्पादों पर ऐसी कोई बाधा अन्य देशों में भारतीय उत्पादों को नुकसान पहुंचा सकती है। यह कदम चीन के साथ भी हमारी मुश्किलें बढ़ा सकता है।
तीसरी चुनौती ब्रांड के मोर्चे पर है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आज के वैश्विक ब्रांड पहले स्थानीय ब्रांड थे। मगर भारतीय ब्रांड के वैश्विक होने की राह में मुश्किल यह है कि गुणवत्ता के मामले में दुनिया आज भी हमारे उत्पादों पर भरोसा नहीं करती। इनोवेशन यानी नवाचार के मामले में भी हम अच्छी स्थिति में नहीं हैं। यह कमी तभी पूरी हो सकती है, जब हम विश्व अर्थव्यवस्था के साथ कदम बढ़ाएंगे। भारत सरकार चीन से आपूर्ति शृंखलाओं को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है, खासकर अमेरिकी कंपनियों को। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि आर्थिक ताकतें उनकी घर वापसी चाहती हैं। लॉजिस्टिक सेवाओं, ऋण सुविधा और विनियामक माहौल बनाने से जुड़े बुनियादी ढांचे भी हमें बनाने होंगे, तभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उत्पादन के लिए आकर्षित किया जा सकेगा और भारतीय ब्रांडों को वैश्विक मंच मिलेगा। जाहिर है, इसके लिए काफी काम किए जाने की जरूरत है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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