सरकारी योजना में निजी बैंकों की कुछ भागीदारी पहले भी थी, लेकिन कोरोना के समय इसमें व्यवधान आया और अब फिर इसके लिए कवायद शुरू हो गई है। बुनियादी रूप से देखें, तो यह काम सरकार बैंकिंग सेवा की पहुंच बढ़ाने के लिए कर रही है। किसी भी बैंकिंग सेवा संस्थान का यह लक्ष्य होता है कि वह उन लोगों तक अपनी पहुंच बनाए, जो अभी उसकी सेवाओं से वंचित हैं। यह बहुत जरूरी है कि बैंकिंग सेवा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक तार्किक लागत या कीमत के साथ पहुंचे। जब किसी अर्थव्यवस्था में ज्यादा से ज्यादा बैंक मुस्तैदी के साथ सक्रिय होंगे, तभी बैंकिंग सेवाओं का विस्तार होगा। बैंकों को न केवल जरूरतमंद लोगों, बल्कि अर्थव्यवस्था के जरूरतमंद सेक्टर तक भी पहुंचना है। इस संदर्भ में अगर देखें, तो निजी क्षेत्र के बैंकों के सरकारी योजनाओं में सक्रिय होने से बैंकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ेगी और सेवा तंत्र व तौर-तरीकों में भी सुधार होगा।
हालांकि, इस पर कुछ शंकाएं भी हैं। ज्यादातर सार्वजनिक बैंक बिना लाभ के भी काम करते हैं। विशेष रूप से गांवों में उन्हें कम से कम लागत में सेवा देने पर ध्यान देना पड़ता है। इन बैंकों का सामाजिक दायित्व भी होता है और ये बैंक जीरो बायलेंस रखते हुए भी सेवा देते हैं। प्रधानमंत्री जन-धन योजना की वेबसाइट पर जाकर देख लीजिए, आज भी तीन प्रतिशत से भी कम जन-धन खाते निजी बैंकों में खुले हैं। निजी क्षेत्र के बैंकों के काम का एक प्रमुख लक्ष्य लाभ कमाना है। उन्हें ज्यादा से ज्यादा डिपॉजिट या जमा या नकदी की चाहत होती है। दूसरी ओर, ज्यादातर सरकारी योजनाओं में बैंकों के लिए लाभ की गुंजाइश नहीं होती और सरकार उम्मीद करती है कि बैंक ऐसे काम को अपना सामाजिक दायित्व समझकर पूरा करें। सरकार की यह नीति नई नहीं है। अगस्त 2014 में प्रधानमंत्री जन-धन योजना शुरू करने से पहले सरकार ने निजी बैंकों को भागीदार बनाया था। निजी बैंकों के अधिकारियों के साथ प्रधानमंत्री की बैठक विज्ञान भवन में हुई थी। सरकार ने यह सोच-समझकर फैसला लिया था कि जन-धन योजना को निजी और सार्वजनिक, दोनों प्रकार के बैंकों की मदद से साकार किया जाएगा। चूंकि निजी बैंकों की नजर अपने फायदे पर ज्यादा होती है, इसलिए वे तीन प्रतिशत से भी कम जन-धन खाते खोल पाए। निजी बैंकों की पहुंच ज्यादा भले न हो, लेकिन जहां तक लाभ की बात आती है, तो वे आगे रहते ही हैं। वैसे तो हर योजना में एक प्रशासनिक खर्च भी शामिल रहता है, जो दो प्रतिशत के आसपास होता है, उसी की बदौलत निजी बैंकों को सरकारी बैंकों के साथ प्रतिस्पद्र्धा में उतरना होगा। सरकार ने पहले निजी बैंकों के साथ ही पेमेंट बैंकों को भी मंजूरी दी थी, लेकिन अब इन छोटे-छोटे बैंकों को शामिल किया गया है या नहीं, यह देखने वाली होगी। यदि निजी बैंकों के साथ-साथ पेमेंट बैंकों को भी सरकारी योजनाओं में इस्तेमाल किया जाएगा, तो कोई समस्या नहीं है। चूंकि शहरी क्षेत्रों में निजी बैंकों की ज्यादा पहुंच है, तो वह सरकार की शहरी योजनाओं में कारगर हो सकते हैं। ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में सरकारी बैंकों को ही काम संभालना होगा। यह भी बात सोचने की है कि बहुत सारी राशि आने वाले दिनों में जन-धन खाते के जरिए लोगों तक पहुंचेगी, यदि निजी बैंक ज्यादा खाते नहीं खोलेंगे, तो न उनकी भागीदारी बढ़ेगी और न उन्हें फायदा होगा। सरकारी या निजी, जिन बैंकों ने ज्यादा जन-धन खाते खोले हैं, उन्हें ही फायदा होगा। ग्राम सड़क योजना, ग्रामीण आवास योजना, जैसे अनेक बड़े कार्यक्रम हैं, जिनमें पैसा आना और वितरित होना है, उसमें से एक हिस्सा निजी बैंकों के जरिए लोगों तक पहुंच सकता है।
वित्त मंत्री साफ तौर पर यह बताना चाहती हैं कि सरकार निजी और सार्वजनिक बैंकों के बीच प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाना चाहती है। अब दोनों तरह के बैंकों के बीच कैसे मुकाबला होता है, इसका इंतजार रहेगा। इस बीच ज्यादा चिंता इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक को लेकर है। देश के लिए इस बैंक का विकास देखना जरूरी है। इसकी पहुंच शहरी इलाकों के साथ ही ग्रामीण इलाकों में भी बहुत ज्यादा है। इस बैंक को आगे लाने के बारे में भी सरकार को सोचना चाहिए। डाक घर के परंपरागत कार्य घट गए हैं, तो सरकार ने 2018 में इसके तहत इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक बना दिया है। निजी बैंकों को सामाजिक दायित्व में भागीदार बनाना स्वागतयोग्य है, पर कहीं ऐसा न हो कि इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक का नुकसान होने लगे। पोस्ट ऑफिस की पहुंच गांव-गांव तक है, उसे बाकी बैंकों से प्रतिस्पद्र्धा के लिए तैयार करने के बारे में सोचना चाहिए। पोस्टल बैंक को यदि नुकसान हुआ, तो यह सरकार का नुकसान होगा। डाक तंत्र दशकों की मेहनत से तैयार हुआ है, उसका लाभ देश के विकास के लिए ज्यादा लेना चाहिए। यह सही है, आप बैंकों के बीच भेदभाव नहीं कर सकते। सरकारी योजनाओं के लिए सरकार केवल एक-दो बैंकों को भागीदारी नहीं दे सकती। सारे बैंक भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों के तहत आते हैं। यह जरूरी है, हर बैंक देश के विकास में सामाजिक दायित्व निभाए और हर बैंक अपनी-अपनी बेहतर भागीदारी के लिए परस्पर प्रतिस्पद्र्धा करे। जहां तक सरकारी बैंकों का सवाल है, तो बजट 2021-22 में भी यह साफ इशारा कर दिया गया है कि सरकारी बैंकों की संख्या घटेगी। देश में कुछ ही बड़े सरकारी बैंक रह जाएंगे। वैसे बैंकों की संख्या घटानी नहीं चाहिए, उनका ग्रामीण इलाकों में ज्यादा विस्तार करना चाहिए। हमें मजबूत सरकारी बैंकों की जरूरत है। जब विलय होता है, तब कमजोर बैंक को मजबूत बैंक अपने में समाहित कर लेता है, इससे जो बैंक बनता है, वह पहले की तरह मजबूत नहीं रह जाता, ‘सेमी वीक’ बैंक बन जाता है। एक और अहम बात, भारत में बैंकों के लिए ‘ट्रांजेक्शन कॉस्ट’ घटाना जरूरी है, दूसरे देशों की तुलना में यह भारत में अधिक है। यह कॉस्ट घटने से भी बैंकों की भागीदारी बढ़ेगी। बैंकिंग की बात करें, तो ब्रिटेन, हांगकांग, सिंगापुर में बैंकिंग सेवा से हमें सीखना चाहिए। इन देशों में बैंकों की पहुंच हर व्यक्ति तक है और किसी भी जरूरतमंद को कर्ज या वित्तीय सेवाओं के लिए भटकना नहीं पड़ता है। लेकिन इस मुकाम पर पहुंचने के लिए भारत को लंबा सफर तय करना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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निजी बैंकों की बढ़ती जिम्मेदारी
एन आर भानुमूर्ति, कुलपति, भीमराव आंबेडकर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स | Published By: Manish Mishra
- Last updated: Fri, 26 Feb 2021 11:52 PM

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- Web Title:hindustan opinion column 27 february 2021
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