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लॉकडाउन एक उपाय है विकल्प नहीं

पिछले 500 वर्षों में फ्लू की 15 महामारियां फैल चुकी हैं। इनमें से 1890 के बाद फैली महामारियों की ही वैज्ञानिक पड़ताल हुई है। इतना ही नहीं, 1957 की ‘एशियन फ्लू’ और 1968 की ‘हांगकांग...

लॉकडाउन एक उपाय है विकल्प नहीं
संघमित्रा एस आचार्य, प्रोफेसर, जेएनयूThu, 26 Mar 2020 02:36 PM
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पिछले 500 वर्षों में फ्लू की 15 महामारियां फैल चुकी हैं। इनमें से 1890 के बाद फैली महामारियों की ही वैज्ञानिक पड़ताल हुई है। इतना ही नहीं, 1957 की ‘एशियन फ्लू’ और 1968 की ‘हांगकांग फ्लू’ में निगरानी-व्यवस्था आधुनिक वैज्ञानिक उपायों से कहीं बेहतर तरीके से की गई, जबकि 1918 की स्पेनिश फ्लू महामारी इस मामले में पीछे रही। तब विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी कोई संस्था भी नहीं थी और नई बीमारियों के प्रकोप को जांचने के प्रयास शुरुआती दौर में थे। फिलहाल, वुहान से निकला कोविड-19 कोरोना वायरस विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा घोषित एक नई महामारी है, जो कम समय में दुनिया भर में फैल गई है। हालांकि दोनों काल-खंडों में दिलचस्प समानता यह है कि महामारियों की रोकथाम के लिए अलग-थलग रहने, क्वारंटीन करने, मास्क के इस्तेमाल, हाथ धोने की सलाह, सार्वजनिक जगहों और परिवहन में भीड़ न बढ़ाने जैसे सोशल डिस्टेंसिंग के उपाय अपनाने की वकालत ही की गई। लॉकडाउन बतौर राहत कभी अपनाया नहीं गया।

लॉकडाउन दरअसल मिलों और कारखानों से जुड़ा नकारात्मक शब्द रहा है, जिसके परिणामस्वरूप छंटनी होती है और जो भुखमरी और गरीबी का कारण बनता है। जब जेएनयू में छात्र फीस-वृद्धि के खिलाफ मुखर थे, तब यह शब्द भारतीय जनमानस की पहचान में आया। और आज यह सकारात्मक अर्थों में हमारे सामने है, जब एक वैश्विक महामारी के खिलाफ जंग के एक हथियार के रूप में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। बहरहाल, जिस सवाल का जवाब हम में से ज्यादातर लोग जानना चाहते हैं, वह यह है कि क्या इस महामारी को रोकने के लिए लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है? अगर देश के कमजोर स्वास्थ्य ढांचे और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की कमी पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब संभवत: हां है।

फरवरी में ही कोविड-19 के खतरे का मुकाबला करने के लिए अनिवार्य पीपीई और अन्य सामग्रियों की कमी स्पष्ट हो गई थी, फिर भी इनकी खरीद नहीं की गई। और, जहां तक सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की बात है, तो खुद सरकार द्वारा जारी नेशनल हेल्थ प्रोफाइल- 2019 से इसकी खास्ता तस्वीर उजागर हो जाती है, जिसमें बताया गया है कि सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.17 प्रतिशत हिस्सा खर्च कर रही है, जिसे 2.5 फीसदी तक बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। सर्जिकल दस्ताने और मास्क के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की बात तो प्रधानमंत्री ने मंगलवार को अपने संबोधन में बताई।

पिछले शुक्रवार तक स्वास्थ्य अधिकारी यह आश्वस्त करते रहे हैं कि अपने यहां कोविड-19 का सामुदायिक प्रसार नहीं हुआ है। मगर जनता कफ्र्यू रविवार 22 मार्च को लगाया गया। अधिकांश पश्चिमी देशों ने इस कदम को तब तक नहीं उठाया, जब तक कि उनके यहां सामुदायिक प्रसार की पुष्टि नहीं हुई और लॉकडाउन तब उन्होंेने किया, जब संक्रमण पूरी तरह से फैल गया। लिहाजा ऐसा लगता है कि हमने इन कदमों को इसलिए जल्दबाजी में उठाया, ताकि यह दिखा सकें कि हम ‘तैयार’ हैं। यह एक तरह से हमारी स्वीकारोक्ति भी है कि इस महामारी से निपटने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की हालत ‘खराब’ है।

अपने यहां शुरुआती कदमों के रूप में अंतरराष्ट्रीय उड़ान सेवाओं को प्रतिबंधित किया गया और आने वाले यात्रियों की ्क्रिरनिंग की गई। मगर सुविधाओं की कमी और लोगों की मानसिकता के कारण संक्रमित लोगों की संख्या और मौत के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। देश में कोरोना मरीजों की संख्या साढ़े पांच सौ से ज्यादा हो चुकी है, जिनमें से 40 पूरी तरह ठीक हो चुके हैं, जबकि 10 को अपनी जान गंवानी पड़ी है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में संक्रमण कम है। मगर लगता है कि लॉकडाउन की घोषणा इसलिए की गई है, क्योंकि दूसरे देशों का यही सबक है। लेकिन सिर्फ यही एकमात्र कदम इस महामारी से लड़ने में सक्षम नहीं है। यह बात मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से भी जाहिर होता है।

आबादी और उसकी संरचना को देखते हुए भारत कोविड-19 के तीसरे स्टेज में जाने का जोखिम नहीं उठा सकता। खासतौर से यह देखते हुए कि यहां टेस्ट की माकूल व्यवस्था नहीं है। अगर तमाम लोगों की जांच हो, तो संक्रमित मरीजों की वास्तविक संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है। इसके अलावा, एक राष्ट्र के रूप में शायद हम स्वास्थ्य सेवाओं की कमी या लापरवाही पर पश्चिमी देशों की तरह आवाज भी नहीं उठा सकते।

अपने यहां सुधारात्मक उपायों पर फैसले लेने में देरी इस कारण होती रही कि स्थिति नियंत्रण में होने की धारणा हमने पाल रखी थी। इसीलिए लोगों को तैयार होने के लिए ज्यादा समय दिए बिना लॉकडाउन की घोषणा करना तय वक्त पर कदम न उठा पाने की सरकार की नाकामी लग रही है। इसके कारण रेलवे, उसकी सहायक सेवाओं, एयरलाइंस, दुकानदारों, टैक्सी ड्राइवरों आदि को काफी ज्यादा नुकसान होगा। उनके नुकसान की भरपाई आखिर किस तरह से हो सकेगी, इस पर भी अब तक कोई ठोस बात नहीं की गई है। देश की 75 फीसदी से अधिक आबादी असंगठित क्षेत्र से जुड़ी है। ऐसे में, अर्थव्यवस्था संभालने के अलावा सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जनकल्याण की योजनाएं चलती रहें और देश के कामगार वर्गों को, जिनमें से ज्यादातर सामाजिक रूप से पिछड़े भी हैं, तीन तिमाही तक राहत मिले।

दिलचस्प है कि जिस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की वकालत की जा रही है, वह असलियत में भौतिक दूरी है, जिसकी अभी सख्त जरूरत है। वैसे भी, अपने यहां समाज को जो ढांचागत स्तर है, वह यही बताता है कि हम ऐतिहासिक रूप से सामाजिक अलगाव को पसंद करने वाले समाज हैं। मगर यहां उल्लेखनीय यह है कि संक्रमण और मौतों की संख्या बढ़ने के बावजदू अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आवाजाही पर प्रतिबंध को खत्म करने पर विचार कर रहे हैं। 23 मार्च को अपने ट्वीट में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि ‘हम समाधान को समस्या से भी बदतर होने नहीं दे सकते...’। यह स्थिति तब थी, जब लॉकडाउन महज 15 दिनों का था और उससे हुआ नुकसान हमसे कहीं ज्यादा। स्पष्ट है, कोविड-19 से निपटने का सिर्फ एक उपाय लॉकडाउन हो सकता है, सबसे बेहतर विकल्प नहीं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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