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बिजली सब्सिडी पर बेचैन दक्षिण

इस फैसले का इससे बुरा वक्त कोई और नहीं हो सकता था। पिछले हफ्ते केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा कि वे अपने यहां डिजिटल मीटर सुनिश्चित करें, ताकि किसानों को दी जाने वाली बिजली सब्सिडी खत्म करने की...

बिजली सब्सिडी पर बेचैन दक्षिण
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 25 May 2020 08:39 PM
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इस फैसले का इससे बुरा वक्त कोई और नहीं हो सकता था। पिछले हफ्ते केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा कि वे अपने यहां डिजिटल मीटर सुनिश्चित करें, ताकि किसानों को दी जाने वाली बिजली सब्सिडी खत्म करने की दिशा में कदम बढ़ाया जा सके। इस फैसले का चारों दक्षिणी राज्यों में भारी विरोध शुरू हो गया है।
बीते रविवार को तमिलनाडु बिजली विभाग के अधिकारी कडलूर जिले में कुछ खेतों पर गए और वहां डिजिटल मीटर लगाने पर जोर दिया। इसका किसानों ने भारी विरोध किया। यह खबर जैसे ही टीवी पर प्रसारित हुई, मुख्यमंत्री ई के पलानीसामी हरकत में आ गए, और बिजली विभाग के प्रभारी मंत्री ने आनन-फानन में फैसला वापस लेने की घोषणा की। पड़ोसी तेलंगाना में चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली सरकार ने भी एक कैबिनेट प्रस्ताव पास करके बिजली सब्सिडी वापस लेने से इनकार कर दिया है। सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि मुफ्त बिजली चुनावी वायदा है और इसे वापस नहीं लिया जा सकता। इसी तरह, आंध्र प्रदेश ने भी इस फैसले को लागू करने से मना कर दिया है।
केरल में मुख्यमंत्री पी विजयन ने विद्युत संशोधन विधेयक-2020 पर चिंता जताई है और कहा है कि इससे राज्य सरकार उपभोक्ताओं को दी जाने वाली विभिन्न तरह की सब्सिडी जारी नहीं रख पाएगी। मुख्यमंत्री ने केंद्र को याद दिलाया कि बिजली समवर्ती सूची का हिस्सा है और यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि राज्य के अधिकारों का हनन न हो। भाजपा शासित कर्नाटक ने तो अभी तक ऐसा कोई रुख नहीं दिखाया है, लेकिन एक संयुक्त बयान में कई बिजली संघ और किसान नेताओं ने इस कदम का कड़ा विरोध किया है। संघों ने चिंता जताई है कि जब पूरा देश एक खतरनाक महामारी से लड़ रहा है, तब केंद्र ढांचागत सुधार की ओर बढ़ रहा है, जबकि ऐसे सुधारों में गंभीर विचार-विमर्श की दरकार होती है।
केंद्र ने इससे पहले भी दो बार विद्युत अधिनियम में संशोधन के प्रयास किए थे। नए संशोधनों के साथ वह कोशिश कर रहा है कि राज्य भी अपने बिजली कानून बदलने में उसका साथ दें। मगर यह मुद्दा विवादास्पद हो गया है, क्योंकि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन सुधारों को केंद्र की तरफ से राज्यों को कोरोना से लड़ने के लिए दी जाने वाली रियायतों से जोड़ दिया है। वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में राज्य अपने सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का पांच प्रतिशत कर्ज उठा सकेंगे, जो फिलहाल तीन फीसदी है। इससे राज्यों को 4.28 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त धन मिलेगा। लेकिन इसके लिए अन्य तमाम शर्तों में एक बिजली सुधार भी शामिल है।
किसान मीटर लगाए जाने के खिलाफ हैं, क्योंकि उन्हें अभी तक मुफ्त में बिजली मिलती रही है। उन्हें डर है कि मीटर लगाकर सरकार दरअसल, बिजली बिल वसूलना चाहती है। दूसरी तरफ, सरकार का तर्क है कि ऐसा करके वह बिजली चोरी से होने वाली बर्बादी रोकना चाहती है और सिस्टम को सुधारना चाहती है। मीटर लग जाने के बाद बिजली कंपनियां अपने उपभोक्ताओं की पहचान कर सकेंगी और यह सुनिश्चित कर सकेंगी कि वादे के मुताबिक उन्हें बिजली मिलती रहे। केंद्र प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी का विस्तार किसानों तक करना चाहता है। इस योजना के तहत, किसानों से डिजिटल मीटर लगाने और बिजली बिल जमा करने को कहा जा रहा है। उपयुक्त साक्ष्य पेश करते ही बैंक खातों में डीबीटी के जरिए सब्सिडी जमा करने का वायदा है। मगर किसानों की कई आपत्तियां हैं। उनका पहला तर्क तो यही है कि पर्याप्त नकदी न रहने की वजह से वे बिजली बिल नहीं चुका सकते। फिर, वे इस पूरी प्रक्रिया को अव्यावहारिक भी बता रहे हैं, क्योंकि पूर्व में भी खेतों में मीटर लगाने के प्रयास किए गए थे, पर उनका विफल अंत हुआ था। एक तर्क यह भी है कि कृषि क्षेत्र पहले से ही संकट में है और राहत मांग रहा है। ऐसे में, मीटर लगाने का आदेश देकर सरकार उन पर अतिरिक्त बोझ डाल रही है। तमिलनाडु में मुफ्त बिजली का लाभ पाने वाले किसानों की संख्या 21 लाख है, जबकि तेलंगाना में 25 लाख और आंध्र प्रदेश में 23 लाख है।
किसानों और राज्य बिजली विभाग में काम करने वाले लोगों की एक अन्य चिंता भी है। उन्हें लगता है कि यह पिछले दरवाजे से निजीकरण की कोशिश है। उनका मानना है कि केंद्र सरकार निजी क्षेत्र को राज्यों में बिजली वितरण की अनुमति देने की जुगत में है। और, यदि निजी कंपनियों को सब्सिडी या मुफ्त बिजली देने को कहा जाएगा, तो वे कतई रुझान नहीं दिखाएंगी, क्योंकि उनका उद्देश्य मुनाफा कमाना रहता है।
राज्य सरकारों के लिए भी स्थिति सुखद नहीं है। वे किसानों को मुफ्त बिजली दे रही हैं और अन्य तमाम श्रेणियों के उपभोक्ताओं को सब्सिडी बांट रही हैं। इन सबके बाद ही सरकारी बिजली कंपनियों को भुगतान किया जाता है। यह भुगतान भी नियमित या मासिक आधार पर नहीं होता। उन्हें पैसे तभी दिए जाते हैं, जब राज्य सरकार उसे वहन करने में सक्षम होती है। दूसरी ओर, बिजली वितरण करने वाली सरकारी कंपनियां मनमाफिक बिजली नहीं खरीद पातीं, क्योंकि उन्हें बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों का बिल चुकाना होता है। इस तरह, यह पूरा दुश्चक्र ही बिजली क्षेत्र को अस्थिर बना देता है। केंद्र का मानना है कि नए सुधारों से बिजली क्षेत्र अधिक कुशलता से काम कर सकता है।
निजी कंपनियों ने इस कदम का स्वागत किया है, क्योंकि उनको लगता है कि इस क्षेत्र को उनके लिए खोल दिए जाने से अधिक निवेश लाया जा सकता है। वे भुगतान तंत्र को मजबूत बनाए जाने और सरकारी व निजी क्षेत्र की संस्थाओं के बीच अधिकारियों के अधिकारों को स्पष्ट किए जाने की पक्षधर हैं। दिल्ली में बिजली की आपूर्ति निजी हाथों में है। इससे यहां वितरण में सुधार हुआ है, बिजली की चोरी कम हुई है और उपभोक्ताओं की जेब पर भी बोझ नहीं बढ़ा है। बेशक, मौजूदा मुश्किल समय में एक विवादास्पद मसले पर खुले दिमाग से चर्चा मुश्किल है। मगर केंद्र सरकार अभूतपूर्व आर्थिक मंदी का सामना कर रही है, और कोरोना संकट में उसके पास विकल्प बहुत सीमित हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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