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बजट पर उम्मीदों का असीम भार

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के सामने न सिर्फ उनकी जिंदगी, बल्कि इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन चुनौती का मजा भी शायद यही है कि उससे टक्कर ली जाए। उन्होंने एलान कर दिया है कि इस बार वह होगा, जो...

बजट पर उम्मीदों का असीम भार
आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकारSun, 24 Jan 2021 11:19 PM
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के सामने न सिर्फ उनकी जिंदगी, बल्कि इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन चुनौती का मजा भी शायद यही है कि उससे टक्कर ली जाए। उन्होंने एलान कर दिया है कि इस बार वह होगा, जो पिछले सौ साल में नहीं हुआ। ऐसे ही बजट की जरूरत भी है देश को, जो उसके लिए इस बीमारी से आजादी दिलाने के लिए वैक्सीन का इंतजाम भी करे और महामारी के बुरे असर, लॉकडाउन के दर्द और आर्थिक बदहाली से आजादी पाने का उसे हौसला भी दे। इतनी बड़ी महामारी और उससे पैदा हुआ भयावह आर्थिक संकट दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था। भारत की चुनौती भी यही है, अभूतपूर्व महामारी के बाद समाज को बीमारी से बचाना और अर्थव्यवस्था को भी पटरी पर लाने की पुरजोर कोशिश करना। पिछले वर्ष बजट भाषण में वित्त मंत्री ने सरकारी घाटे को कम करके साढ़े तीन फीसदी पर लाने का लक्ष्य रखा था, साथ ही देश की जीडीपी में 10 प्रतिशत बढ़त की उम्मीद जताई थी। लेकिन ये सारी उम्मीदें कोरोना के आने के साथ ही खाक में मिल गईं। जीडीपी बढ़ने के बजाय एक तिमाही में ही करीब 25 फीसदी नीचे चली गई, अब सुधार के बावजूद पूरे साल में इसमें 7.7 प्रतिशत की गिरावट आनी तय है। यह राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय का अनुमान है। आर्थिक सर्वेक्षण में दिखेगा कि आंकड़ा इससे कितना अलग होता है, लेकिन जो भी आंकड़ा वहां होगा, वह भी संशोधित अनुमान ही होगा।
दूसरी तरफ, सरकार को टैक्स और विनिवेश से 26.33 लाख करोड़ रुपये की आमदनी की उम्मीद थी, लेकिन यह 19.33 लाख करोड़ रुपये ही रह जाएगी। यानी, कमाई में सात लाख करोड़ रुपये की कमी। और इसके सामने खर्च का हिसाब तो वही है, जो रखा गया था। 30.42 लाख करोड़ रुपये खर्च का अनुमान था, बजट के एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण में दिख जाएगा कि जहां कमाई में काफी कमी है, वहीं खर्च कम होने के बजाय बढ़ने के ही आसार हैं। वजह भी साफ है, काम-धंधे ठप होने की वजह से सभी मोर्चों पर सरकार की कमाई पर बहुत बुरा असर पड़ा है, लेकिन उसके पास यह रास्ता था ही नहीं कि वह भी अपने खर्च रोक दे। खैर, इस साल तो सरकार सिर्फ कोरोना से जूझने में ही लगी रही। अब भी उसके सामने बहुत बड़ी चुनौती है कोरोना के टीके को देश भर में पहुंचाने और हर जरूरतमंद को लगवाने की। इसमें भी अच्छा-खासा खर्च होना है और यह ऐसा खर्च है, जिसको टाला नहीं जा सकता। मुसीबत को और विकट बना दिया है एक नए सिद्धांत ने, जो बताता है कि कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था जिस अंदाज में सुधर रही है, उसे ‘के शेप रिकवरी’ कहा जा रहा है। ‘के’ यानी अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘के’ की आकृति, जिसमें एक खड़ी लकीर को आप अर्थव्यवस्था में आई तेज गिरावट का प्रतीक मान लें। फिर एक छोटा सा दौर, जिसमें सुधार दिखता है, और फिर दो अलग-अलग लकीरें, एक ऊपर की तरफ जाती हुई और दूसरी नीचे की तरफ। ये उन अलग-अलग कारोबारों, वर्गों या क्षेत्रों को दिखा रही हैं, जिनके कारोबार में सुधार हो रहा है या फिर अब भी गिरावट बनी हुई है। जो सुधर रहे हैं या जहां खुशहाली दिख रही है, वे हैं आईटी, रिटेल और टेक्नोलॉजी या एफएमसीजी जैसे कारोबार। दूसरी तरफ, पर्यटन, यातायात, होटल-रेस्तरां यानी हॉस्पिटैलिटी और मनोरंजन ऐसे कारोबार हैं, जिनमें तेज गिरावट अभी थमी नहीं है। इसका साफ मतलब यह है कि इन सबको सरकार से मदद की जरूरत है।
यूं देखें, तो मदद की जरूरत किसे नहीं है? हाल ही में अमीरों की अमीरी बढ़ने की खबर आई थी। बेहद तेज रफ्तार से। कोरोना काल में भी अगर उनकी संपत्ति बढ़ रही थी, तो मतलब साफ है। ‘के शेप रिकवरी’ में कुछ बडे़ सेठों की लाइन ऊपर की तरफ जा रही है, जबकि छोटे कारोबारी किस हाल में हैं, इसका एक उदाहरण यह है कि बैंकों से खबर आ रही है, पटरी दुकानदारों जैसे छोटे कारोबारियों को जो 10-10 हजार रुपये के कर्ज दिए गए थे, उनके डूबने का खतरा साफ दिख रहा है! दूसरी तरफ, प्रॉविडेंट फंड दफ्तर के ताजा आंकडे़ दिखा रहे हैं कि रोजगार में आ रहे लोगों की गिनती लगातार दूसरे महीने भी गिरती दिखाई पड़ी है। जुलाई से सितंबर तक यह गिनती लगातार बढ़ रही थी। सितंबर में 11.4 लाख नए लोग रोजगार में आए। लेकिन अक्तूबर में इसमें गिरावट आई और नवंबर में तो कुल 6.40 लाख लोग ही जुड़े, जो अक्तूबर से 16.8 प्रतिशत कम थे। यह चिंताजनक बात है, क्योंकि अक्तूबर के बाद से सरकार की वह योजना भी लागू हुई है, जिसमें नए रोजगार के लिए सब्सिडी देने का इंतजाम किया गया है। और पिछले नवंबर से मुकाबला करें, तो हालात और खतरनाक दिखते हैं, क्योंकि तब यह गिरावट 3.47 लाख की हो जाती है। 
वित्त मंत्री के सामने यही चुनौती है कि कैसे इन सबकी मदद भी की जाए, विकास को पटरी पर भी लाया जाए और खजाने पर बोझ बढ़ने से भी बचाया जाए। यहां पूर्व वित्त सचिव, आरबीआई गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके मोंटेक सिंह अहलूवालिया का सुझाव बहुत काम का है। वह कहते हैं, वित्त मंत्री को फिलहाल विकास की चिंता तो करनी नहीं है। इस वित्त वर्ष (2020-21) में 7.7 प्रतिशत की तेज गिरावट के बाद अर्थव्यवस्था अगले साल अगर वापस वहीं पहुंच गई, जहां थी, तब भी यह करीब आठ फीसदी की बढ़त होगी। इसलिए अब वित्त मंत्री को अगर अभूतपूर्व बजट के अपने दावे पर खरा उतरना है, तो उन्हें कुछ ऐसा करना होगा कि इससे आगे के वर्षों में भारत की तरक्की की रफ्तार कम से कम सात फीसदी पर तो पहुंचकर टिकी रहे। ऐसा हुआ, तो फिर वह दावा, एक ऐसा वादा साबित होगा, जो पूरा भी हुआ। परिस्थिति बहुत विकट है, लेकिन शायद यही सबसे बड़ा मौका भी है वित्त मंत्री के पास। सबसे पहले तो वह देश को साफ-साफ बता दें कि खजाने का हाल कितना खराब है। और दूसरा, कमाई बढ़ाने के लिए उन्हीं लोगों पर टैक्स का बोझ न बढ़ाएं, जो इसे चुका रहे हैं, बल्कि उन लोगों से टैक्स लेने का रास्ता निकालें, जो अब भी इससे बचे हुए हैं। कौन क्या मांग रहा है, और किसे क्या देना है, इसका फैसला जितनी समझदारी से होगा, आगे का रास्ता उतना ही आसान होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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