कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता
सोमवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो विद्रोही इलाकों- लुहान्सक और दोनेत्स्क को स्वतंत्र देश की मान्यता दे दी। उन्होंने यह भी एलान किया कि रूस की सेनाएं इन इलाकों में शांति-सैनिक...
सोमवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो विद्रोही इलाकों- लुहान्सक और दोनेत्स्क को स्वतंत्र देश की मान्यता दे दी। उन्होंने यह भी एलान किया कि रूस की सेनाएं इन इलाकों में शांति-सैनिक के रूप में भेजी जाएंगी। इन घोषणाओं के बाद रूस की सेनाओं को यूक्रेन में जाने का एक कारण मिल गया है।
ताजा घटनाक्रम से रूस और नाटो, रूस-यूक्रेन और रूस व यूरोप के संबंधों पर गहरा असर पडे़गा। इन दोनों अलगाववादी बहुल इलाकों में 2015 में हुए मिंस्क समझौते की बहाली को लेकर बगावत तेज रही है। उस समझौते का एक प्रावधान यह था कि यूक्रेन में सांविधानिक सुधार किया जाएगा और लुहान्स्क व दोनेत्स्क को स्वायत्तता देते हुए सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। मगर अब तक ऐसा नहीं हो सका है।
रूस के इस कदम का अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी सहित कई देशों ने विरोध किया है और उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की बात कही है। इससे मॉस्को और कीव में भी तनाव बढ़ गया है, क्योंकि अलगाववादियों पर यूक्रेनी फौज की कार्रवाई के विरोध में रूसी सेना मोर्चा संभाल सकती है। अगर नाटो देशों ने कोई जवाबी सैन्य कार्रवाई की, तो विश्व शांति को इससे व्यापक नुकसान होगा। तब शायद ही कोई देश इस तनाव से बच सकेगा।
तो क्या रूस युद्ध चाहता है? रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इससे इनकार कर रहे हैं। युद्ध रूस के हित में है भी नहीं। भले ही यूक्रेन की सीमा पर उसने अपनी फौज तैनात कर रखी है और परमाणु हथियारों के साथ युद्धाभ्यास किया है। मगर नाटो ने भी यूक्रेन को हथियार मुहैया कराए हैं और अपनी सेनाओं का जमावड़ा सदस्य देशों में धीरे-धीरे बढ़ाया है, जिससे सैन्य तनाव बढ़ा है।
रूस दरअसल, अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है। वह नाटो का पूर्व की तरफ विस्तार अपने हितों के खिलाफ मानता है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से, जब से सोवियत संघ का पतन हुआ है, रूस और पश्चिमी देशों के बीच तनातनी रही है। यूरोप का ‘सिक्योरिटी आर्किटेक्चर’ (सुरक्षा ढांचा) नाटो पर आधारित है, जो एकतरफा रहा है। रूस इसमें बदलाव के लिए कहता रहा है। उसने नाटो से गारंटी मांगी थी कि वह यूक्रेन की तरफ नहीं बढ़ेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता, नाटो का विस्तार होता गया और वह रूस की सीमा की तरफ बढ़ता गया। रूस कतई नहीं चाहता कि यूक्रेन किसी भी तरह से नाटो के पाले में चला जाए। इसीलिए, रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने यह दांव चला है। हालांकि, इसमें खतरा यह है कि जिस तरह से 1914 में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी आर्चड्यूक फर्डिनेंड की हत्या से प्रथम विश्व युद्ध की चिनगारी भड़क उठी थी, ठीक उसी तरह कहीं इस जोर-आजमाइश में हल्की सी भी चूक किसी बड़े मानवीय संकट को न्योता न दे जाए।
जाहिर है, अनिश्चितता काफी ज्यादा है और यहां के हालात दिन-प्रतिदिन बदल रहे हैं। रूस की कूटनीति और सैन्य दबाव की रणनीति कितनी सफल होती है, इसका ठीक-ठीक पता तो आने वाले दिनों में चलेगा, लेकिन दुनिया के तमाम देश यही चाहेंगे कि रूस-यूक्रेन की सीमा पर शांति कायम रहे।
इस संकट का भारत पर भी असर होगा। अब तक के घटनाक्रम में रूस और चीन काफी करीब आ चुके हैं। पुतिन पिछले दिनों शीतकालीन ओलंपिक में भाग लेने चीन भी गए थे, जहां दोनों देशों के शासनाध्यक्षों ने साझा घोषणापत्र जारी किया था। ऐसे में, स्वाभाविक है कि चीन इस समय रूस का साथ देगा। मगर इसके साथ चीन यूक्रेन की संप्रभुता भी चाहता होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि बीजिंग के कीव और अन्य मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ कई तरह के संबंध हैं। अगर रूस की सेना यूक्रेन की सीमा में प्रवेश करती है, तो चीन को खासा आर्थिक व कूटनीतिक नुकसान हो सकता है। हालांकि, वह इस मुद्दे को शांत करने का पक्षधर भी शायद ही है, क्योंकि इस संकट के बने रहने से रूस की निर्भरता उस पर बढ़ी है। इसका इस्तेमाल वह ताइवान या हिंद प्रशांत क्षेत्र पर अमेरिकी दबाव कम करने और अपना प्रभाव बढ़ाने में कर सकता है। चीन के साथ द्विपक्षीय तनाव को देखते हुए रूस और चीन का एक साथ आना भारत के सामरिक हितों का प्रभावित कर सकता है।
अगर रूस की नजदीकी चीन से बढ़ती है, तो वह भारत से दूर भी छिटक सकता है। वैसे भी, क्वाड (ऑस्टे्रलिया, जापान, भारत और अमेरिका का संगठन) के गठन के बाद से रूस का भारत पर अविश्वास बढ़ा है। उसकी नजर में नई दिल्ली अब वाशिंगटन के साथ खड़ी है। लिहाजा, रूस का साथ छूटने से कई मुद्दों पर भारत का वैश्विक रुख कमजोर पड़ सकता है। सैन्य सामग्रियों के लिए भारत की रूस पर काफी हद तक निर्भरता तो जगजाहिर ही है।
एक और चिंता यह है कि भारत के अमेरिका और यूरोप के साथ भी प्रगाढ़ रिश्ते हैं। ऐसे में, हमारी दुविधा यह है कि हम किसी एक का पक्ष खुले रूप में नहीं ले सकते। भारत दोनों पक्षों के जायज हितों की तरफदारी कर रहा है। इसलिए नई दिल्ली ने शांतिपूर्ण बातचीत के जरिये इस मसले को सुलझाने की वकालत की है। इतना ही नहीं, 15 हजार के करीब भारतीय छात्र भी यूक्रेन में फंसे हैं, जिनको सुरक्षित निकाला जाना बहुत जरूरी है।
कुल मिलाकर, हमारे लिए अभी उलझन की स्थिति है। हमें न सिर्फ तटस्थ रहना होगा, बल्कि किसी एक के समर्थन से बचना होगा। भारत ने अब तक यही करने की कोशिश की है। वैसे भी, इस तनाव के दो ही हल हैं- या तो दोनों पक्ष बातचीत से मसले को सुलझाएं या फिर दो-दो हाथ करें। यूरोप के नए ‘सिक्योरिटी आर्किटेक्चर’ में रूस को शामिल करने की मांग जायज है। इस पर विचार होना ही चाहिए। फिलहाल, पश्चिमी देश रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की चेष्टा कर सकते हैं, पर इसका रूस पर कितना असर होगा, यह कहना मुश्किल है। यूरोप अब भी रूस से आने वाली गैस पर बहुत हद तक निर्भर है। प्रतिबंध लगाने से यूरोप में गैस संकट पैदा हो सकता है। लिहाजा, प्रतिबंधों की राजनीति कोई अधिक सफल नहीं होने वाली। अच्छा यही होगा, और जैसा भारत ने भी कहा है, दोनों पक्ष बातचीत के जरिये कोई हल निकालें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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