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बुद्धू-बक्से की बदलती दुनिया में

वह साल 1996 की एक दोपहर थी, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में तय किया गया कि अब से हर साल 21 नवबंर को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। वैसे इस तरह के अंतरराष्ट्रीय दिवसों की उस समय...

बुद्धू-बक्से की बदलती दुनिया में
Pankaj Tomarहरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकारSun, 20 Nov 2022 11:37 PM
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वह साल 1996 की एक दोपहर थी, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में तय किया गया कि अब से हर साल 21 नवबंर को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। वैसे इस तरह के अंतरराष्ट्रीय दिवसों की उस समय भी कोई कमी नहीं थी, लेकिन तब तक टेलीविजन की ताकत जिस तरह से बढ़ चुकी थी, यह दिवस बहुत खास बन गया था। यह वह दौर था, जिसे पश्चिम में टेलीविजन का स्वर्णयुग कहा जाता है।
यही वह वक्त था, जब भारत में भी टेलीविजन की पहंुच का रिकॉर्ड तोड़ विस्तार हो रहा था। प्रसारण के आसमान में निजी क्षेत्र को जो खुली छूट मिली थी, उससे केबल टीवी नेटवर्क पूरे देश में फैल गया था। इसके बाद मनोरंजन और समाचारों की दुनिया ने जो पंख पसारे, उसने टेलीविजन को देश की मुख्यधारा के केंद्र में खड़ा कर दिया। गरीब तबकों के लिए भले ही तब यह एक हसरत ही था, लेकिन निम्न-मध्यवर्ग तक के घरों की यह शोभा बढ़ाने लगा था। जल्द ही इस मध्यवर्ग की सारी दिनचर्या टीवी के आस-पास होने लगी- सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक। टीवी से सिर्फ मनोरंजन ही घरों तक नहीं पहंुचा, उपभोक्तावाद को भी ड्रॉइंग रूम से लेकर रसोई तक पहंुचने का एक जरिया मिल गया।

टेलीविजन की राजनीतिक ताकत को सबसे अच्छी तरह पहचाना तमिलनाडु की नेता जे जयललिता ने। उन्होंने अपनी पार्टी अन्नाद्रमुक के घोषणा-पत्र में यह वादा किया कि अगर पार्टी जीती, तो हर परिवार को एक कलर टीवी मिलेगा। उनका निशाना वे लोग थे, जिनके लिए टीवी अब भी एक हसरत था। मतदान के दिन लगा कि वोटर वोट नहीं दे रहे, मुफ्त टेलीविजन सेट के लिए अर्जी दे रहे हैं। जयललिता रिकॉर्ड मतों से जीतीं और जल्द ही उन्होंने अपना चुनावी वादा पूरा भी किया। भले ही इसके लिए राज्य के खजाने को 4,000 करोड़ रुपये की चपत लगी। आज हम जो मुफ्त लैपटॉप, टैबलेट और स्कूटी वगैरह बांटने की चुनावी घोषणाएं देखते हैं, उसकी शुरुआत टेलीविजन से ही हुई थी।
बेशक, जयललिता ने टीवी को घर-घर या शायद हर घर में पहुंचा दिया। यह भी कहा जाता है कि सूबे में टीवी उनके पास भी पहंुच गया, जो अस्थायी झोपड़ियों और तिरपाल वगैरह में रह रहे थे। लेकिन बाकी राज्य पीछे रह गए हों, ऐसा भी नहीं हुआ। ज्यादातर जगहों पर टीवी कुछ ही समय में तकरीबन हर घर में पहंुच गया। टेलीविजन मनोरंजन की जिस संस्कृति को परोस रहा था, वह अब सबको उपलब्ध थी, सबके लिए थी। तकनीक की एक सिफत यह होती है कि जब वह सबके पास पहंुच जाती है, तो अपनी हैसियत खो बैठती है। व्यापार जगत पर नई तकनीक के लिए दबाव बनने लगते हैं और समाज भी उसके लिए तैयार हो जाता है। यही रेडियो के साथ हुआ, यही टेप रिकॉर्डर के साथ हुआ, यही वीडियो प्लेयर के साथ हुआ और यही बाद में टेलीविजन के साथ होने लगा।

बेशक टेलीविजन खत्म नहीं हुआ, लेकिन जिस अर्थ में इसको हमारे समाज ने परिभाषित किया था, उस अर्थ में यह अपना वजूद काफी तेजी से खो रहा है। टेलीविजन का परंपरागत रूप वह है, जिसमें कुछ चैनल होते हैं, जो लगातार प्रसारण करते हैं। एक निश्चित समय पर उनके कार्यक्रम होते हैं और उन कार्यक्रमों को देखने के लिए आपको उस समय उसके सामने बैठना होता है। तकनीक की भाषा में इसे ‘लिनीयर टीवी’ कहा जाता है। शुरुआत में टेलीविजन के इसी रूप ने उसे एक तरह की सामाजिकता दी थी। हर रोज के प्राइम टाइम, चित्रहार और रविवार की फिल्म के समय पूरा परिवार एक साथ टीवी के सामने बैठ जाता था। कई बार अड़ोस-पड़ोस के लोग भी आ जुटते थे। बाद में रामायण और महाभारत के प्रसारण के समय में तो हालत यह होने लगी थी कि पूरा शहर ही टीवी के सामने जमा होता था और सड़कों पर कर्फ्यू वाले हालात होते थे। यू-ट्यूब, स्ट्रीमिंग और ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद इस रूप में टेलीविजन अब खत्म होने लगा है। 
टीवी पर हम जो देखते थे, वह अब हमें टीवी के बिना भी उपलब्ध है। अब आप उसे अपने मोबाइल फोन पर देख सकते हैं, अपने लैपटॉप, टैबलेट पर देख सकते हैं। हो सकता है कि कुछ दिनों के बाद उसे हाथ की घड़ी और बच्चों के लंच बॉक्स में देखने की सुविधा भी उपलब्ध हो जाए। ड्रॉइंग रूम और बेड रूम की दीवार पर टंगे भारी-भरकम टीवी सेट की जो विशेषता थी, वह अब हमारे दैनिक उपयोग की कई चीजों ने अपना ली है। 

पिछली सदी के अंत में जब टेलीविजन का बुखार अपने चरम पर था, तो अखबार और पत्रिकाएं वगैरह यह कल्पना करते थे कि भविष्य का टेलीविजन कैसा होगा? कुछ लोग कहते थे कि वह कंप्यूटर जैसा होगा, वैसी ही क्षमताओं वाला। वहीं कुछ लोग कहते थे कि भविष्य का कंप्यूटर काफी कुछ टीवी जैसा होगा। वह हर घर में केंद्रीय महत्व की चीज बन जाएगा।
अक्सर जब हम भविष्य की कल्पना करते हैं, तो हमारे आस-पास जो भी कुछ उपलब्ध होता है, उसी के आधार पर आगे की सुध लेते हैं। तब किसने सोचा था कि स्मार्टफोन नाम की एक नई चीज आएगी और सब कुछ बदल जाएगा। आज जो टेलीविजन सेट बाजार में मिलते हैं, वे सब स्मार्टफोन की नकल करते दिखाई देते हैं। उन्हें कहा भी स्मार्ट-टीवी ही जाता है। वे तेजी से स्मार्टफोन के ही व्याकरण और गणित को अपनाते जा रहे हैं। कुछ में तो ऑपरेटिंग सिस्टम भी एंड्रॉयड होता है, जो मूल रूप से स्मार्टफोन के लिए बना था। इन दिनों नेटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो  काफी चर्चा में हैं, लेकिन ये समयबद्ध प्रसारण करने वाले चैनल नहीं हैं। इन तक आप एप के जरिये पहुंचते हैं, जिसकी अवधारणा स्मार्टफोन से ही आई है। 
टेप रिकॉर्डर, वीसीआर, डीवीडी इसलिए विदा हो गए कि उनसे बेहतर तकनीक बाजार में आ गई थी। लेकिन ‘लिनीयर टीवी’ इसलिए नहीं विदा हो सका कि उसके बाजार में किसी नई तकनीक का हमला हो गया। हमारी जरूरतें बदल गई हैं और वह नई जरूरतों में फिट नहीं बैठता। हमारी यात्रा जिस जगह पहंुच चुकी है, वहां किसी भी बुद्धू-बक्से को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक वह स्मार्ट न हो जाए।
तो आज विश्व टेलीविजन दिवस पर आप किस टीवी के सामने बैठना पसंद करेंगे? पुराने बुद्धू-बक्से के सामने या उसके सामने जो स्मार्ट हो चुका है? 
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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