चुनाव एक साथ कराने की चुनौतियां
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए ‘एक देश, एक चुनाव’ को मंजूर कर लिया है। संसद के शीतकालीन सत्र में इस बाबत बिल लाया...
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए ‘एक देश, एक चुनाव’ को मंजूर कर लिया है। संसद के शीतकालीन सत्र में इस बाबत बिल लाया जा सकता है। एक साथ पूरे देश में चुनाव कराने की जरूरत चुनाव आयोग भी काफी पहले से महसूस करता रहा है। उसने 1982 में तत्कालीन सरकार को लिखा भी था कि 1967 के बाद से चुनाव अलग-अलग हो रहे हैं, जिसके कारण निरंतर चुनाव की प्रक्रिया चलती रहती है, इसलिए जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम और संविधान में उचित संशोधन कर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए। हालांकि, तब इस सुझाव पर राजनीतिक सहमति नहीं बन सकी और मामला जस का तस बना रहा।
एक देश, एक चुनाव की उम्मीद साल 2015 में फिर से जगी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में आगे बढ़ने का भरोसा दिया। आज यदि मंत्रिमंडल ने इस पर सहमति जताई है, तो इसे सरकार की स्च्छिछा कहेंगे। मगर इस दिशा में मजबूती से तभी बढ़ा जा सकेगा, जब संसद से जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम व संविधान में संशोधन विधेयक पारित कराया जाएगा। और, यह कोई आसान काम नहीं है। दरअसल, लोकसभा और विधानसभा के ही चुनाव एक साथ कराने की बात होती, तो जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम और संविधान में कुछ संशोधनों से यह काम हो जाता। मगर कोविंद समिति की अनुशंसा के मुताबिक, स्थानीय निकायों के चुनाव भी दूसरे चरण में 100 दिनों के अंदर कराने को कैबिनेट ने मंजूरी दी है, जबकि इन संस्थाओं के चुनाव राज्य सरकार के अधीन होते हैं। पेच यहीं पर फंसेगा। मुमकिन है कि एनडीए समर्थित सरकारें तत्काल अपने यहां संशोधन कर लें, लेकिन विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारें भी ऐसा करेंगी, इस पर संदेह है। यह शक तब और गहरा जाता है, जब एक देश, एक चुनाव के विरोध में कांग्रेस, समाजवादी, तृणमूल, द्रमुक, आप जैसी करीब 15 पार्टियां खुलकर खड़ी हैं। केंद्र सरकार इस मामले में कोई एकतरफा कार्रवाई नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करना राज्यों के विशेषाधिकार का हनन होगा और इससे हमारा संघीय ढांचा प्रभावित होता है।
चुनाव आयोग एक साथ पूरे देश में चुनाव कराने की जरूरत इसलिए महसूस करता रहा है, क्योंकि अभी उसे अनवरत चुनाव संबंधी कामों से जूझना पड़ता है। साल 2024 में ही पहले लोकसभा चुनाव हुए, अब जम्मू-कश्मीर व हरियाणा में मत डाले जा रहे हैैं और वर्ष के आखिर में महाराष्ट्र, झारखंड और शायद दिल्ली में मतदान होंगे। चुनाव आयोग के पास बमुश्किल 300 कर्मचारियों की फौज है, इसलिए चुनाव के समय दिन-रात काम करना उनकी मजबूरी बन जाती है। जब कोई कर्मचारी साल भर दिन-रात काम करेगा, तो उसमें थकान होना स्वाभाविक है। इससे गलती होने की आशंका भी बढ़ जाती है, जबकि निष्पक्षता चुनाव की बुनियादी शर्तों में एक है।
चुनाव-प्रक्रिया में छोटी से छोटी गलती भी कितनी भारी पड़ सकती है, इसे ऑस्ट्रिया के चुनाव से समझ सकते हैं। वहां सरकार का कार्यकाल बस खत्म होने को था, तो चुनाव आयोग ने अपनी तैयारी शुरू की। मत-पत्र चिपकाने के लिए उसने जिस गोंद की खरीदारी की, उस पर लिखा था कि यह 30 डिग्री सेल्सियस तक काम करेगा। मगर जब चुनाव हुए, तो तापमान बढ़कर 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और ऐन चुनाव के समय मत-पत्र खुलने लगे। इससे पारदर्शिता प्रभावित हुई और चुनाव रद्द करवाने पड़े। चूंकि, सरकार के पास बमुश्किल एक महीने का कार्यकाल बचा था, इसलिए आयोग के पास संसद में यह गुजारिश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा कि संविधान में संशोधन करके चुनाव का वक्त आगे बढ़ाया जाए। स्थिति काफी खराब हो गई थी। अपने यहां अब तक ऐसी कोई नौबत नहीं आई है, जिसके लिए हमें चुनाव आयोग और उनके कर्मियों का धन्यवाद करना चाहिए, लेकिन जब थकान हावी हो जाए, तो कुछ भी हो सकता है। इसी चुनौती से पार पाने के लिए आयोग 1982 से ही एक साथ चुनाव कराने की मांग करता रहा है। यहां चुनाव आयोग की टीम बढ़ाने से भी कोई मदद नहीं मिल सकेगी, क्योंकि इससे आयोग की पारदर्शिता ही प्रभावित होगी और उसके लिए चुनौतियां बढ़ जाएंगी।
साफ है, हमें सोच-समझकर बढ़ना होगा। यदि कुछ राज्य सरकारें तैयार नहीं होती हैं, तो फिर जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम और संविधान में ऐसे संशोधन करने पडें़गे कि लोकसभा व विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद स्थानीय निकायों के चुनाव कराने की मजबूरी न रहे। राज्यों को इस बाबत सिर्फ सलाह दी जाए, जिसे मानना या न मानना उनका विशेषाधिकार रहे। इसके बाद, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए जरूरी संशोधन किए जाने चाहिए। उचित यही है कि संशोधन संबंधी कोई मसौदा बनाते समय सभी राजनीतिक दलों को बातचीत की मेज पर बिठाया जाए और उनकी चिंताओं व आशंकाओं को दूर करते हुए ‘एक देश, एक चुनाव’ पर आम सहमति बनाई जाए। संविधान संशोधन के लिए जरूरी दो-तिहाई बहुमत जुटाने के वास्ते ऐसा करना अनिवार्य होगा। इसके बाद ही ईवीएम की कमी या सुरक्षा बलों जैसी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए।
हालांकि, एक और चुनौती इस राह में है। अब जनगणना की कवायद भी शुरू होने वाली है, जिसे कोरोना महामारी की वजह से टाल दिया गया था। इसमें करीब डेढ़ साल का वक्त लगता है, यानी 2026 तक इसके आंकड़े सामने आ सकते हैं। तब हमें इसके अनुसार नया परिसीमन भी करना होगा, जिससे दक्षिण के राज्यों को नुकसान होने का अंदेशा है और वे इसके खिलाफ अभी से लामबंद होने लगे हैं। अगर यह मुद्दा जोर पकड़ता है, तब ‘एक देश, एक चुनाव’ पर आगे बढ़ना मुश्किल हो सकता है।
ऐसे में, चुनाव आयोग को अभी यह सुझाव केंद्र सरकार को देना चाहिए कि कम से कम एक साल के सभी विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराए जाएं। इसके लिए किसी संविधान संशोधन की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि आयोग के पास छह महीने के अंदर के सभी चुनाव एक साथ कराने के अधिकार हैैं। इसकी शुरुआत जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र व दिल्ली के चुनाव एक साथ कराकर की जा सकती थी। मगर ऐसा नहीं हो सका। फिर भी, अभी देर नहीं हुई है। कम से कम इस पर तो सहमति बनाई ही जा सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)