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दूसरी लहर से मुकाबले का माद्दा 

राज्य के सामने अक्सर बहुत बडे़ संकट आते रहते हैं और कई बार तो ये उसके अस्तित्व को ही चुनौती देते से लगते हैं। युद्ध और महामारी, दो ऐसे ही अवसर हैं, जब किसी राज्य को बडे़ खतरे का एहसास हो सकता है और...

दूसरी लहर से मुकाबले का माद्दा 
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 19 Apr 2021 11:36 PM
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राज्य के सामने अक्सर बहुत बडे़ संकट आते रहते हैं और कई बार तो ये उसके अस्तित्व को ही चुनौती देते से लगते हैं। युद्ध और महामारी, दो ऐसे ही अवसर हैं, जब किसी राज्य को बडे़ खतरे का एहसास हो सकता है और यही समय है, जब इस बात का भी निर्णय होता है कि उसके अंदर मजबूती से जमीन में पैर गड़ाकर विपरीत व कठिन परिस्थितियों से लड़ने का कितना माद्दा है। ऐसा ही एक इम्तिहान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नवनिर्मित राष्ट्र-राज्य सोवियत संघ के समक्ष आया था, जब स्टालिन ने अलग-अलग जातीय समूहों में बंटे समाज को एक देशभक्त युद्ध मशीनरी में तब्दील कर दिया था। यही चुनौती भारत के समक्ष भी कोरोना की पहली लहर के बाद आई, जब हम एक राष्ट्र के रूप में खुद को साबित कर सकते थे और महामारी के अगले हमले के लिए सुसज्जित हो सकते थे। देखना होगा कि भारत और उसकी संस्थाएं कोरोना की दूसरी लहर आने तक इस कसौटी पर कितनी खरी उतरीं? यह जांचना इसलिए भी आवश्यक है कि दूसरी लहर अप्रत्याशित नहीं थी और उसकी भविष्यवाणी लगातार की जा रही थी।
महामारी की दूसरी लहर पहली से ज्यादा विकट है। पहली का दम रोजाना लाख संक्रमण पहुंचते-पहुंचते टूट गया, पर दूसरे दौर में ढाई लाख पार करने के बाद भी उसकी गति धीमी नहीं पड़ रही है। दोनों लहरों के बीच आठ-नौ महीने का अंतर है और विशेषज्ञों ने पहले से इसकी चेतावनी दे रखी थी। फ्लू के पिछले अनुभव भी यही बताते हैं। फिर ऐसा क्यों हुआ कि टेस्टिंग, एंबुलेंस, अस्पतालों में बेड, जीवन रक्षक दवाओं, वैक्सीनेशन, ऑक्सीजन और यहां तक दुर्भाग्य से मरीज के न बच पाने की स्थिति में श्मशान घाट तक, हर क्षेत्र में अभाव ही अभाव था? क्या एक राष्ट्र-राज्य के रूप में इतनी बड़ी चुनौती का सामना करने में हम विफल रहे? बहुत से प्रश्न हैं, जो हमें परेशान कर सकते हैं, क्या साल भर में हम अपनी आधारभूत संरचना दोगुनी नहीं कर सकते थे कि नई लहर आने पर असहाय से देखते रहने पर मजबूर न हो जाते? क्या कुंभ मेला और चुनाव मनुष्य के जीवन से ज्यादा जरूरी हैं? बहुत से प्रश्न हैं, जिनके सरलीकृत उत्तर नहीं दिए जा सकते। यदि हम एक प्रौढ़ समाज हैं, तो हमें इन प्रश्नों से बिल्कुल बचना नहीं चाहिए और ईमानदारी से इनसे जूझने की कोशिश करनी चाहिए। मैंने इस मुश्किल समय में भारत राज्य की विभिन्न संस्थाओं के प्रदर्शन को समझने की कोशिश की है और मेरी अब तक की समझ बनी कि उनका प्रदर्शन मिला-जुला सा ही है। पिछली लहर के मुकाबले चिकित्साकर्मियों के सुरक्षा परिधान या पीपीई की स्थिति बेहतर है, इसलिए वे मरीजों के करीब जाने में कम परहेज कर रहे हैं। एंबुलेंस की उपलब्धता भी पहले से अधिक है, पर उनकी लूट भी अधिक है। महानगरों में औसतन मरीजों को एक ट्रिप का छह से 10 हजार रुपये तक भुगतान करना पड़ रहा है। अस्पतालों में बिस्तर खासतौर से आईसीयू में मुश्किल से मिल पा रहे हैं। सिफारिश और पैरवी में यकीन रखने वाला हमारा राष्ट्रीय चरित्र पूरी तरह से मुखर है। इसी तरह, जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन में कालाबाजारी भी जारी है। कुल मिलाकर, आप कह सकते हैं कि यदि राज्य अपनी आधारभूत संरचना में अपेक्षित सुधार कर पाया होता, तो उससे जुड़ी संस्थाओं का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा होता। 
पुलिस आपातकाल में किसी भी राज्य की सबसे दृश्यमान भुजा होती है। मेरी दिलचस्पी महामारी के दौर में उसकी बनती-बिगड़ती छवि को समझने में अधिक है, इसलिए मैं ध्यान से अखबारों और चैनलों को स्कैन करता रहता हूं। मेरी समझ है कि इस बार उसका प्रदर्शन कहीं बेहतर है। एक बड़ा कारण तो शायद यह है कि पिछले बार के खराब ‘ऑप्टिक्स’ से सबक लेते हुए राज्य ने प्रवासियों को उनके रोजगार वाले शहरों में जबरदस्ती रोकने की कोशिश नहीं की। उसे समझ आ गया कि खाने, पीने या रहने की व्यवस्था करने में असमर्थ लोगों के लिए यदि उसने ट्रेनें या सड़क यातायात  जबरिया बंद करने की कोशिश की, तो गरीब-गुरबा पिछले साल की तरह पैदल ही अपने गंतव्य की तरफ निकल पड़ेंगे। पिछली बार वे निकले, तो उन्हें रोकने का काम स्वाभाविक ही पुलिस को करना पड़ा। वह जितना अमानवीय निर्णय था, उतना ही अमानवीय इसे लागू कराने का तरीका साबित हुआ। सारी छीछालेदर पुलिस की हुई। इस बार न तो पलायन को रोकने का प्रयास हुआ और न ही अतिरिक्त उत्साह में कफ्र्यू लगाए गए, लिहाजा बहुत सी अप्रिय स्थितियों से पुलिस बच गई। पिछली बार की ही तरह इस बार भी कई मानवीय करुणा और मदद के लिए बढ़े हाथों की गाथाएं पढ़ने-सुनने को मिलीं। पिछली लहर में मीडिया ने उन्हें प्रचारित किया था, इसलिए स्वाभाविक है, इस बार बहुत सारे पुलिसकर्मी उनसे प्रेरित हुए हों। कुल मिलाकर, अभी तक तो एक संस्था के रूप में पुलिस का प्रदर्शन ठीक-ठाक ही लग रहा है। महामारी जैसी विपदा हमें कुछ दीर्घकालीन सीखें भी दे सकती है। मसलन, यदि पुलिस प्रशिक्षण में कुछ बुनियादी परिवर्तन हो सकें, तो इस तरह की किसी अगली आपदा में वे बेहतर भूमिका निभा सकेंगे। जिस तरह हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रखी है, उसके नतीजे में हमें हर दशक ऐसी आपदाओं की प्रतीक्षा करनी चाहिए। नए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए पुलिसकर्मियों को समझाना होगा कि 1860 के दशक में जब वे खड़े किए गए थे, तब चुनौतियां बिल्कुल भिन्न थीं। आज सिर्फ चोरी, डकैती या हत्या उनकी चिंता नहीं हो सकती। सामान्य समय और मुश्किल वक्तों की पोलिसिंग की अपेक्षाएं व प्रदर्शन भिन्न होंगे। वैसे तो यह स्वास्थ्य सेवाओं जैसे दूसरे क्षेत्रों के लिए भी जरूरी है, लेकिन पुलिस बल के लिए यह सोच इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि उसमें सेवा काल में थोडे़-थोड़े अंतराल पर प्रशिक्षण की अवधारणा पहले से मौजूद है। महामारी के दौरान मरीजों की शिनाख्त से लेकर उन्हें अस्पताल पहुंचाने तक में उसका रोल हो सकता है। रास्ते में जीवन रक्षक उपायों के लिए उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। एक अपराधी और बीमार मनुष्य के व्यवहार में जमीन-आसमान का फर्क होता है और स्वाभाविक ही है कि उसकी अपेक्षाएं भी भिन्न होंगी। एक औसत पुलिसकर्मी को अपने व्यवहार में बड़े परिवर्तनों के लिए तैयार होना चाहिए। इसके लिए नए तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रमों की जरूरत होगी। कोरोना की इन दोनों लहरों से प्राप्त अनुभवों को प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम में शरीक किया जाना चाहिए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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