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कहीं दोस्त, तो कहीं दुश्मन

अंतरराष्ट्रीय जगत में क्या भ्रम और भय जैसा माहौल है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि पिछले दिनों जिस क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) समझौते पर इंडो-पैसिफिक के 15 देशों ने दस्तख्त किए, उसमें चीन के...

कहीं दोस्त, तो कहीं दुश्मन
अरविंद गुप्ता,पूर्व डिप्टी एनएसए,  डायरेक्टर, वीआईएफWed, 18 Nov 2020 10:46 PM
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अंतरराष्ट्रीय जगत में क्या भ्रम और भय जैसा माहौल है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि पिछले दिनों जिस क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) समझौते पर इंडो-पैसिफिक के 15 देशों ने दस्तख्त किए, उसमें चीन के हमकदम ऑस्ट्रेलिया और जापान भी बने, जबकि ये दोनों राष्ट्र एक अलग सामरिक समूह ‘क्वाड’ में अमेरिका और भारत के साथ मिलकर बीजिंग की विस्तारवादी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। आरसीईपी एकमात्र उदाहरण नहीं है। 21 से 26 सितंबर तक रूस ने चीन के साथ ‘काकेशस-2020’ नामक संयुक्त सैन्याभ्यास किया था, जिसमें म्यांमार, ईरान और पाकिस्तान जैसे देश भी शामिल हुए थे। जबकि, रूस और पाकिस्तान पारंपरिक तौर पर मित्र-राष्ट्र नहीं माने जाते। तो सवाल यह भी है कि वैचारिक तौर पर एक-दूसरे के विरोधी देश किसी गुट में साथ-साथ और किसी अन्य समूह में एक-दूसरे के खिलाफ मुखर क्यों हैं?
इसका एक बड़ा कारण भूमंडलीकरण है। पिछले तीन दशकों में व्यापार व आर्थिक जगत में वैश्विकता खासा बढ़ गई है। अगर कोई देश इसका हिस्सा नहीं बनता, तो उसकी आर्थिक तरक्की कमोबेश रुक जाती है। दूसरी तरफ, विश्व व्यवस्था में सत्ता-संतुलन भी काफी हद तक बदल गया है, जिसमें अमेरिका का रुतबा कुछ घटा है, तो चीन का कद बढ़ गया है और उसका विस्तारवादी चेहरा जगजाहिर हो गया है। इसी वजह से सुरक्षा से जुड़ी तमाम तरह की चुनौतियां विश्व के सामने हैं। यह तस्वीर एशिया में कहीं ज्यादा स्याह है, क्योंकि वैश्वीकरण के कारण तमाम देशों का आपसी कारोबारी रिश्ता अनिवार्य-सा है, जबकि चीन के विस्तारवाद से उन्हें अपेक्षाकृत ज्यादा सामरिक मुश्किलों से जूझना पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था और सुरक्षा में तालमेल बिठाने के लिए ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान जैसे देशों को कभी चीन के बगल में बैठना पड़ता है, तो कभी उसके खिलाफ सुर अपनाने पड़ते हैं।
फिर, हर देश का राजनीतिक परिदृश्य अलग होता है और आर्थिक अलग। इसका निर्धारण उसकी अपनी आंतरिक राजनीति से होता है। जैसे, ऑस्ट्रेलिया में जब लेबर पार्टी सत्ता में आती है, तो वह चीन से करीब हो जाती है, लेकिन कंजरवेटिव पार्टी के सत्तारूढ़ होते ही बीजिंग से उसकी दूरी बढ़ती दिखती है। उल्लेखनीय यह भी है कि आर्थिक मोर्चे पर चीन आज कई देशों का प्रमुख सहयोगी है। उनकी अर्थव्यवस्था चीन के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। इनमें ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे देश भी शामिल हैं। इसीलिए चीन की भूमिका इन आर्थिक गुटों में काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। कोरोना महामारी ने इस समीकरण को और ज्यादा उलझा दिया है। इस बीमारी ने वैश्विक कारोबार का आधार मानी जाने वाली विश्व आपूर्ति शृंखला को काफी हद तक प्रभावित किया है। इस शृंखला में किसी उत्पाद का एक हिस्सा किसी एक देश में बनता है, तो दूसरा हिस्सा किसी अन्य देश में। चूंकि क्षेत्रीय आर्थिक गुट ऐसी शृंखला को मजबूती देते हैं, इसलिए इन समूहों में शामिल होने का अपना आकर्षण होता है।
इन कारणों से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसी वैश्विक संस्था के कामकाज पर सवाल उठने लगे हैं। बेशक, आदर्श स्थिति तो यही है कि दुनिया भर में कोई एक सर्वमान्य व्यवस्था लागू हो, जिसके अपने नियम-कानून हों और उनसे सबको समान रूप से फायदा पहुंचे। मगर ऐसी व्यवस्था के अपने खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा एकाधिकार का है। आमतौर पर ऐसी संस्थाओं पर विकसित राष्ट्रों का कब्जा हो जाता है और वे अपने हित में उसका इस्तेमाल करने लगते हैं। डब्ल्यूटीओ के साथ दिक्कत यह रही कि सार्वभौमिक नियम-कानूनों की वकालत करने वाले इस संगठन का लाभ चुनिंदा देशों को अन्य राष्ट्रों से कहीं ज्यादा मिला। इनमें चीन सबसे ऊपर है। करीब दो दशक पहले वह इसका सदस्य बना था, लेकिन इतने कम समय में ही उसने अमेरिका, जापान और यूरोप के बाजार में खासा दखल बना लिया है। यही नहीं, उसने विश्व के लिए अपने बाजार भी नहीं खोले, जबकि नियमानुसार उसे ऐसा करना था। दरअसल, ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि ‘मार्केट इकोनॉमी’ न होने के बावजूद उसे डब्ल्यूटीओ में राजनीतिक वजहों से शामिल किया गया था। 
हालांकि, विवादों के निपटारे के लिए विश्व व्यापार संगठन में ‘डिस्प्यूट सेटलमेंट मेकनिज्म’ है, जहां चीन की कई शिकायतें की गई हैं। मगर अमेरिका के रवैये के कारण यह तंत्र आजकल ठीक से काम ही नहीं कर रहा, जिसकी वजह से डब्ल्यूटीओ अब ज्यादा असरदार नहीं हो पा रहा। ऐसे में, किसी एक संस्था के प्रभावी रहने से संभव है कि चीन अपने आर्थिक रसूख का फायदा उठाता, जिसका नुकसान उन देशों को ज्यादा होता, जो आर्थिक मोर्चे पर कमजोर हैं। इसीलिए आज वैश्विक संगठनों से इतर लगभग 250 मुक्त व्यापार समझौते अस्तित्व में हैं। ये विश्व व्यापार संगठन के नियमों के खिलाफ नहीं हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि हर क्षेत्र की अपनी जरूरतें हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए क्षेत्रीय गुट बनाए जा सकते हैं। वैश्विक व्यापार के क्षेत्र में मुक्त व्यापार को लेकर 2015 की ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप भी इसी तरह का समझौता था, जिसमें से बाद में अमेरिका बाहर हो गया। लब्बोलुआब यही है कि अपने-अपने हितों के मुताबिक तमाम देश राजनीतिक, सामरिक व आर्थिक समझौते करते हैं या समूह बनाते हैं। भारत भी इसी कारण आरसीईपी में शामिल नहीं हुआ, क्योंकि उसे अपने दुग्ध बाजार भी खोलने पड़ते, जबकि यह कई लोगों की आजीविका का आधार है। लिहाजा आवश्यक है कि डब्ल्यूटीओ जैसे संगठन अपने कानूनों में बदलाव करें और ज्यादा प्रभावशाली बनकर उभरें। उनको इस तरह जरूर गढ़ा जाना चाहिए कि विकासशील और अल्प-विकसित देशों के हित सुरक्षित रह सकें। 
आज शक्तिशाली राष्ट्र बनने के लिए आर्थिक ताकत जुटाना जरूरी है। मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश अपने सामरिक व राजनीतिक हितों को आसानी से पूरा कर लेते हैं। इसी के कारण सभी देश आर्थिक विकास की चाहत पालने लगे हैं, और वैचारिक विरोध होने के बावजूद वे स्वाभाविक तौर पर आपूर्ति शृंखला और क्षेत्रीय गुटों की ओर आकर्षित होते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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