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ये दर्द भी दर्ज करेगा साहित्य

संकट और दुख हमेशा बड़ा रचते हैं। ऐसे में, यह स्वाभाविक दिलचस्पी हो सकती है कि कोरोना-काल के महासंकट में क्या रचा जा रहा है? इस समय, जब सब कुछ बंद है और जिंदगी थम सी गई है, रचनात्मकता को हम तक पहुंचाने...

ये दर्द भी दर्ज करेगा साहित्य
विभूति नारायण राय, साहित्यकार एवं पूर्व कुलपतिMon, 18 May 2020 10:14 PM
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संकट और दुख हमेशा बड़ा रचते हैं। ऐसे में, यह स्वाभाविक दिलचस्पी हो सकती है कि कोरोना-काल के महासंकट में क्या रचा जा रहा है? इस समय, जब सब कुछ बंद है और जिंदगी थम सी गई है, रचनात्मकता को हम तक पहुंचाने का जरिया छपा हुआ शब्द अनुपलब्ध है, तब सोशल मीडिया ही आजकल लिखे जाने को समझने का अकेला उपलब्ध माध्यम है। अगर इन माध्यमों पर रोज छपने वाले हजारों, लाखों पृष्ठों को खंगालें, तो आप पाएंगे कि महानगरों में रोजगार और रिहाइश गंवा चुके असंख्य मजदूरों की भूख और किसी तरह अपने गांव पहुंच सकने के लिए निर्मम सड़कों पर उनकी जद्दोजहद हर तरफ कहानी, कविता, फोटोग्राफी या कार्टून में मौजूद है। यह बात और है कि इनमें से अधिकतर तात्कालिकता के दबाव में तुकबंदी या नारेबाजी अधिक हो गए हैं, पर निश्चित ही एक बार चेतना में समाहित होने के बाद इन्हीं अनुभवों से बड़ा रचा जा सकेगा।
भारत में तो गरीब की नियति ही दुख है, शायद इसीलिए महाकवि निराला ने अपनी विपन्नता का भाष्य किया था, दुख ही जीवन की कथा रही।  पिछले कुछ वर्षों से शहरीकरण की बढ़ती रफ्तार ने भारत में दुख के सबसे बड़े भंडार गांवों की जिंदगी में उथल-पुथल मचा रखी थी और यह भले न कह सकें कि गरीब का दुख कुछ कम हो गया, पर शहर जाकर उसकी जिंदगी कुछ बेहतर जरूर होने लगी है। सबसे पहले तो वह वर्ण-व्यवस्था से मुक्त हो जाता है। गांव में शायद ही कभी उसे उसके नाम से पुकारा गया हो। उसकी पहचान किसी ऐसी जाति से होती है, जो अपमानजनक ढंग से विकृत होकर उसको पुकारने के लिए संज्ञा बन जाती है। गांव के नरक से निकलकर वह किसी शहरी नाले या रेलवे लाइन के किनारे अपना नया नरक बसा लेता है, पर कुछ हद तक गरीबी भी कम हो ही जाती है। पुकारने के लिए उसके पास एक नाम और दो वक्त नियमित रोटी मिलने का भी जुगाड़ होता है। यहां आने वाले ज्यादातर अकेले खटते हैं और पेट काटकर की गई छोटी-मोटी बचत पीछे छूटे बीवी-बच्चों को भेजते रहते हैं। कुछ परिवार साथ रख पाते हैं, पर पीछे कुछ छूट गया है, जिसके लिए गांव पैसा भेजना जरूरी है- बूढे़ मां-बाप, जवान होती बहन की शादी की चिंता या बेर-कुबेर लिया गया कर्ज। नरक में रहकर वे शहरों के स्वर्ग बनाते हैं- गगनचुंबी  अट्टालिकाएं, भव्य मॉल और अनंत तक जाने वाली सड़कें। कवि गोरख पांडे के शब्दों में इसी स्वर्ग से उनकी विदाई हो रही है।
जिन शहरों को इन मजदूरों ने जीने लायक बनाया था, वे उसे चार-छह महीने जीने का सहारा नहीं दे सके। शहर, गोरख के ही कम शब्दों में कहें तो/ सुख-सुविधा और आजादी का एक सुरक्षित इलाका/ एक झिलमिलाता स्वर्ग रच दिया है।... अब आप यहां से जा सकते हैं।
वे जा रहे हैं और यह जाना हमारी स्मृतियों में अभूतपूर्व बिंब समोते जा रहा है। ऐसे दृश्य पहले हमने कब देखे थे? जुलाई-अगस्त 1947 में, जब देश का विभाजन हो रहा था और एक करोड़ से अधिक लुटे-पिटे लोग एक नकली रेखा पार कर रहे थे। उन दिनों की लंबी कतारें हिंसक प्रतिक्रियाओं से क्षत-विक्षत घिसट रही थीं, और आज के राजमार्गों पर एक अंतहीन सिलसिले से दिखते ये लोग शहरी भद्रलोक और अपने हाकिमों की संवेदन-शून्य उपेक्षा से अंदर-बाहर छिले हुए हैं। उन दिनों सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर या खुशवंत सिंह जैसे रचनाकार थे, जिन्होंने इस मानवीय त्रासदी में भी प्रेम की कोंपलें तलाशी थीं। आज के छायाचित्र भी कठोरतम में कोमलतम को बचाने के प्रयास को रेखांकित करते दिखेंगे। क्या महसूस करेंगे, अगर आप देखें कि परिवार का अधेड़ मुखिया अपने कुनबे को सुरक्षित निकाल ले जाने की चाह में बैल का जोड़ीदार बनकर गाड़ी खींच रहा है या जुगाड़ से एक चौपहिया पटरा गाड़ी बनाकर और उस पर अपनी गर्भवती पत्नी को बिठाकर पति घोड़े-सा उसमें जुता हुआ है या एक कृशकाय पिता बहंगी बना अपने दो बच्चों को एक-एक पलडे़ में बिठाकर खुद को घसीटता हुआ सा जा रहा है! कुछ दृश्य तो अविश्वसनीय हिंदी फिल्मों से लिए गए से लगते हैं, अन्यथा ऐसा कैसे हुआ कि जब कोरोना को भी हमने हिंदू-मुस्लिम में बांट दिया हो, तब एक तस्वीर ऐसी भी छपती है, जिसमें        एक मुसलमान अपने दम तोड़ते हिंदू दोस्त को पानी         की आखिरी घूंट पिला रहा है? इन सब पर भी हमारे समय के रचनाकार बड़ा रचेंगे और उम्मीद है, ये रचनाएं            उस तात्कालिक प्रतिक्रिया से भिन्न होंगी, जो मांग          और आपूर्ति के अनुरूप अभी थोक में सोशल मीडिया पर दिख रही हैं।
इन पैदल चलने वालों का अपने जीवन में मृत्यु से निकट का रिश्ता रहा है। एक सबसे परिचित मृत्यु के बारे में फलस्तीनी कवि सबीर हका ने अपनी कविता शहतूत में लिखा है, मैंने कितने मजदूरों को देखा है/ इमारतों से गिरते हुए/ गिरकर शहतूत बन जाते हुए।  अपने रोजगार-स्थलों पर तो वे तरह-तरह से मरते रहे हैं, पर इस बार जो मौत उन्हें मिल रही है, उसके पात्र वे निश्चित रूप से नहीं थे। पहले तो शहरों ने मेहनतकश को भिखमंगा बना दिया, उन्हें दुरदुराते हुए फेंक-फेंककर रोटियां दी गईं, और जब आत्म-सम्मान गंवाकर वे सड़कों पर निकले, तो प्रतीक्षा में मृत्यु घात लगाए मिली। कई सौ सड़क यात्री, जिन्हें अपने ही देश में प्रवासी कहा जा रहा है, दुर्घटनाओं में या तो मर चुके हैं या गंभीर रूप से जख्मी होकर किसी रोजगार के लायक नहीं रह गए हैं। 
यात्राओं पर निकले लोग कसमें खाते निकल रहे हैं कि अब वापस इस निर्दयी दुनिया में नहीं लौटेंगे। पर उनका गुस्सा एक रूठे हुए नाराज बच्चे की प्रतिक्रिया अधिक लग रही है। इनके बीच बिहार के जमुई निवासी बबलू का इंटरव्यू ज्यादा संतुलित लगता है। दिल्ली में उसकी चाय की दुकान ने 15 साल उसके परिवार को रोटी और बच्चों को शिक्षा प्रदान की है। वह हालात सुधरते ही फिर लौटेगा। सभी लौटेंगे। यह एक कठोर सच्चाई है कि गांव उन्हें नहीं संभाल सकते।
दर्जनों बच्चे कठिनतम परिस्थितियों में यात्रा के दौरान जन्मे हैं। पता नहीं, बड़े होकर वे अपने जन्म को किस तरह याद करें, पर कवि केदारनाथ अग्रवाल जीवित होते, तो अपनी ही कविता एक बार फिर गुनगुनाते : सुन ले री सरकार/ कयामत ढाने वाला और हुआ/ एक हथौडे़ वाला घर में और हुआ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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