फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनमोटी मलाई ले उड़ते धनाढ्य 

मोटी मलाई ले उड़ते धनाढ्य 

गरीबी कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफेम ने अपनी असमानता रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत भी इसी...

मोटी मलाई ले उड़ते धनाढ्य 
हिमांशु, एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयूTue, 18 Jan 2022 11:15 PM
ऐप पर पढ़ें

गरीबी कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफेम ने अपनी असमानता रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ा। यहां बेशक 84 फीसदी परिवारों की आमदनी महामारी की वजह से कम हो गई, लेकिन अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। इतना ही नहीं, मार्च 2020 से लेकर 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की आमदनी में करीब 30 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है और वह 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक नए भारतीय अति-गरीब बनने को विवश हुए।

बावजूद एक तरह से यही कहा जाएगा कि रिपोर्ट में कोई खास बात नहीं है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऑक्सफेम अरसे से यही बात कह रही है। विश्व आर्थिक मंच के सालाना सम्मेलन के आसपास जारी होने वाली इस रिपोर्ट का मकसद ही यह बताना होता है कि विश्व आर्थिक मंच भले पूंजीपतियों की वकालत करे, पर असमानता की भी बातें होनी चाहिए। इसकी पुरानी रिपोर्ट भी यही बताती है कि अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। हां, इस साल इसलिए ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि पिछले दो वर्षों से हम महामारी से गुजर रहे हैं और यह उम्मीद थी कि कम से कम कोरोना काल में गरीबों को ज्यादा मदद दी जाएगी और उनकी आमदनी सुरक्षित रखी जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। आंकड़े यही बता रहे हैं कि महामारी में जिस वर्ग ने सबसे ज्यादा फायदा उठाया, वह धनाढ्य है। उसकी संपत्ति और आमदनी बढ़ी है, जबकि गरीबों का जीना और दुश्वार हो गया है।
बढ़ती असमानता को पाटने के लिए किसी जादुई छड़ी की जरूरत नहीं। यह बहुत आसान काम है। इसके लिए सरकारों को निचले तबके की आमदनी में इजाफा करने और धनाढ्य तबके से जायज टैक्स वसूलने की कोशिश करनी होगी। असमानता घटाने का तरीका ही यही है कि मजदूरों को उनकी वाजिब मजदूरी मिले, खेती करने वालों को अपनी उपज का उचित दाम मिले, मजदूरों को खून-पसीने की कमाई मिले और कोई भी इंसान व्यवस्था का लाभ उठाकर जरूरत से ज्यादा अपनी तिजोरी न भर सके। नहीं तो, समाज और व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है।
मगर असलियत में ऐसा हो नहीं रहा है। अपने यहां वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने टैक्स में छूट देकर देश के पूंजीपति वर्ग को दो लाख करोड़ रुपये की माफी दे दी। जबकि, 2016 में हुई नोटबंदी और 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किए जाने के कारण 2018 तक हमारी अर्थव्यवस्था काफी कमजोर हो चुकी थी और विकास दर 8.25 फीसदी से घटकर चार फीसदी पर आ गई थी। ऐसे में, मदद की जरूरत धनाढ्यों को नहीं, गरीबों को थी। असंगठित क्षेत्र के लोग थे, जिनको सहायता मिलनी चाहिए थी। मगर वे मुंह ताकते रह गए और मलाई धनाढ्य ले उड़े। सच यही है कि पिछले पांच साल से लोगों की वास्तविक आमदनी नहीं बढ़ी है। मनरेगा की मजदूरी, जो सरकार खुद तय करती है, वह भी बाजार में मिलने वाली मजदूरी से कम है। जबकि इसके बरक्स शेयर बाजार नित नई ऊंचाइयों पर  दिखने लगा है। इन सबसे स्वाभाविक तौर पर असमानता बढ़ रही है।
आर्थिक ऊंच-नीच की इस खाई को खत्म करने के लिए सबसे जरूरी काम यही है कि लोगों की जेब में पैसे पहुंचे। इसके लिए विशेषकर निम्न एवं मध्य वर्ग की आमदनी को सुरक्षित करना होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि किसानों को उनकी फसलों का पूरा मूल्य मिले। यह रवैया बदलना होगा कि धनाढ्य तबके को बिन मांगे दो लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट दे दी जाए और लंबा संघर्ष करने के बाद भी किसानों को उनका पूरा-पूरा हक न मिले। अनौपचारिक क्षेत्र की तरफ भी हमारा बिल्कुल ध्यान नहीं है, जबकि यही क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था की कुंजी है। लोगों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना और उन्हें बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराना भी जरूरी है। हमारे नीति-नियंताओं को समझना होगा कि अगर कोरोना काल में लोगों ने कर्ज लेकर अपना महंगा इलाज कराया है, तो उसका बोझ वे कई वर्षों तक उठाने को बाध्य हो गए हैं। अगर उनके बोझ को कम नहीं किया गया, तो असमानता घटाने के दावे कतई सच नहीं माने जाएंगे।
सरकारों को लंबी अवधि और छोटी अवधि, दोनों के लिए योजनाएं बनानी होंगी। अल्पावधि कार्यक्रमों में जहां असंगठित क्षेत्र को समर्थन देना, उस तक सीधी नकदी पहुंचाना बहुत जरूरी है (जैसा कि कई अन्य देशों ने किया है), तो वहीं मनरेगा जैसी योजनाओं का बजट बढ़ाना भी जरूरी है, ताकि मजदूर वर्ग तक नकद राशि पहुंचे। हमारे गांवों में एक बड़ा तबका अब भी कृषि पर आधारित है। उन लोगों की आमदनी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उनकी लागत कम की जाए और आय बढ़ाई जाए। इसके लिए खाद के दाम करने होंगे, डीजल की कीमत घटानी होगी और बिजली की दरों में कमी करनी होगी। विडंबना है कि विधानसभा चुनावों के समय ये घोषणाएं की जा रही हैं। क्या सरकार के शुरुआती वर्षों में ऐसा नहीं किया जा सकता था?
दीर्घावधि की योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और रोजगार पर खर्च करने की जरूरत है। यह किसी एक साल के बजट का मसला नहीं है। आने वाली तमाम सरकारों को इस दिशा में संजीदा होना होगा। इसके लिए एक लंबी समझ और सोच की जरूरत है। यह कहीं ज्यादा जरूरी है कि सरकार काम करने के अपने तौर-तरीके बदले। जब तक सरकारों की प्राथमिकता में किसान, मजदूर और गरीब तबके नहीं होंगे, अमीरी और गरीबी का अंतर कम नहीं किया जा सकता। ऑक्सफेम की पिछली तमाम असमानता रिपोर्ट इसी की पुष्टि करती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें