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टीम मोदी बनाम ब्रांड मोदी 

दिसंबर 2018 में अपने एक ऐसे उद्यमी मित्र के साथ मैं लंच कर रहा था, जो केंद्र सरकार के साथ निकटता से काम कर चुके हैं। तब कुछ ही समय पहले भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में...

टीम मोदी बनाम ब्रांड मोदी 
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 17 Jan 2020 11:49 PM
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दिसंबर 2018 में अपने एक ऐसे उद्यमी मित्र के साथ मैं लंच कर रहा था, जो केंद्र सरकार के साथ निकटता से काम कर चुके हैं। तब कुछ ही समय पहले भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा था। इन तीनों राज्यों में तीन मुख्यमंत्री सत्ता और कामकाज से बाहर हो गए थे। मैंने मित्र को सलाह दी कि जब मई महीने में प्रधानमंत्री चुनाव जीत जाएंगे, (तब ऐसा लग भी रहा था) तब उन्हें बेकाम हुए इन नेताओं को केंद्र सरकार में शामिल कर लेना चाहिए। वैसे तो ये राजनेता भी विवादों से परे नहीं थे, लेकिन प्रशासन संभालने में समर्थ थे।

इनमें से हरेक राजनेता अपने साथ कुछ ठोस विशेषता लेकर केंद्र सरकार में आता। वसुंधरा राजे अक्खड़़ और हक के प्रति सचेत हैं, लेकिन कला व संस्कृति में उनकी रुचि की वजह से उन्हें पर्यटन मंत्री बनाया जा सकता है। शिवराज सिंह चौहान सरकार पर व्यापम के दाग लगे थे; लेकिन उनके आलोचकों ने भी माना है कि उनकी नीतियों ने मध्य प्रदेश के किसानों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद की है। निश्चित रूप से वह मोदी के दूसरे मंत्रिमंडल में कृषि व ग्रामीण विकास विभाग के प्रभावी मंत्री हो सकते हैं? छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन की दोषी थी, लेकिन उसने अन्य राज्यों की तुलना में गरीबों को अधिक प्रभावी ढंग से सब्सिडी वाला भोजन उपलब्ध कराया था। क्या रमन सिंह दूसरे केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक उपयोगी सदस्य नहीं होते?

तब भाजपा के प्रति झुकाव रखने वाले मेरे मित्र भी मुझसे सहमत थे। अपने पहले कार्यकाल के दौरान भी मोदी सरकार प्रतिभा-संपन्न नहीं थी। तब कुछ अनुभवी मंत्री थे, जैसे मनोहर पर्रिकर, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली इत्यादि, लेकिन ये सब बीमार दिखने लगे थे। जब दूसरे मंत्रिमंडल में ये अनुभवी मंत्री शामिल नहीं किए गए, तब तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को शामिल करने से निश्चित ही केंद्र सरकार के कार्यक्रमों का क्रियान्वयन अधिक प्रभावी होता।

जेटली, सुषमा और पर्रिकर के न होने ने केंद्र सरकार में आला दर्जे की पेशेवर योग्यता के अभाव को जटिल बना दिया। प्रधानमंत्री को अपने पहले कार्यकाल में कम से कम चार शीर्ष अर्थशा्त्रिरयों- रघुराम राजन, अरविंद सुब्रमण्यन, उर्जित पटेल और अरविंद पनगढ़िया की सलाह का लाभ मिला था, लेकिन 2019 तक ये सभी सरकार छोड़ चुके थे। इनकी जगह तुलनात्मक रूप से कम पेशेवर विश्वसनीयता वाले लोगों को बिठाया गया। इसके अलावा, प्रधानमंत्री के पास वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय, दोनों जगह कुछ उच्च गुणवत्ता वाले प्रशासनिक सेवक भी थे, जो अनुभवी व विद्वान थे, जो अपने मन की बात कहने में हिचकते नहीं थे। मई 2019 में जब मोदी दूसरी बार शपथ ले रहे थे, तब ये सेवक भी जा चुके थे, इससे भी गरीबी में आटा गीला हुआ।

यहां एक ढर्रा-सा दिखता है। लगता है, नरेंद्र मोदी स्वतंत्र विचार रखने वालों के साथ लंबे समय तक काम नहीं कर सकते, चाहे वह अधिकारी हों, अर्थशास्त्री हों या पार्टी के ही नेता। इसके कम से कम तीन कारण हो सकते हैं। सबसे पहले, प्रधानमंत्री स्वभाव से अकेले व्यक्ति हैं, जिनका कोई मित्र और परिवार नहीं है। वह पूरी तरह से स्व-निर्मित हस्ती हैं, जिन्होंने वास्तव में परस्पर संबंध बनाना कभी सीखा ही नहीं।

दूसरा, उन्होंने स्वयं अध्ययन किया है, अत: प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के डिग्रीधारकों के प्रति वह सशंकित हो जाते हैं। (यहां उनकी इस ख्यात टिप्पणी याद की जा सकती है- मैं हमेशा ‘हॉर्वर्ड’ पर ‘हार्ड वर्क’ को तरजीह दूंगा) तीसरा, उनकी दुनिया अपने आसपास ही घूमती है। वह भाजपा हैं, वह सरकार हैं, वह मंत्रिमंडल हैं और वह भारत हैं। कोई ‘टीम मोदी’ नहीं है, क्योंकि केवल एक ‘ब्रांड मोदी’ हो सकता है।

एक आर्थिक विश्लेषक का कहना है कि यदि कोई वर्तमान प्रधानमंत्री के साथ काम करना चाहता है, तो उसे इस नियम का पालन करना होगा, पूरी खुशामद और कोई श्रेय नहीं। इस नियम के एक ही अपवाद हैं वर्तमान गृह मंत्री। जब नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री थे, तब अमित शाह एक समय बिना कैबिनेट रैंक के ही करीब 12 विभाग संभालते थे। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष बन गए। मोदी के पहले कार्यकाल में वह पार्टी अध्यक्ष रहे। मई 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद शाह गृह मंत्री के रूप में कैबिनेट में आ गए। साथ ही, वह पार्टी अध्यक्ष भी हैं। पार्टी से संसद तक पिछले महीनों में वह खूब दिख रहे हैं और उनका नाम प्रधानमंत्री के नाम के साथ जोड़कर लिया जाता है।

नरेंद्र मोदी के समय में जिन नीतिगत निर्णयों ने सर्वाधिक नुकसान किया है, उनमें नोटबंदी और नागरिकता संशोधन कानून पारित करना शामिल है। इनमें से पहला फैसला रिजर्व बैंक के गवर्नर की विशेषज्ञ सलाह के विरुद्ध लिया गया था और दूसरे फैसले को गृह मंत्री ने आगे बढ़ाया है। जहां अर्थव्यवस्था अब भी नोटबंदी की मार से नहीं उबरी है, वहीं सीएए के पास होते ही भारतीय समाज में धु्रवीकरण हो गया है। ये जो निर्णय लिए गए हैं, इनकी दूर-दूर तक जरूरत नहीं थी। देश के भविष्य के बारे में सोचने वाला कोई भी शख्स इसे समझ सकता था।

नरेंद्र मोदी के साथ काम कर चुके उद्यमी और अधिकारी बताते हैं कि वह स्वयं को एक ऐसी किस्मत वाली हस्ती के रूप में देखते हैं, जो किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री की तुलना में देश को आमूल-चूल बदल देगी। बंटे हुए और खुद से लड़ते विपक्ष को देखते हुए ऐसा हो सकता है कि नरेंद्र  मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में तीसरा कार्यकाल भी मिल जाए। पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी की तरह उनका भी शासनकाल लंबा हो। लेकिन उनके दूसरे कार्यकाल के छह महीने को देखकर लगता है कि उनके बही-खाते में नेहरू और इंदिरा की तुलना में ज्यादा नकारात्मकता होगी। नागरिकों को उम्मीद थी कि वह अपने वादे निभाएंगे। दो चुनावी जनादेश के साथ वह भारत को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से अगले मुकाम तक ले जा सकते थे।

मगर आज हमारी अर्थव्यवस्था मई 2014 की तुलना में कहीं अधिक नाजुक और कमजोर है। हमारा समाज अधिक भयभीत और विभाजित है। बहुसंख्यक हिंदुत्व का जोर है। प्रधानमंत्री योग्य लोगों को कैबिनेट में लेने के बारे में सोचते, विधि, विज्ञान, रक्षा, विदेश मामले पर विशेषज्ञ सलाहों को ध्यान से सुनते, तो वह आज बेहतर स्थिति में होते और भारत भी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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