छठ मतलब आस्था का उमड़ता सागर
छठ शब्द सुनते ही हृदय भर आता है। दशहरे से ही इसकी प्रतीक्षा, मां की तैयारियां, घर की साफ-सफाई और पवित्रता का खास ख्याल, पूरे गांव में पूजा-पाठ का माहौल, ठेकुआ का बनना, नए कपड़े सिलवाना, खेतों से...

छठ शब्द सुनते ही हृदय भर आता है। दशहरे से ही इसकी प्रतीक्षा, मां की तैयारियां, घर की साफ-सफाई और पवित्रता का खास ख्याल, पूरे गांव में पूजा-पाठ का माहौल, ठेकुआ का बनना, नए कपड़े सिलवाना, खेतों से गन्ने, अदरक, मूली, कच्चे केले, हल्दी, सुथनी आदि लाना, घाट सजाना- सब एक ‘कोलाज’ बनकर सामने आ खड़ा होता है।
मैं इस दिन अपने बचपन में लौट जाता हूं। हमारे घर से करीब 100 मीटर पीछे एक नदी है, जिसके किनारे हम छठ मनाया करते थे। अब तो खैर इसका पानी ठहर-सा गया है, मगर पहले यह निर्मल व प्रवाहित नदी होती थी। यह नदी जितनी जमीन पर बहती है, उससे अधिक मेरे अंदर, क्योंकि इसी में नहाना, तैरना, त्योहार मनाना- सब कुछ किया है मैंने। छठ के समय हम बच्चों की जिम्मेदारी यहां की साफ-सफाई और सजावट की होती थी। हम घाट पर उग आई घास या झाड़ियों को हटाते। सीढ़ियां बनाते, वहां तक पहुंचने वाले रास्ते की साफ-सफाई करते, किनारे में केले के पौधे लगाते, पूरी साज-सज्जा करते। बहुत आनंद आता था इसमें।
उन दिनों बाजार का यूं चलन नहीं था, तो छठ के सामान का आदान-प्रदान किया जाता था। हम अपने खेत के गन्ने अन्य छठव्रतियों में बांटा करते। मिठाई भी बमुश्किल बाजार से आती थी। घर में ही सब कुछ बनता था। इस त्योहार में पवित्रता का काफी ध्यान रखा जाता है, तो ठेकुआ, गुजिया जैसे प्रसाद व्रती या परिवार के सदस्य ही बनाते। छठ मूलत: प्रकृति का उत्सव है। इसमें प्रसाद भी वही होता है, जो प्रकृति ने फसल के रूप में हमें दी है। आराधना भी हम डूबते और उगते हुए सूर्य की करते हैं। पानी में खडे़ होकर भगवान भास्कर को अर्घ्य देते समय हम उनको धन्यवाद देते हैं कि आपके होने से ही यह धरती चल रही है। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति को सम्मान देने के यह अद्भुत जरिया बनाया है।
मेरे कलाकार बनने की कड़ी भी इस पर्व से जुड़ी है। दरअसल, पारण (पर्व-समापन) की रात हमारे गांव में नाटक खेलने की परंपरा रही है। इसमें बाहर से कमाकर गांव आने वाले लोगों से चंदा लिया जाता था, ताकि मंच बन सके, लाइट-लाउडस्पीकर आदि लगाए जा सकें। मैं तब नौवीं-दसवीं में रहा होऊंगा, जब पहली बार नाटक में भाग लिया। अपने जीवन के शुरुआती दो नाटक मैंने घाट पर किए हैं। यहीं से मुझमें अभिनय का बीजारोपण हुआ।
छठ से यादें सर्दियों की भी होती हैं। अब बेशक मौसम में उतार-चढ़ाव कुछ ज्यादा दिखने लगा है, पर छठ पर्व सर्दी के आने का आधिकारिक ऐलान होता। हम इसी दिन पहली बार जैकेट या स्वेटर पहनते थे। रजाइयां निकल आती थीं। यह मान लिया जाता था कि अब इनकी जरूरत पडे़गी। इस पर्व से एक और दिलचस्प याद जुड़ी है। पहले रेडिमेड कपड़े नहीं खरीदे जाते, बल्कि थान से आठ-दस मीटर कपड़े कटवा लिए जाते थे, तो पता चलता कि छठ घाट पर परिवार के चार-पांच लोग एक ही छाप के कपडे़ में हैं। भैया भी वही पहने हुए हैं, जो मैं पहने होता।
छठ में लोक-आस्था की खूबसूरती देखते ही बनती है। मेरी मां जब शाम को कोसी भरा करतीं, तो एक गीत गाती थीं- छठी मैया होईं न सहाय...। इसमें परिवार के सभी सदस्यों के नाम लेकर उनके मंगल की कामना की जाती। यहां तक कि जो लोग गांव नहीं आ पाते, उनके नाम भी गीतों में लिए जाते। यहां तक कि जिनसे अनबन होती, उनके भी। इन गीतों में यही प्रार्थना की जाती है कि छठी मैया, अपनी कृपा सब पर बनाए रखें। छठ घाट पर भी कोई किसी की मदद करने को तैयार रहता। मैंने तो गांव में मुस्लिम व्रती भी देखे हैं।
इस साल यह पहला मौका है, जब मेरे पिताजी साथ नहीं हैं। पिछले दिनों उनका निधन हो गया, पर लगता है कि वह आसपास ही कहीं हैं। मां ने तो दो-तीन वर्षों से छठ करना बंद कर दिया है, लेकिन पटना में मेरी भाभी यह करती हैं। अगर इस बार शूटिंग की व्यस्तता न होती, तो मैं जरूर इसमें शामिल होना चाहता। मैं वे सारे काम करना चाहता हूं, जो पहले किया करता था।
हालांकि, अब तो यह त्योहार हर जगह मनाया जाने लगा है। इसकी एक बड़ी वजह लोगों का अपने गृह-राज्य से बाहर निकलना भी है। पूर्वांचल के जिन हिस्सों में छठ होता है, वहां से विस्थापन काफी ज्यादा हुआ है। पिछले साल छठ पर मैं मुंबई के जुहू तट पर था। वहां उमड़ी लाखों की भीड़ यह बता रही थी कि लोग जब विस्थापित होते हैं, तो वे अपनी सांस्कृतिक धरोहर भी साथ लेकर आते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका तक यह पर्व पहुंच गया है, जबकि गांव में इस मौके पर एक-दूसरे से मिलना-जुलना हो जाता था। सभी एक-दूसरे की खबर लेते थे। अब तो छठ काफी कुछ डिजिटल भी हो गया है। इसके वीडियो,गाने सोशल मीडिया मंचों पर खूब दिखने लगे हैं। हालांकि, उत्साह में आज भी कोई कमी नहीं आई है।
एक बदलाव जरूर यह आया है कि अब लोग घर में ही इसे मनाने लगे हैं। छतों पर या आंगन में कुंड बनाकर भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यह समय का बदलाव है। जैसे-जैसे हमारा समाज छोटा होता जाएगा, हम ‘एकल परिवार’ में बदलते जाएंगे, घर में ही पानी के स्रोत ढूंढ़े जाने लगेंगे। चूंकि पोखर और तालाब अब खत्म हो रहे हैं, तो कृत्रिम कुंडों पर ही हमें भरोसा करना होगा। हालांकि, इसमें आस्था की कमी का सवाल नहीं है। अब पटना के घाट को ही देखिए। वहां गंगा-किनारे छठ मनाने वालों की इतनी भीड़ हो जाती है कि डाला रखने तक की जगह नहीं मिलती। गंगा के मैदानी इलाके वैसे भी काफी घनी आबादी वाले हैं। तो, इस भीड़ से बचने के लिए भी लोग घरों में करते हैं। महानगरों में तो स्वीमिंग पुल में भी छठ पर्व मनाया जाने लगा है।
देखा जाए, तो इसी में हमारे लिए संदेश भी छिपा है। छठ प्रकृति और मनुष्य के संबंध का त्योहार है। लिहाजा, हम जितनी आस्था छठ पर रखते हैं, उतनी ही आस्था जल-स्रोतों में भी रखनी चाहिए। हम यदि नदी किनारे जा रहे हैं, तो उसमें कचरा डालकर न आ जाएं। हमें प्रकृति की कद्र करनी होगी। यह समझना होगा कि उसी से हमारा अस्तित्व है। छठ के मौके पर हम नदियों को जितना साफ रखते हैं, बाकी दिन भी अपने पोखर-तालाब, ताल-तलैया, चौर-चांचर के प्रति हमें श्रद्धा रखनी होगी। तभी छठ मनाने का असली आनंद है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
