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ताकि डिग्री लेकर इंजीनियर भटकें नहीं

आईटी इंडस्ट्री और इंजीनिर्यंरग शिक्षा ने सन् 1991 के बाद के दौर में अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और भारत में एक बड़े मध्यवर्ग को जन्म दिया। यह एक नया मध्यवर्ग था, जो उदारीकरण और वैश्वीकरण...

 ताकि डिग्री लेकर इंजीनियर भटकें नहीं
हरिवंश चतुर्वेदी, डायरेक्टर बिमटेकThu, 18 Jul 2019 12:09 AM
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आईटी इंडस्ट्री और इंजीनिर्यंरग शिक्षा ने सन् 1991 के बाद के दौर में अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और भारत में एक बड़े मध्यवर्ग को जन्म दिया। यह एक नया मध्यवर्ग था, जो उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में हर खुशी को हासिल करने के लिए आत्मविश्वास से सराबोर था। छोटे-बड़े शहरों के युवक-युवतियां इंजीनिर्यंरग शिक्षा के माध्यम से मोटी तनख्वाह पर इन्फोसिस, टीसीएस और विप्रो जैसी कंपनियों में नौकरियां हासिल कर रहे थे। उन्हें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा व यूरोप में काम करने और रहने के मौके मिल रहे थे। पर बीते सोमवार को लोकसभा में मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के एक जवाब से हड़कंप मच रहा है। लोकसभा में प्रश्नोत्तर काल के दौरान उन्होंने बताया कि वर्ष 2017-18 में देश में बीटेक की डिग्री प्राप्त करने वाले 7.93 लाख नौजवानों में से 3.59 लाख को ही कैंपस प्लेसमेंट मिला, जो कुल उत्तीर्ण विद्यार्थियों का करीब 45 प्रतिशत था। मंत्री महोदय के अनुसार, भारत सरकार द्वारा स्थापित व संचालित नामचीन इंजीनिर्यंरग संस्थानों में प्लेसमेंट की हालत इतनी बुरी नहीं थी। 

गौरतलब है कि इंजीनिर्यंरग कॉलेजों से डिग्री लेने वाले सभी विद्यार्थियों को कैंपस प्लेसमेंट मिलने की समस्या ही गंभीर नहीं है, वरन देश के 4,282 इंजीनियरिंग कॉलेजों की एआईसीटीई द्वारा आवंटित सीटें भी अब बमुश्किल आधी भर पा रही हैं। साल 2017-18 में देश के इंजीनिर्यंरग कॉलेजों की 16़.62 लाख सीटों में से सिर्फ 8.19 लाख सीटों पर ही एडमिशन हो पाए। यह कुल आवंटित सीटों के 50 प्रतिशत के बराबर होगा। सीटों का यह प्रतिशत भी सब जगह 50 प्रतिशत नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र के कॉलेजों में तो यह 10 से 30 प्रतिशत के बीच पाया गया है। स्पष्ट है, इन कॉलेजों के पास संस्थान बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। एआईसीटीई भी उन कॉलेजों को बंद करने के पक्ष में है, जहां समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है और लगातार कम एडमिशन होने के कारण आर्थिक तंगी है। इसीलिए उसने फैसला लिया है कि शैक्षणिक सत्र 2020-21 से इंजीनियरिंग कॉलेजों में नई सीटें या कक्षाएं नहीं बढ़ाई जाएंगी। सीटें बढ़ाने के प्रस्तावों पर अब हर दो साल के बाद विचार किया जाएगा।

वर्ष 1991 से 2008 तक देश के इंजीनिर्यंरग कॉलेजों में कैंपस प्लेसमेंट की समस्या अमूमन नहीं आती थी। आईटी और अन्य उभरते उद्योगों की कंपनियां लाखों इंजीनियरों की भर्ती करती रहीं। किंतु साल 2008 की विश्वव्यापी मंदी के बाद भारत में इंजीनिर्यंरग शिक्षा का सूर्य अस्त होने लगा। बावजूद इसके कॉलेजों की संख्या और एआईसीटीई द्वारा आवंटित सीटें लगातार बढ़ती रहीं। मिसाल के तौर पर, वर्ष 2007 में इंजीनिर्यंरग की कुल सीटें छह लाख थीं, जो 2012 तक बढ़कर 12-13 लाख हो गईं। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि जब विश्वव्यापी मंदी में नौकरियों के टोटे हो रहे थे, तब एआईसीटीई ने पांच साल में सीटें दोगुनी कर दीं। 

लोकसभा में मानव संसाधन विकास मंत्री ने माना है कि इंजीनिर्यंरग डिग्रीधारी युवाओं के कैंपस प्लेसमेंट का मुद्दा सीधे तौर पर देश की आर्थिक विकास दर से जुड़ा है। अर्थव्यवस्था की मंदी-तेजी के कारण इसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि पिछले 15 वर्षों (2004-2019) में जब देश की आर्थिक विकास दर औसतन सात प्रतिशत रही है, तो आखिर क्यों रोजगार के अवसरों में होने वाली बढ़ोतरी लगातार सिकुड़ती चली गई? 

इंजीनिर्यंरग कॉलेजों में कैंपस प्लेसमेंट में लगातार गिरावट के कई ऐसे कारण भी हैं, जिनका संबंध सिर्फ अर्थव्यवस्था के हालात से नहीं है। पिछले 25 वर्षों में, खासतौर पर 1995 और 2012 के बीच एआईसीटीई ने नए इंजीनिर्यंरग कॉलेजों के लाइसेंस अंधाधुंध तरीके से बांटे और पहले से चल रहे कॉलेजों की सीटों को बढ़ाने में बहुत उदार रवैया अपनाया। इस अवधि में ऐसा लग रहा था कि रेगुलेटरी संस्था को बाजार की शक्तियों के हवाले कर दिया गया है। शायद इस तथ्य पर गंभीरता के साथ विचार ही नहीं किया गया कि भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था और उद्योगों में किस तरह के संरचनात्मक परिवर्तन आएंगे, जो रोजगार के अवसरों की वृद्धि को धीमा करेंगे? वे शायद यह भी भूल गए थे कि पूरी दुनिया में आईटी उद्योग प्रोफेसर हेनरी मूर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत पर चलेगा, जिसके अनुसार माइक्रो चिप की कंप्यूटिंग शक्ति हर 18 महीने में दोगुनी होती जाएगी और उसकी कीमत आधी रह जाएगी। 

अब सवाल यह है कि हालात को सुधारने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय, एआईसीटीई, कॉलेज प्रबंधन और नियोक्ता कंपनियां क्या कदम उठाएं? सबसे जरूरी कदम तो यह है कि अगले पांच वर्षों में औद्योगिक जगत द्वारा इंजीनियरों की भर्ती, और भविष्य की जरूरतों के बारे में रिसर्च के जरिए मालूम किया जाए कि इंजीनिर्यंरग की अलग-अलग ब्रांचों में कितने इंजीनियरों की जरूरत होगी। चौथी औद्योगिक क्रांति ने विश्व स्तर पर इंजीनियरों में नए कौशल की जरूरत पैदा कर दी है। हमें इंजीनिर्यंरग के अपने पाठ्यक्रम और शिक्षण प्रविधि में इसके अनुरूप बदलाव करने होंगे। यह काम आसान नहीं होगा। इसके लिए इंजीनिर्यंरग शिक्षकों को प्रशिक्षण की अधिक सुविधाएं प्रदान करनी होंगी। 

देश में इंजीनिर्यंरग शिक्षा का कायाकल्प करने का वक्त आ गया है। इसकी परंपरागत शाखाओं, जैसे सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल तथा इलेक्ट्रोनिक इंजीनिर्यंरग की मांग अब रोजगार के बाजार में लगभग खत्म हो चुकी है। इसके विपरीत कंप्यूटर सांइस, एयरोस्पेस इंजीनियरिंग और मेकाट्रोनिक्स अब भी लोकप्रिय बने हुए हैं। चौथी औद्योगिक क्रांति ने आज ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी है कि इंजीनिर्यंरग के हर विद्यार्थी व शिक्षक को नई उभरती प्रौद्योगिकी, जैसे आर्टीफिशियल इंटेंलिजेंस, इंटरनेट ऑफ थिंग, क्लाउड कंप्यूटिंग, डीप लर्निंग, मशीन लर्निंग, थ्रीडी प्रिंटिंग, एनेलैटिक्स और वर्चुअल रियलिटी जैसे विषय दक्ष शिक्षकों द्वारा पढ़ाए जाएं। इंजीनिर्यंरग शिक्षा में हर स्तर पर बुनियादी बदलाव की जरूरत है। इस बदलाव का जरूरी हिस्सा यह हो कि हर इंजीनियर को ‘जीवन भर के लिए विद्यार्थी’ बनाया जाए। उसे अपने आचार-विचार और आचरण में हर समय उद्यमिता व इनोवेशन को अपनाने के लिए प्रेरित-प्रशिक्षित किया जाए। 

अगले तीन दशकों में दुनिया की आबादी 10-12 खरब हो जाएगी। हर रोज इंजीनियरों को नई-नई समस्याओं के हल ढूंढ़ने होंगे, जिनका सबसे अहम पहलू होगा, उनमें एक ऐसा मानवीय तत्व होना, जो उन्हें गलत काम करने और मूल्यहीनता को अपनाने से रोक सके। अगर हम ऐसा कर पाए, तो इंजीनिर्यंरग कॉलेजों में प्लेसमेंट अच्छा न होने की समस्या कभी पैदा नहीं होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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