फिर हिंसा की मंझधार में म्यांमार
पड़ोसी देश म्यांमार का गृह युद्ध 20 अक्तूबर के बाद से और भड़क गया है। देश के उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व के कई इलाकों में जंग की स्थिति बनी हुई है। दक्षिण-पश्चिम के रखाइन प्रांत में भी तेज...
पड़ोसी देश म्यांमार का गृह युद्ध 20 अक्तूबर के बाद से और भड़क गया है। देश के उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व के कई इलाकों में जंग की स्थिति बनी हुई है। दक्षिण-पश्चिम के रखाइन प्रांत में भी तेज संघर्ष हो रहा है, जो भारत के करीब का इलाका है। म्यांमार की सेना ने कुछ जगहों पर हवाई हमले भी किए हैं। खबर है कि सशस्त्र जातीय समूहों ने म्यांमार के कई सैन्य ठिकानों पर कब्जा भी कर लिया है। यह एक त्रिकोणीय-संघर्ष है, जिसमें 10 से अधिक सशस्त्र जातीय गुट, पीपुल्स डिफेंस फोर्स (पीडीएफ) और म्यांमार की सेना लड़ाई के मैदान में हैं। इस गृह युद्ध में लाखों लोग पिछले कुछ दिनों में देश के भीतर ही विस्थापित हुए हैं और कुछ हजार भारतीय सीमा में भी दाखिल हुए हैं। पिछले हफ्ते पीडीएफ द्वारा एक सैन्य ठिकाने पर कब्जे के बाद 40 से अधिक म्यांमार के सैनिक भागकर भारतीय सीमा में घुस आए थे, जिनको बाद में वापस अपने मुल्क भेज दिया गया।
म्यांमार में आंतरिक उथल-पुथल की स्थिति फरवरी, 2021 से ही बनी हुई है, जब वहां की सेना ने चुनाव नतीजों को मानने से इनकार करते हुए तख्तापलट कर दिया और चुनाव जीतने वाली आंग सान सू की व उनकी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के तमाम बडे़ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। यह चुनाव नवंबर, 2020 में हुए थे, जिसमें एनएलडी ने सेना-समर्थित विपक्षी पार्टी को करारी मात दी थी। नतीजतन, उसने एनएलडी पर चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया, जिसके बाद सेना ने संसद शुरू होने से ऐन पहले देश की सत्ता अपने हाथों में ले ली। इसकी प्रतिक्रिया में निर्वाचित सांसदों ने नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट बना ली, जिसकी सेना का नाम पीपुल्स डिफेंस फोर्स है। अब पीडीएफ और सशस्त्र जातीय गुटों (जिनको बागी गुट भी कहा जाता है) में गठबंधन बनता दिखने लगा है। जानकार यह भी मानते हैं कि इन सबसे म्यांमार सेना पर दबाव काफी ज्यादा बढ़ गया है और विशेषकर सीमावर्ती इलाकों पर से उसका नियंत्रण खत्म होता जा रहा है।
म्यांमार की यह दशा भारत की सुरक्षा के लिए भी चिंताजनक है। मीडिया खबरों की मानें (जिनकी पुष्टि नहीं हुई है), तो पिछले कुछ दिनों के भीतर ही म्यांमार से 2,000 से लेकर 5,000 तक लोग सीमा पार करके मिजोरम में दाखिल हुए हैं। वहां बीते दो वर्षों से चिन समुदाय के करीब 30 हजार लोग शरणार्थी कैंपों में रह रहे हैं, जिनका स्थानीय मिजो समाज से गहरा रिश्ता बन चुका है। जाहिर है, जैसे-जैसे म्यांमार में आंतरिक तनाव बढ़ेगा, वहां के बाशिंदों का पलायन तेज होगा, जिससे हमारी आंतरिक्ष सुरक्षा पर भी दबाव बढ़ सकता है। पिछले कुछ वर्षों में म्यांमार से करीब 10 लाख रोहिंग्या का पलायन हुआ ही है, जिसका एक हिस्सा भारत भी आया है।
इसका असर मणिपुर पर भी पड़ सकता है, जहां के हालात पहले ही बहुत अच्छे नहीं हैं। पिछले कुछ महीनों में यहां कुकी और मैतेई समुदायों के लोग जिस तरह आमने-सामने आए हैं, उसके बाद यहां सामाजिक समरसता बनाने में वक्त लग सकता है। पिछले हफ्ते ही भारत सरकार ने कई मैतेई अलगाववादी गुटों पर प्रतिबंध लगाए हैं। दरअसल, ऐसे समूह म्यांमार के सीमावर्ती इलाकों में ही पनाह पाते रहे हैं। भारत और म्यांमार की सीमा चूंकि काफी जटिल हैै और यह नदियों, पर्वत व घाटियों में बंटी हुई है, इसलिए इनको नियंत्रित करना काफी कठिन हो जाता है। यह भी एक वजह है कि पूर्वोत्तर भारत के कई अलगाववादी गुट केंद्र सरकार की कार्रवाई के डर से भागकर म्यांमार चले जाते हैं और फिर वहां से चीन की सीमा में दाखिल हो जाते हैं। लिहाजा, हमें म्यांमार के हालात पर पैनी नजर रखनी होगी। दोनों देशों की सीमा की चौकसी असम राइफल्स के हाथों में है। उसे और अधिक सतर्कता व सजगता दिखानी होगी।
आखिर इन गुटों की मांग क्या है? वास्तव में, म्यांमार के जातीय समूह पिछले पांच-छह दशकों से अपनी सरकार के खिलाफ हैं। वे अपने प्रभाव वाले इलाकों को आजाद करना चाहते हैं। साल 2011 से 2021 तक जब वहां सीमित लोकतंत्र था, तो इन बागी गुटों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया था। इसमें पूरी तरह तो नहीं, पर कुछ हद तक सफलता मिलने लगी थी। मगर 2021 के तख्तापलट ने स्थिति फिर से बिगाड़ दी। अब तो अराकन आर्मी, म्यांमार नेशनल डिफेंस अलायंस आर्मी और ताआंग नेशनल लिबरेशन आर्मी जैसे सशस्त्र समूहों ने आपस में गठजोड़ भी बना लिया है, जिसका नुकसान म्यांमार की सेना को हो रहा है।
इस पूरे घटनाक्रम में बीजिंग की भूमिका की भी विश्लेषक पड़ताल कर रहे हैं। चीन पिछले कई दशकों से म्यांमार में सक्रिय है। उसने वहां काफी ज्यादा निवेश बढ़ाया है। वह कई विद्रोही गुटों की भी मदद करता है, तो म्यांमार सेना से भी उसके काफी अच्छे रिश्ते हैं। मगर अभी जिन क्षेत्रों में लड़ाई चल रही है, उनमें चीन की सीमा से सटे इलाके भी हैं। इसका संकेत यह है कि चीन ने म्यांमार में मेल-मिलाप की जो कवायद की होगी, वह भी परवान नहीं चढ़ सकी।
देखा जाए, तो चीन और रूस ही अभी म्यांमार के मित्र देशों में शुमार हैं। भारत के साथ भी उसके संबंध ठीक है, लेकिन उसके प्रति हमारी सोच संतुलित है। हमारे लिए सुरक्षा एक बड़ा मसला है। दिसंबर, 2021 में हमारे विदेश सचिव और जून-जुलाई, 2023 में हमारे रक्षा सचिव सुरक्षा मुद्दों पर वहां के नेतृत्व से बात करके आए हैं। हम वहां आपसी बातचीत के जरिये अमन लाने के प्रयासों के पक्षधर हैं। म्यांमार आसियान का भी सदस्य राष्ट्र है, लेकिन इस संगठन का दबाव भी उस पर काम नहीं कर रहा।
कुल मिलाकर, म्यांमार अभी एक ऐसी पहेली बन चुका है, जिसे शायद ही कोई सुलझा सकता है। उस पर यूरोपीय संघ और अमेरिका का प्रतिबंध लगा है। पश्चिमी देश उससे खफा हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं वहां हैं भी, तो वे सिर्फ विस्थापित लोगों की मानवीय सहायता करने में सक्रिय हैं। यानी, फिलहाल कोई भी देश, संगठन या संस्था ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह म्यांमार की सेना, बागी गुटों और पीपुल्स डिफेंस फोर्स में सुलह-समझौता करा सके। जाहिर है, अपनी समस्याओं से म्यांमार को खुद ही लड़ना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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