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निगरानी का बढ़ाना होगा दायरा

हमारी सदाशयता का इस्तेमाल किस कदर हमारे खिलाफ किया जा सकता है, ‘कोविड ऐड स्कैम- 2021’ इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस घोटाले का खुलासा करने वाली संस्था ‘डिसइंफो लैब’ की मानें, तो...

निगरानी का बढ़ाना होगा दायरा
सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशनWed, 16 Jun 2021 11:13 PM
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हमारी सदाशयता का इस्तेमाल किस कदर हमारे खिलाफ किया जा सकता है, ‘कोविड ऐड स्कैम- 2021’ इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस घोटाले का खुलासा करने वाली संस्था ‘डिसइंफो लैब’ की मानें, तो कोरोना महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहे भारत को मदद पहुंचाने के नाम पर पाकिस्तान से जुड़े कुछ ‘सेवार्थ’ संगठनों ने बतौर चंदा 150 करोड़ रुपये से अधिक की राशि जमा की और उसका बहुत मामूली हिस्सा ही भारत भेजा। चूंकि इन संगठनों के रिश्ते दहशतगर्दों और उनकी तंजीमों से भी हैं, इसलिए माना जा रहा है कि उन्होंने भारत के नाम पर ‘टेरर-फंडिंग’ की है। मदद के नाम पर धोखाधड़ी का यह कोई पहला मामला नहीं है। ऐसी घटनाएं न सिर्फ मदद की बाट जोहने वालों के साथ क्रूर मजाक हैं, बल्कि उन लोगों के साथ भी छल है, जो मुश्किल वक्त में अपनी उदारता दिखाते हैं। इस घटना के कई पहलू हैं। जब पाकिस्तानी संस्थाओं की तरफ से भारत की मदद का आह्वान किया गया, तब पश्चिमी देशों में आम समझ यही बनी कि दोनों देशों की हुकूमतें बेशक एक-दूसरे के खिलाफ मुखर हों, लेकिन आम जनता का लहू एक ही है। ‘इस्लामिक मेडिकल एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका’ (इमाना) ने इसी का फायदा उठाया। लोगों ने भी दिल खोलकर मदद की, क्योंकि आपदा के वक्त कोई यह नहीं देखता कि मदद मांगने वाले के तार कहां से जुड़े हैं या उसके पीछे कौन सी ताकत किस मंशा से काम कर रही है? भारत के भीतर ही पिछले दिनों ऐसे कई  संगठन सक्रिय रहे, जो कहीं न कहीं खालिस्तानियों से जुडे़ हैं। उन्होंने भी चंदा जमा किए और जरूरतमंदों की मदद की।
बेशक ऐसा लग रहा है कि भारत में मदद पहुंचाने के नाम पर एक बड़ा घपला किया गया है, लेकिन अमेरिकी कानून अन्य देशों की तुलना में काफी सख्त है। वहां ऐसे किसी संगठन से रिश्ते रखना कानूनन अपराध है, जिसे अमेरिकी हुकूमत ने प्रतिबंधित कर रखा है। हमास, लश्कर-ए-तैयबा व हिज्बुल मुजाहिदीन ऐसे ही संगठन हैं, जिनसे इमाना के जुड़े होने के दावे किए जा रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर भारत इस रिपोर्ट की गहराई से पड़ताल करे, और यह जानने की कोशिश करे कि इन कथित सेवार्थ संगठनों का असली मकसद क्या था और यह भी सुनिश्चित करे कि दोषियों को हर-मुमकिन सजा मिले। इसके साथ ही जरूरी यह भी है कि इनकी मदद करने वाली भारतीय तंजीमों की भी पहचान की जाए और उनके विरुद्ध भी आवश्यक कार्रवाई हो। बहरहाल, इस तरह की हरकतों का प्रमुख हथियार सोशल मीडिया है। यह घटनाक्रम बताता है कि जब लोगों की जान सांसत में हो, तब भी असामाजिक तत्व सोशल मीडिया के दुरुपयोग से बाज नहीं आते। इसका यह कतई मतलब नहीं है कि सोशल मीडिया के मंच मानवता के खिलाफ हैं। कोविड-काल में ही हमने देखा है कि किस तरह इसके माध्यमों से जरूरतमंदों ने अपनी मुश्किलों का हल पाया। सोशल मीडिया का इस्तेमाल आतंकियों से संपर्क बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि दुष्प्रचार करने में भी खूब किया जा रहा है। पिछले दिनों फेसबुक ने 40 के करीब उन पेजों पर प्रतिबंध लगाए हैं, जो कहीं न कहीं पाकिस्तानी फौज से जुड़े थे और उन पर ऐसी फर्जी सूचनाएं थीं, जो भारत में उपद्रव फैला सकती थीं। साफ है, पाकिस्तान की तरफ से भारत के खिलाफ मुहिम जारी है और कोरोना जैसी आपदा के समय भी वह सोशल मीडिया द्वारा हमें नुकसान पहुंचाने की जुगत में है। जाहिर है, सोशल मीडिया पर कड़ी निगरानी रखने की जरूरत है और इनको संचालित करने वाली कंपनियों को भी सरकार के साथ मिलकर काम करना चाहिए, क्योंकि इन मंचों का दुरुपयोग न सिर्फ सामाजिक समरसता को चोट पहुंचा सकता है, बल्कि लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़ा कर सकता है। फिर, सवाल यह भी है कि सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले ट्रेंड क्या असलियत बताते हैं, क्योंकि इनमें भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में नरमी आने के संकेत मिलते हैं, जबकि सच यही है कि हमारा पड़ोसी देश अब भी नफरत फैलाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा। रही बात अमेरिका की, तो वहां लोगों को आजादी के मुकम्मल अधिकार हासिल हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वहां सिर्फ दो बंदिशें हैं। पहली, ऑनलाइन मंचों पर ऐसी पोस्ट शेयर नहीं की जा सकती या फिर ऐसी बातें नहीं लिखी जा सकतीं, जिनसे किसी के खिलाफ हिंसा अथवा नफरत फैले। और दूसरी, वहां किसी की मानहानि बर्दाश्त नहीं की जा सकती। अगर ये मामले अदालत में चले जाएं, तो आरोपी को बहुत कड़ी सजा मिल सकती है। इमाना जैसे संगठनों के खिलाफ अमेरिका इसलिए भी सख्त रुख अपना सकता है, क्योंकि ज्यादातर सोशल मीडिया कंपनियां अमेरिका में ही स्थित हैं और वे अमेरिकी सरकार की तरफदारी करती हैं। इसी कारण, यदि अमेरिकी सरकार उनसे कोई सूचना मांगती है, तो वे उसे आसानी से सौंप देती हैं, जबकि अन्य मुल्कों में वे या तो वक्त लेती हैं या फिर हीला-हवाली करती हैं। अमेरिका में ऐसी कुछ संस्थाएं भी सक्रिय हैं, जिनके पास इतनी क्षमता है कि कंपनियां अगर सरकार की मदद न करें, तब भी वे हुकूमत के लिए खुफिया जानकारियां जुटा सकती हैं। ‘बैक-डोर’ का यह रास्ता अमेरिकी शासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत के पास ऐसी क्षमता नहीं है। यहां इन कंपनियों के सर्वर भी नहीं है कि हमारे कानून उन पर आयद हो सकें। फिर भी, हमारी हुकूमत को संजीदगी दिखानी होगी। निगरानी का काम उसे गंभीरता से करना होगा, तभी इमाना जैसे संगठनों की गतिविधियों पर नजर रखी जा सकेगी और उनकी नापाक हरकतों को वक्त रहते रोका जा सकेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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