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जाति, माटी और भेटी का चुनाव

इस बार असम एक दिलचस्प चुनावी मुकाबले का गवाह बनता दिख रहा है। भले ही विधानसभा चुनावों में अभी करीब तीन महीने का वक्त शेष है, लेकिन केंद्रीय नेताओं की बढ़ी चहलकदमी और रैलियों ने राज्य का चुनावी तापमान...

जाति, माटी और भेटी का चुनाव
चंदन कुमार शर्मा, प्रोफेसर,  तेजपुर विश्वविद्यालय, असमTue, 16 Feb 2021 09:22 PM
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इस बार असम एक दिलचस्प चुनावी मुकाबले का गवाह बनता दिख रहा है। भले ही विधानसभा चुनावों में अभी करीब तीन महीने का वक्त शेष है, लेकिन केंद्रीय नेताओं की बढ़ी चहलकदमी और रैलियों ने राज्य का चुनावी तापमान बढ़ा दिया है। यहां विधानसभा की 126 सीटें हैं, पर पश्चिम बंगाल की तरह ही यहां के चुनाव महत्वपूर्ण माने जाते हैं, क्योंकि यहां की जीत पूर्वोत्तर के शेष राज्यों के दरवाजे खोल देती है। निस्संदेह, सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एनडीए ने पिछले पांच साल में कई काम किए हैं। गांवों में सड़कें बनाई गई हैं, बिजली-आपूर्ति की व्यवस्था सुधरी है, स्वास्थ्य सेवाओं में ढांचागत सुधार के काम भी हुए हैं, कोविड-19 से सफल मुकाबला किया गया है और अलगाववादी हिंसा की कमर भी तोड़ी गई है। फिर भी, भाजपा को लोक-लुभावन राजनीति का सहारा लेना पड़ रहा है। पिछले तीन महीने में राज्य के अलग-अलग वर्गों के मतदाताओं के लिए तमाम तरह के वादे किए गए हैं। छात्रों को हॉस्टल खर्च, लड़कियों को स्कूटी, बैंक खाते मंं रकम, महिलाओं को स्वर्ण आभूषण देने जैसी कई घोषणाएं की गई हैं। यही नहीं, पार्टी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास में भी जुटी हुई है। यह साफ संकेत है कि भाजपा अपनी राह आसान नहीं मान रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल के दिनों में यहां दो बार आ चुके हैं और उनके फिर से आने की चर्चा है, जबकि पूर्व भाजपा अध्यक्ष व गृह मंत्री अमित शाह का आना-जाना लगा हुआ है। भाजपा को आखिर खतरा किससे है? यहां विपक्षी दलों में कांग्रेस प्रमुख पार्टी है। बेशक 2016 में सूबे की सत्ता उसके हाथों से निकल गई और 2011 के मुकाबले उसे 52 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन इस बार वह दम-खम के साथ मैदान में है। राहुल गांधी ने 14 फरवरी के अपने असम दौरे में उस नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के मुद्दे को फिर से जिंदा कर दिया, जिसके विरोध का जोरदार आंदोलन कोरोना के कारण ठहर गया था। अपर असम की अपनी रैली में राहुल ने सीएए के विरोध का खुला एलान किया।
यह आह्वान जोखिम भरा भी हो सकता है, क्योंकि 20 फीसदी से अधिक आबादी वाले हिंदू बांग्लादेशी भारतीय इस कानून के पक्षधर माने जाते हैं, मगर इससे भाजपा की रग जरूर दुखने लगी है। 2016 की चुनावी रैलियों में भाजपा ने यही कहा था कि 15 मई (नतीजों का दिन) के बाद बांग्लादेशियों को वापस अपने देश जाना होगा। मगर सीएए ने इन ‘बाहरी’ लोगों को एक ठौर दे दिया है। भाजपा यदि इनको खुश करने के लिए सीएए की वकालत करती है, तो इससे स्थानीय समुदाय उससे नाराज हो सकते हैं। इसी कारण से उसने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। कांग्रेस इसमें अपने लिए उम्मीद देख रही है। वह समझ रही है कि यहां के मूल बाशिंदों में मसला ‘हिंदू बनाम मुसलमान’ नहीं, बल्कि ‘स्थानीय बनाम घुसपैठिए’ है। मगर राज्य में नेतृत्व का संकट कांग्रेस को परेशान कर रहा है। दो क्षेत्रीय पार्टियों ने भी कांग्रेस की राह को मुश्किल बना रखा है। इनमें से एक है, अखिल गोगोई का राइजर दल और दूसरी है, ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) व असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद की समर्थन से बनी असम जातीय परिषद (एजेपी)। आसू का असम में खासा प्रभाव रहा है, पर यह छात्र संगठन राजनीति से परहेज करता है। जिस असम गण परिषद को आसू ने एक समय जन्म दिया था, वह आज राज्य में एनडीए सरकार का हिस्सा है। राइजर दल व एजेपी, दोनों पार्टियां सीएए का विरोध करती हैं और दोनों ने साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है। कांग्रेस, वाम पार्टियां व बदरुद्दीन अजमल के ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के गठबंधन ने (हालांकि अभी इसका आधिकारिक एलान नहीं हुआ है) एनडीए के खिलाफ इन दोनों दलों को भी साथ आने का न्योता भेजा था, लेकिन इन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की तरह एआईयूडीएफ को भी ये पार्टियां सांप्रदायिक मानती हैं। गठबंधन से अपर असम में इन दोनों को नुकसान हो सकता है, जहां के मूल बाशिंदों पर उनका दबदबा है। दिलचस्प यह है कि एआईयूडीएफ भी सीएए का विरोध करता है, और 1985 के असम समझौता और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का समर्थन करता है, जो कि यहां के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।
दरअसल, असम समझौता का छठा प्रावधान स्थानीय समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की वकालत करता है। स्थानीय बाशिंदे इसे लागू करने की मांग करते रहे हैं। मुख्यमंत्री खुद भी कई बार कह चुके हैं कि उनकी सरकार यहां की जनता की ‘जाति, माटी और भेटी’ की रक्षा को संकल्पित है। यहां के लोगों के लिए पुश्तैनी जमीन (भेटी) बहुत मायने रखती है। इसके लिए बाकायदा एक समिति भी बनाई गई, जिसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। मगर चर्चा यही है कि यह रिपोर्ट सरकारी फाइलों में दबा दी गई है और इसे अब तक केंद्र सरकार को नहीं भेजा गया है। इससे मतदाताओं में यही संदेश गया है कि राज्य सरकार असम समझौता लागू करने में आनाकानी कर रही है। कहा तो यह भी जा रहा है कि सीएए और असम समझौते जैसे दूरगामी कार्यों को अंजाम तक न ले जाने के कारण ही भाजपा को आज तमाम तरह की मुफ्त सुविधाएं देने का एलान करना पड़ रहा है। वैसे, इसकी एक वजह चाय बगान के मजदूर भी हैं। अशिक्षित व वंचित तबकों से होने के कारण ये कुछ वर्ष पहले तक कांग्रेस के मजबूत वोट बैंक माने जाते थे। भाजपा इन्हें अपने पाले में करना चाहती है, पर मजदूरी बढ़ाने की इनकी मांग अब तक अधूरी है।
असम में विपक्ष जिस तरह से बंटा हुआ दिख रहा है, उसी तरह सत्तारूढ़ गठबंधन में भी दरारें दिखती हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन की दरार बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के चुनावों में जगजाहिर भी हो गई। पिछले दिनों हुए इन चुनावों में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) भाजपा के साथ गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, पर अध्यक्ष पद के लिए भाजपा ने उसके बजाय एक अन्य बोडो पार्टी यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल का साथ दिया। इसने बोडो राजनीति को बांट दिया है। हालांकि, माना यह भी जा रहा है कि कांग्रेस की संभावनाओं को रोकने के लिए भाजपा ने यह सियासी दांव खेला है, ताकि अल्पसंख्यकों के वोट बीपीएफ के खाते में चले जाएं। बहरहाल, सियासत जो हो, फिलहाल असम में सभी पार्टियां अपने-अपने हितों को लेकर आग्रही दिख रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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