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ऐतिहासिक रिश्तों में महातिर की जिद

मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रथम सिद्धांत की अनदेखी की है। इस सिद्धांत के अनुसार, किसी राष्ट्र या वहां की सरकार का दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल देना तो...

ऐतिहासिक रिश्तों में महातिर की जिद
विवेक काटजू, पूर्व राजदूतWed, 15 Jan 2020 11:14 PM
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मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रथम सिद्धांत की अनदेखी की है। इस सिद्धांत के अनुसार, किसी राष्ट्र या वहां की सरकार का दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल देना तो दूर, उस पर टिप्पणी करना भी गलत माना जाता है। मगर महातिर मोहम्मद ने यही किया, जब उन्होंने मोदी सरकार के कई फैसलों पर, जो देश के आंतरिक राजनीतिक और सामाजिक जीवन से संबंध रखते हैं, तीखी टिप्पणियां कीं। इनमें पिछले वर्ष 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के संबंध में केंद्र सरकार द्वारा लिए गए फैसले भी शामिल हैं और पिछले माह अस्तित्व में आया नागरिकता संशोधन कानून भी।

कोई भी स्वाभिमानी देश ऐसी टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं करता और वह सामने वाले के खिलाफ ऐसे तमाम कदम उठाता है, जो वह उठा सकता है। वह ऐसा इसलिए करता है, ताकि दूसरे पक्ष को यह एहसास दिला सके कि उसकी टिप्पणी उसे कुबूल नहीं है। मोदी सरकार ने भी ऐसा ही किया। महातिर की टिप्पणी को खारिज करते हुए उसने कुछ ऐेसे कदम उठाए, जिनसे भारत की नाराजगी प्रकट हुई। इन कदमों में मलेशिया से मंगाए जाने वाले पाम तेल पर बंदिश लगाने और कुछ इलेक्ट्रॉनिक सामानों के आयात पर रोक शामिल हैं। राजनयिक दृष्टि से ये कदम वाजिब हैं, क्योंकि केंद्र सरकार ने इनके जरिए मलेशिया के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी संदेश दिया है कि भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नाकाबिले बर्दाश्त है।

आखिर महातिर मोहम्मद ने ऐसा क्यों किया? वह भारत की इस प्रतिक्रिया से कुछ परेशान हैं, और अपनी परेशानी उन्होंने जाहिर भी की है। मगर साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा है कि वह गलत को सही नहीं कह सकते और गलत कदमों के खिलाफ अपनी आवाज उठाते रहेंगे। महातिर मोहम्मद का राजनीतिक जीवन निश्चय ही अनूठा रहा है। अपने देश की सियासत पर वह दशकों से असरंदाज हैं। 1981 में उन्हें सबसे पहले प्रधानमंत्री की कुरसी मिली थी और तब उन्होंने तय किया था कि मलेशिया को वह दुनिया के औद्योगिक और विकसित देशों में शुमार करेंगे। 1990 में उन्होंने अगले 30 वर्षों में, यानी 2020 तक अपने देश को पूरी तरह से एक औद्योगिक देश बनाने का लक्ष्य रखा था। उनके इन कामों की बेशक तारीफ की जाएगी, लेकिन एक सच यह भी है कि उनकी कार्यशैली तानाशाही सरीखी रही है। वह अपनी आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं करते और अपने पिछले कार्यकालों में उन्होंने विपक्षी नेता के साथ-साथ अपनी सरकार व पार्टी के कई नेताओं के खिलाफ भी मुकदमे चलाए और उन्हें जेल भेजा। उनके शासनकाल में मलेशिया में मानवाधिकारों का भारी हनन हुआ। 

महातिर ने मलेशिया की ‘भूमि पुत्र’ नीति को भी खूब तवज्जो दी, जिसका संदर्भ मौजूदा तनाव में समझना  लाजिमी है। दरअसल, मलेशिया की अधिकांश जनता और मूल निवासी मलय जाति के हैं। मगर औपनिवेशिक युग में वहां चीन और भारत से लोग भी पहुंचे थे। चीन से आए हुए लोगों ने, खासतौर से 1950 के दशक में अंग्रेजी शासन की विदाई की बाद, मलेशिया के आर्थिक और वाणिज्यिक जीवन पर अपनी पकड़ बनाई, जबकि भारतीय मूल के निवासियों की आर्थिक व राजनीतिक हैसियत बहुत कमजोर रही। वे वहां रबड़ की खेती के लिए ले जाए गए थे। जाहिर है, आजादी के बाद देश की सियासी बागडोर मलय जाति के हाथों में आई। 1960 के दशक में मलेशियाई सरकार और मलय राजनीतिक वर्ग ने यह तय किया कि देश में मलय जाति के हितों को प्राथमिकता दी जाएगी। इसके मद्देनजर यूनाइटेड मलय्ज नेशनल ऑर्गेनाइजेशन पार्टी का गठन किया गया, जिसमें नेतृत्व तो मलय लोगों के हाथों में रहा, लेकिन चीनियों और भारतीयों को भी उसमें शामिल किया गया। महातिर ने इस भूमि-पुत्र नीति को पूरी तरह प्रोत्साहित किया, और अंतरराष्ट्रीय जगत में कभी इसके खिलाफ आवाज उठी भी कि इसकी वजह से भारतीय मूल के निवासियों का विकास बाधित हो रहा है, तो महातिर उसे खारिज करके अपनी नाराजगी जाहिर करते रहे। वह ऐसी टिप्पणियों को मलेशिया के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी मानते थे। विडंबना है कि मलेशिया के मामलों में कोई टिप्पणी उन्हें बर्दाश्त नहीं, लेकिन भारत के अंदरूनी मामलों में दखल उन्हें वाजिब जान पड़ रहा है।

भारत और मलेशिया के संबंध ऐतिहासिक रहे हैं। औपनिवेशिक काल के अंत के साथ दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व के वैश्विक विचार भी मिलते-जुलते रहे। 1962 में चीन के आक्रमण के समय भी मलेशिया के प्रथम प्रधानमंत्री टुंकु अब्दुल रहमान ने भारत का समर्थन किया था। यहां तक कि जब मलेशिया ने भूमि पुत्र नीति अपनाई, तब भारत की प्रतिक्रिया पर उस वक्त की सरकार ने यह आश्वस्त किया था कि भारतीय मूल के लोगों के हितों की हरसंभव रक्षा की जाएगी। मगर प्रधानमंत्री महातिर ने भारत के साथ कभी गर्मजोशी नहीं दिखाई। उनकी दृष्टि में जापान, चीन और दक्षिण कोरिया मलेशिया के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने देश की अर्थव्यवस्था को इन देशों के साथ जोड़ा। 

भारत-मलेशिया आपसी रिश्ते उम्मीद के मुताबिक इसलिए भी आगे नहीं बढ़ सके, क्योंकि महातिर भारत और पाकिस्तान के साथ अपने देश के संबंधों को संतुलित करने में जुटे रहे, जबकि अपनी तरफ से हर भारत सरकार ने मलेशिया के साथ आर्थिक व वाणिज्यिक संबंधों को गति देने का प्रयास किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के तहत इन संबंधों को नई ऊर्जा देने की कोशिश की। पूर्व प्रधानमंत्री नजीब रजाक के दौर में दोनों देशों के रिश्तों में अच्छा-खासा विकास हुआ था। तब मलेशिया की कंपनियों में भारत ने निवेश किया और रक्षा क्षेत्र में भी सहयोग खूब बढ़ा। नजीब भारत की क्षमता समझते थे और वह यह भी चाहते थे कि मलेशिया के भविष्य पर चीन हावी न होने पाए। मगर 2018 के चुनाव में महातिर मोहम्मद की फिर से ताजपोशी और भ्रष्टाचार के मामलों में नजीब रजाक की गिरफ्तारी के बाद भारत और मलेशिया के रिश्ते पटरी से उतरते हुए दिख रहे हैं। बेशक महातिर की जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने मलेशिया जाकर दोनों देशों के आपसी रिश्तों को बरकरार रखने के संकेत दिए, मगर महातिर अपने पुराने रवैये पर ही कायम जान पड़ते हैं। भारत के साथ संबंध बढ़ाने में शायद उनकी रुचि नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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