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हालात जल्दी संभल जाएंगे, लेकिन...

कोरोना संक्रमण में तेज उछाल आने के बाद अस्पतालों पर काफी दबाव बढ़ गया है। ऑक्सीजन, बेड की कमी के साथ-साथ जरूरी दवाओं के अभाव की खबरें सुर्खियां बनने लगी हैं। इस तरह की सूचनाएं समाधान तलाशने के बजाय...

हालात जल्दी संभल जाएंगे, लेकिन...
जुगल किशोर, वरिष्ठ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञThu, 15 Apr 2021 10:38 PM
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कोरोना संक्रमण में तेज उछाल आने के बाद अस्पतालों पर काफी दबाव बढ़ गया है। ऑक्सीजन, बेड की कमी के साथ-साथ जरूरी दवाओं के अभाव की खबरें सुर्खियां बनने लगी हैं। इस तरह की सूचनाएं समाधान तलाशने के बजाय हमें डराती ज्यादा हैं। यह सही है कि कोरोना की दूसरी लहर से बच जाने की हमारी मिथ्या कल्पना, लंबे समय तक शहरी इलाकों में वायरस के सक्रिय रहने से उसमें हुआ ‘म्यूटेशन’ और दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, ब्रिटेन जैसे ‘वैरिएंट’ के प्रसार के कारण देश की आज यह हालत हुई है, और रोजाना के नए मरीजों की संख्या दो लाख के आंकडे़ को पार कर चुकी है। मगर, हालात अब भी संभाले जा सकते हैं।
अभी कोरोना जांच और इलाज में जो व्यावहारिक दिक्कतें हो रही हैं, उसकी कई वजहें हैं। दरअसल, सितंबर, 2020 के बाद जब संक्रमण में ढलान दिखने लगा था, तब हमें यही लगा कि हमने बुरा दौर देख लिया है, और हम निश्चिंत होने लगे। मार्च, 2020 की तुलना में भले ही जांच की रफ्तार काफी बढ़ गई थी, पीपीई किट व मास्क वगैरह देश में ही बनने लगे थे, और टीका-निर्माण में भी हमने सफलता पा ली थी, लेकिन अपने देश की एक नियति यह भी है कि तमाम सुविधाएं अमूमन शहरों में सिमटकर रह जाती हैं। ग्रामीण भारत में आज भी बहुत कम जांच हो रही है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सैंपल को जांच के लिए काफी दूर भेजा जाता है। इसकी एकमात्र वजह यही है कि आरटी-पीसीआर लैब हर जगह मौजूद नहीं है। नतीजतन, दूसरी लहर में जब संक्रमण विशेषकर नए इलाकों (ग्रामीण हिस्सों) में फैला, तब वहां के सैंपल अत्यधिक मात्रा में शहरी लैब में पहुंचने लगे। शहरों में संक्रमण पहले से था। फिर, हल्का सर्दी-जुकाम होने पर भी हम तुरंत आरटी-पीसीआर टेस्ट कराने को उत्सुक होने लगे। जिन्हें कोरोना का कोई लक्षण नहीं था, वे भी ट्रेसिंग के नाम पर टेस्ट कराने लगे। इन सब वजहों से जांच-घर पर काफी ज्यादा बोझ बढ़ गया, और जो आरटी-पीसीआर रिपोर्ट 24 घंटे के अंदर मिल जाती थी, अब 48 या 72 घंटों के बाद मिलने लगी है।
इस संकट से पार पाने का यही उपाय है कि जिन लोगों में कोरोना के लक्षण नहीं हैं, वे आरटी-पीसीआर टेस्ट  न कराएं। वैसे भी, अपने यहां 99 फीसदी मरीज मामूली रूप से बीमार हैं। ये खुद-ब-खुद या मामूली इलाज से ठीक हो सकते हैं। अगर वे बेहिसाब टेस्ट कराते रहेंगे, तो रिपोर्ट में देरी गंभीर मरीजों के लिए घातक हो सकती है। फिर, अस्पतालों की भी दुविधा है कि वे ऐसे मरीजों को सामान्य वार्ड में रखें या कोरोना वार्ड में। लिहाजा, बिना लक्षण या मामूली लक्षण वाले मरीजों को थोड़ी समझदारी दिखानी चाहिए। ऐसे मरीजों या ‘ट्रेसिंग’ के लिए रैपिड एंटीजेन टेस्ट किए जा सकते हैं। यह जांच उन गंभीर मरीजों की भी हो सकती है, जो आरटी-पीसीआर टेस्ट के नतीजे का इंतजार कर रहे हैं। यह सही है कि एंटीजेन टेस्ट की अपनी कुछ कमियां हैं, लेकिन मौजूदा स्थिति में उस पर भरोसा कारगर हो सकता है। हम चाहें, तो एंटीजेन टेस्ट में निगेटिव आने वाले उन मरीजों की आरटी-पीसीआर जांच कर सकते हैं, जिनमें कोरोना के लक्षण दिख रहे हैं। यह हम सभी को समझना होगा कि जांच-घर की पर्याप्त संख्या होने के बावजूद हर जगह आरटी-पीसीआर की सुविधा नहीं है। इतना ही नहीं, सितंबर के ‘पीक’ में भी हम रोजाना 60 हजार के करीब आरटी-पीसीआर जांच कर रहे थे, जिसकी संख्या बढ़ाकर अब एक लाख कर दी गई है। रही बात अस्पतालों में बेड की, तो पिछली बार इस मोर्चे पर खासा मेहनत की गई थी। कई सारे अस्पतालों को पूरी तरह से कोविड अस्पताल बना दिया गया था। मगर एक सच यह भी है कि उस वक्त हम इन अस्पतालों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर सके थे। कई बेड खाली ही रहे। इसके कारण दूसरी बीमारियों से पीड़ित मरीजों को काफी परेशानी उठानी पड़ी थी। इस बार इसका ख्याल रखा जा रहा है। जरूरत के हिसाब से बेड की संख्या बढ़ाई जा रही है। जहां जरूरत न हो, वहां आम मरीजों को भी दाखिला मिलना चाहिए। संभव हो, तो एक नियंत्रण कक्ष बनाया जा सकता है, जो बेड के बंटवारे पर नजर रखे और उसे नियंत्रित करे। बेड की खपत को कम करने के लिए मामूली लक्षण वाले मरीजों को उनके घर में ही आइसोलेट (अलग-थलग रखकर इलाज करना) किया जा सकता है। अभी उच्च व मध्यम वर्ग में संक्रमण ज्यादा दिख रहा है। इस तबके के मरीज माली तौर से सक्षम होते हैं, इसलिए तुरंत निजी अस्पताल पहुंच जाते हैं। इससे गंभीर मरीजों को परेशानी हो सकती है। निजी अस्पतालों में कुप्रबंधन की शिकायतें भी आम हैं, इसलिए उन पर मरीजों का बोझ नहीं बढ़ना चाहिए। गंभीर मरीजों को ही अस्पतालों में दाखिला मिले, बाकी मरीजों के लिए डॉक्टरों के ‘होम विजिट’ की सुविधा हो। एक नियंत्रण कक्ष भी बनाया जा सकता है, जिसमें पर्याप्त संख्या में विशेषज्ञ डॉक्टर मौजूद हों और वे फोन पर मरीजों को उचित सलाह दें। उनकी चिंताओं को सुनकर उन्हें मानसिक तौर पर मजबूत भी बनाएं। घर के माहौल में मरीज कहीं बेहतर तरीके से ठीक हो सकता है। वैसे भी, गंभीर मरीजों की संख्या कम है। उन्हें बेहतर प्रबंधन से संभाला जा सकता है। इन दिनों सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) की वकालत भी खूब की जा रही है। देखा जाए, तो अभी निजी अस्पताल इसी व्यवस्था के तहत काम कर रहे हैं। वे कोविड मरीजों को इलाज देने के साथ-साथ टीकाकरण अभियान को भी गति दे रहे हैं। बेशक वहां कुछ अलग तरह की दिक्कतें हैं, लेकिन सार्वजनिक-निजी भागीदारी तब कारगर होगी, जब निजी अस्तपालों में कोविड मरीज न हों और उनकी सुविधाओं का सरकार अपने हित में इस्तेमाल करे। फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है। हां, गंभीर रोगियों को अपने यहां दाखिला देकर वे सरकार का सहयोग कर सकते हैं। अपने यहां कुप्रबंधन के कारण मौतों की संख्या बढ़ी है। सरकार अपनी तरफ से इसे कम करने की कोशिश कर रही है। उम्मीद है, जल्द ही हालात बेहतर बन जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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