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अतिरेक के बाजार में लुट रहा विवेक

दुनिया भर में दक्षिण के उभरने का एक परिणाम यह भी हुआ है कि विश्वमत बुरी तरह से विभक्त हो गया है। काले और सफेद के बीच भूरा रंग कहीं गुम हो गया है। लोग या तो आपके साथ हैं या आपके खिलाफ। उन तमाम लोगों...

अतिरेक के बाजार में लुट रहा विवेक
Pankaj Tomarविभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीTue, 14 Nov 2023 10:49 PM
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दुनिया भर में दक्षिण के उभरने का एक परिणाम यह भी हुआ है कि विश्वमत बुरी तरह से विभक्त हो गया है। काले और सफेद के बीच भूरा रंग कहीं गुम हो गया है। लोग या तो आपके साथ हैं या आपके खिलाफ। उन तमाम लोगों की प्रतिक्रिया, जिनसे चुनौती भरे मौकों पर भी अपना धैर्य और संतुलन बनाए रखने की उम्मीद की जा सकती है, आपको निराश कर सकती है। गाजा की हालिया घटनाओं में यही हुआ। फलस्तीन विवाद के इतिहास में झांकने से स्पष्ट हो जाएगा कि वर्षों के खूनखराबे के बाद पिछले तीन-चार साल के दौरान इसका एक ऐसा हल निकलने की सबसे अधिक संभावना हो गई थी, जो दोनों पक्षों के बड़े हिस्सों को मान्य होता। मगर 7 अक्तूबर, 2023 को सुबह सबेरे इजरायल के रिहायशी इलाकों पर हमास ने हमला करके डेढ़ हजार से अधिक लोगों को मारने और 250 से अधिक नागरिकों के अपहरण के साथ इसे काफी हद तक दूर की कौड़ी में तब्दील कर दिया।
पूरा विश्व इस समय यहूदी और मुस्लिम खेमों में बंट गया है। हर कोने में, खासतौर से यूरोप और अमेरिका की सड़कों पर उत्तेजित प्रदर्शनकारियों के जुलूस निकल रहे हैं। शुरुआत में तो फलस्तीन समर्थक भारी पड़े, पर अब यहूदी भी काफी बड़ी तादाद में बाहर निकलने लगे हैं। पेरिस में तो एक प्रदर्शन में एक लाख से अधिक लोग इजरायल के पक्ष में सड़कों पर थे। कई स्थानों पर दोनों पक्षों के लोग एक-दूसरे से भिड़ंत की हद तक करीब आ गए। पश्चिमी देशों के लिए यह एक ऐसी अप्रत्याशित स्थिति थी, जिसके लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं हैं। अपेक्षा के अनुसार, पश्चिमी देशों की ज्यादातर सरकारें इजरायल के पक्ष में खड़ी हैं। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन समेत कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष तेल अवीब जाकर इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के साथ अपनी एकजुटता का सार्वजनिक प्रदर्शन भी कर आए हैं। इनके बरक्स, मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी और अरब लीग भी अपने सम्मेलन करके इजरायल के खिलाफ तड़क-भड़क चुके हैं।
इस बार विवेकी नहीं, अतिरेकी विमर्श हो रहा है। जो फलस्तीनियों के पक्ष में हैं, वे अपनी चर्चा में 7 अक्तूबर का जिक्र ही नहीं करते या करते भी हैं, तो उसे किसी क्रांतिकारी घटना की तरह चित्रित करते हैं। इसी तरह इजरायल समर्थक भूल जाते हैं कि 1,500 लोगों की हत्या या 250 नागरिकों के अपहरण के एवज में 15 हजार से अधिक लोगों का वध किसी भी तरह से जायज प्रतिक्रिया नहीं कही जा सकती। हाल ही में केरल में फलस्तीन पर आयोजित एक सम्मेलन में जब शशि थरूर ने इजरायली कार्रवाई की निंदा के साथ 7 अक्तूबर के हमास के हमले को आतंकी हमला करार दे दिया, तो उन्हें ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, जो इस कार्यक्रम की आयोजक भी थी, के नेताओं का कड़ा विरोध सहना पड़ा। उनमें से एक ने तो यहां तक कहा कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद अंग्रेज सरकार के लिए भले आतंकी थे, पर भारतीयों के लिए तो स्वतंत्रता सेनानी ही थे। वे बड़ी आसानी से यह भूल गए कि भगत सिंह या चंद्रशेखर आजाद ने कभी भी अंग्रेज महिलाओं या बच्चों की हत्या नहीं की थी। भगत सिंह ने तो केंद्रीय असेंबली में बम भी इस तरह से फेंका था कि उससे किसी मनुष्य की जान न जाए। इसी तरह की अतिरेकी प्रतिक्रिया अल जजीरा जैसे अपेक्षाकृत संतुलित चैनल पर भी देखने को मिली। मुझे 8 या 9 अक्तूबर की उनकी रपटों को देखकर निराशा हुई, उसके लिए 7 अक्तूबर के हमलों के दौरान हमास के लड़ाके ‘शहीद’ हो रहे थे और यहूदी मारे जा रहे थे। 
इसके उलट यहूदी समर्थक तमाम चैनल हैं, जिनके मन में रत्ती भर संशय नहीं था कि लड़ाई शुरू हमास ने की है और यह तब तक नहीं खत्म की जा सकती, जब तक उसका पूरी तरह से खात्मा नहीं हो जाता। जाहिर है, इस खात्मे की कीमत हजारों लोगों को अपनी जान से चुकानी पड़ेगी और वे चुका रहे हैं। पूरे गाजा शहर में मीलों लंबी सुरंगों का जाल बिछा हुआ है गाजा मेट्रो नाम से विख्यात, इनका इस्तेमाल हमास के लड़ाके करते हैं। इनको नष्ट करना इतना आसान भी नहीं है। एक महीने से अधिक हो गया है और इजरायली बम या मिसाइल गाजा के नागरिक इलाकों पर बरस रहे हैं। अब तक एक तिहाई गगनचुंबी इमारतें जमींदोज हो चुकी हैं और हजारों लोग मारे जा चुके हैं। अब निशाने पर अल शिफा जैसे गाजा के सबसे बड़े अस्पताल हैं। इजरायल का दावा है कि हमास ने इस स्वास्थ्य केंद्र के नीचे तहखानों और सुरंगों में अपने कमांड सेंटर बना रखे हैं और हथियारों के जखीरे वहां जमा हैं। हमारे पास सच्चाई जानने का कोई जरिया नहीं है और हम असहाय नवजात शिशुओं को मरते हुए देखने के लिए अभिशप्त हैं।
अमेरिका और दूसरे पश्चिमी राष्ट्र इजरायल से युद्ध-विराम की अपील जरूर कर रहे हैं, पर उनका कोई असर नहीं पड़ रहा है। लगता है, यह भी नूरा कुश्ती की तरह है। विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है कि इजरायल अपनी शक्ति के मुख्य स्रोत अमेरिका की सलाह को इतनी आसानी से ठुकरा सकता है। बहरहाल, सच्चाई यह है कि बुरी तरह से विभक्त आज की दुनिया में विवेक के स्वर नक्कारखाने में तूती की तरह हो गए हैं, और हम असहाय खड़े निरपराध लोगों को मरते देख रहे हैं।  7 अक्तूबर को यहूदी औरतें, बच्चे और बूढ़े मारे गए और उसके बाद से ही मुसलमान नागरिक और उनमें भी अस्पतालों में इलाजरत रोगी स्त्री, पुरुष और नवजात बच्चे मारे जा रहे हैं। इस बात का फैसला कभी बाद में हो सकेगा कि शुरुआत किसने की थी, पर इस समय तो सबसे पहली प्राथमिकता युद्ध रोकने की है।
इतिहास में बहुत सी घटनाएं ऐसी हो जाती हैं, जिनको बहुत चाहते हुए भी पलटा नहीं जा सकता। भारत के ही संदर्भ को लें, तो हमारे देश का विभाजन ऐसी ही एक परिघटना है। इतिहास की इसी प्रवृत्ति को समझने के लिए ‘हिस्टॉरिकल डिटरमिनिज्म’ शब्द का प्रयोग होता है। अरब दुनिया में इजरायल का जन्म भी इसी का उदाहरण है। अच्छी बात है कि हमास या हिज्बुल्लाह जैसे अतिवादी संगठनों को छोड़कर ज्यादातर मुस्लिम दुनिया इस तथ्य को स्वीकार करने लगी है। ईरान के अलावा कोई दूसरा महत्वपूर्ण इस्लामी राष्ट्र नहीं बचा है, जो फलस्तीन और इजरायल, दो स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्रों की संभावना के पूरी तरह से खिलाफ है। यही एक हल है, जल्दी से जल्दी युद्ध रोककर इसे हासिल करने का प्रयास करना चाहिए।
    (ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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