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अधिकार से अदालत तक असर

केवल युद्धों की वजह से इतिहास का प्रवाह और भूगोल नहीं बदलता। महामारियों और आर्थिक कारणों से भी इतिहास के प्रवाह की दिशा बदल जाती है। वर्ष 1665 का लंदन का प्लेग और 1930 के दशक की आर्थिक मंदी गवाह है...

अधिकार से अदालत तक असर
हरबंश दीक्षित, सदस्य, उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोगThu, 14 May 2020 08:36 PM
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केवल युद्धों की वजह से इतिहास का प्रवाह और भूगोल नहीं बदलता। महामारियों और आर्थिक कारणों से भी इतिहास के प्रवाह की दिशा बदल जाती है। वर्ष 1665 का लंदन का प्लेग और 1930 के दशक की आर्थिक मंदी गवाह है कि पूरे विश्व की चिंतनधारा का रुख बदल गया। ब्रिटेन उस समय दुनिया का सबसे ताकतवर देश था। उस महामारी ने औद्योगिक क्रांति से लेकर दास प्रथा तक को प्रभावित किया। उसी तरह, 1930 के दशक की आर्थिक मंदी ने दुनिया की आर्थिक-संस्कृति में व्यापक बदलाव किया। व्यापार करने के अधिकार पर सरकारी नियंत्रण की शुरुआत हुई। इन घटनाओं ने कानूनी ढांचे और न्याय-दर्शन को भी प्रभावित किया। अमेरिका में तो सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों ने इसलिए त्यागपत्र दे दिया कि उनकी अंतरात्मा नए सरकारी नियंत्रण को स्वीकार नहीं कर रही थी और वे मानते थे कि मंदी से बाहर निकलने के लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं था। 
कोई भी आजादी समाज-निरपेक्ष नहीं हो सकती। जब समाज में शांति और स्थिरता है, तो आजादी का दायरा बढ़ जाता है, लेकिन विपदा के समय में वह कम हो जाता है। गणित की भाषा में कहें, तो आजादी सामाजिक शांति की समानुपाती होती है। सामाजिक हितों की रक्षा के लिए उस पर विधि-सम्मत प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। कोविड-19 में 1665 के प्लेग और 1930 की आर्थिक मंदी के कुप्रभावों का खतरनाक गठबंधन है। यह समाज के हर आयाम को प्रभावित करेगा। कानूनी ढांचा और न्याय प्रक्रिया बिल्कुल बदले स्वरूप में होगी और आजादी व न्याय के नए रास्ते बनेंगे। सबसे बड़ा प्रभाव व्यक्तिगत आजादी पर पड़ेगा। चूंकि सरकार की पहली जिम्मेदारी है कि वह लोगों के जीवन व स्वास्थ्य की रक्षा करे। आज परिस्थितियां ऐसी हैं कि इस वायरस का फैलाव को रोकने के लिए लोगों की आवाजाही, मेल-मिलाप, पहनावा और दूसरे सामाजिक आचरणों का नियमन करना होगा। इससे राज्य के अधिकार बढ़ेंगे तथा हमारे अनुच्छेद 21 की दैहिक स्वतंत्रता का विस्तार कम होगा। 
संविधान हमें यह मूल अधिकार देता है कि मजिस्ट्रेट की अनुमति के बगैर किसी व्यक्ति को 24 घंटे से ज्यादा समय के लिए निरुद्ध नहीं किया जा सकता, लेकिन कोरोना संकट के समय ऐसा करना पड़ रहा है। संक्रमण की आशंका के आधार पर पुलिस किसी को रोक सकती है, मेडिकल जांच से गुजरने को बाध्य कर सकती है तथा जरूरत पड़ने पर क्वारंटीन कर सकती है और इसके लिए मजिस्ट्रेट की अनुमति की जरूरत नहीं है। इस महामारी का असर धार्मिक आजादी पर भी पड़ना लाजिमी है। संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक आजादी दी गई है। हर व्यक्ति को अपनी धार्मिक मान्यता के मुताबिक आचरण करने और यहां तक कि उसे प्रचारित करने का अधिकार है। सामूहिक रूप से पूजा-नमाज इस अधिकार का अभिन्न भाग है। लेकिन कोविड-19 से जो हालात बने हैं, उनमें यह बिल्कुल संभव नहीं। कठोर प्रतिबंधों की जरूरत पड़ी है। सामूहिक पूजा-अर्चना को रोकना पड़ा है और आने वाले समय में इसमें जरूरत के मुताबिक परिवर्तन आएगा। 
इस महामारी का निजता के अधिकार पर अभूतपूर्व प्रभाव पड़ेगा। हरेक सभ्य समाज अपनी निजता के प्रति आग्रही होता है। संक्रमण रोकने के लिए हमें अपनी आजादी से कुछ समझौता करना ही होगा। कुछ आपत्तियां आई हैं, मगर वक्त का प्रवाह ऐसा है कि निजता के अधिकार के मौजूदा विस्तार से समझौता करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
कोविड-19 का प्रभाव न्यायिक प्रक्रिया पर पड़ना ही है। अदालती प्रक्रिया में युगांतकारी परिवर्तन दस्तक दे रहा है। पिछले तीन सौ वर्षों में विकसित बहस करने की संस्कृति में लंबे समय के लिए परिवर्तन हो सकता है। हालात देखते हुए सर्वोच्च अदालत ने ड्रेस-कोड में परिवर्तन किया है और संक्रमण के खतरे को कम करने के लिए कोट और गाउन के बगैर अदालत में पेश होने का निर्देश जारी किया है। हालांकि इतना ही पर्याप्त नहीं है। बहस के लिए वर्चुअल माध्यमों का प्रयोग बढ़ाना अपरिहार्य है और चूंकि वर्चुअल तौर-तरीकों की अपनी तकनीकी और दूसरी समस्याएं हैं, इसलिए अपनी बहस को लिखित रूप में देने और जरूरत पड़ने पर प्रतिपक्षी अधिवक्ता की दलीलों के प्रति-उत्तर और उनके स्पष्टीकरण को भी लिखित रूप में देने की संस्कृति विकसित करनी होगी। निस्संदेह, यह एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें अलग तरह की विशेषज्ञता की दरकरार होगी। इसमें सिर्फ अदालतों और अधिवक्ताओं की ही नहीं, अपितु न्याय चाहने वाले आम नागरिक को सूचित और प्रशिक्षित करना होगा। फौरी तौर पर आम आदमी को इससे गंभीर कठिनाइयों का सामना करना होगा और इस चुनौती से निपटने के लिए व्यापक रणनीति की जरूरत है।  
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मूल अधिकारों पर सरकार द्वारा लगाए गए सभी प्रतिबंध संविधान के अलावा 1897 के महामारी अधिनियम तथा 2005 के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के अंतर्गत लगाए गए हैं। महामारी अधिनियम 1897 के अंतर्गत हर राज्य को अधिकार है कि वे परिस्थितियों से निपटने के लिए ‘अस्थाई नियम’ बना सकते हैं। इस मामले में हम अभी बहुत पीछे हैं। नियम जब स्पष्ट होते हैं, तो पारदर्शिता बढ़ती है और कर्मचारियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग की आशंका कम होती है। 
मनुष्य की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह हर कठिनाई से उबरने का जज्बा रखता है। इसी विशेषता के कारण वह हर बार पहले से मजबूत होकर उभरा है। लंदन की महामारी से उबरकर इंग्लैंड विश्व की बड़ी महाशक्ति बना तथा आर्थिक मंदी से निपटने की कुशल रणनीति ने अमेरिका को सबसे बड़ी महाशक्ति की कतार में ला दिया। इस तरह की असाधारण परिस्थितियों पर काबू पाने और उसे अवसर में बदलने में किसी भी देश का राष्ट्रीय जनमानस सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। कोई भी देश केवल संविधान या कानून के बल पर बड़ा नहीं होता। वह अपने देशवासियों के जज्बे से महान बनता है। समाज एकजुट होकर जब इस तरह की चुनौतियों का सामना करता है, तो समाज का प्रवाह सकारात्मक रुख लेता है। आज आवश्यकता है कि राष्ट्र के रूप में हम एकजुट होकर अपने वर्तमान को सकारात्मक दिशा  दें। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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