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फिर जिंदगी को तरजीह देने का वक्त

देश में कोरोना की दूसरी लहर बेलगाम हो गई है। रोजाना के नए मामले 1.80 लाख का आंकड़ा पार कर चुके हैं। कई बडे़ शहरों में लॉकडाउन जैसी कड़ाई भी शुरू हो गई है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की हालत काफी...

फिर जिंदगी को तरजीह देने का वक्त
अरुण कुमार, अर्थशास्त्रीWed, 14 Apr 2021 10:28 PM
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देश में कोरोना की दूसरी लहर बेलगाम हो गई है। रोजाना के नए मामले 1.80 लाख का आंकड़ा पार कर चुके हैं। कई बडे़ शहरों में लॉकडाउन जैसी कड़ाई भी शुरू हो गई है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की हालत काफी चिंतित करने वाली है। उत्तर प्रदेश में भी उन जिलों में लॉकडाउन लगाने की वकालत की जा रही है, जहां स्थिति गंभीर है। इन सबको देखकर महानगरों के प्रवासी मजदूर फिर से अपनी जन्मभूमि की ओर लौटने लगे हैं। इससे असंगठित क्षेत्र के साथ-साथ संगठित क्षेत्र पर भी खासा दबाव बढ़ गया है। अर्थव्यवस्था के फिर से लुढ़कने का अंदेशा है। लिहाजा, सभी की यही चिंता है कि बिगड़े हालात कैसे संभाले जाएं?
पिछली बार जब 68 दिनों का देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था, तब अर्थव्यवस्था को आघात लगने के साथ ही आम लोगों पर भी गहरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा था। इसका हमें सबक लेना चाहिए था। मगर हमने यही देखा कि दिवाली, बिहार चुनाव और किसान रैलियों के बावजूद कोरोना के मामले कम आए। इससे लोगों का हौसला बढ़ता गया, और वे करीब-करीब बेपरवाह हो गए। यह आलम तब था, जब हमें पता था कि हर महामारी का दूसरा दौर आता है, जो पहले चरण से कहीं ज्यादा घातक होता है। पिछली सदी के स्पेनिश फ्लू का अनुभव भी हमारे पास था, और अक्तूबर-नवंबर के महीनों में ब्रिटेन, ब्राजील, अमेरिका जैसे तमाम देशों में कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे चुकी थी। फिर भी, हमने सुरक्षा-उपायों की अनदेखी जारी रखी। रेमडेसिविर जैसी दवाओं का उत्पादन कम कर दिया, और जिस टीकाकरण की ओर हमें पिछले साल के जून-जुलाई महीने में ही कदम बढ़ाने चाहिए थे, जनवरी 2021 में हमने टीके का ऑर्डर दिया। कोविड-19 वायरस के नए ‘वेरिएंट’ को समझने के लिए जीनोम टेस्टिंग की जरूरत भी नहीं समझी। ‘ट्रेसिंग’ (संक्रमित के संपर्क में आए लोगों की पहचान) में तो लापरवाह रहे ही।
अब चूंकि संक्रमण देश में काफी ज्यादा फैल गया है, इसलिए नए सिरे से रणनीति बनाने की दरकार है। चुनावी रैलियां और कुंभ जैसे बडे़ आयोजन ‘सुपर स्प्रेडर’ साबित हो सकते हैं और अगले चार-पांच हफ्तों में इसका असर दिखने लगेगा। इसको रोकने के लिए करोड़ों लोगों की ट्रेसिंग की जरूरत है, जो संसाधनों की कमी के कारण संभव नहीं। अभी टीकाकरण से भी ‘हर्ड इम्यूनिटी’ मुमकिन नहीं, क्योंकि इसके लिए हमें हरेक महीने औसतन 14 करोड़ टीके लगाने होंगे। आपात स्थितियों में कुछ विदेशी टीकों को मंजूरी देने से टीकाकरण में गति आने और टीके की कमी से पार पाने में मदद मिल सकती है, लेकिन आदर्श स्थिति को पाना फिलहाल मुश्किल जान पड़ता है। ऐसे में, लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है। अगर तुरंत देशव्यापी तालेबंदी नहीं की गई, तो हालात और खराब हो सकते हैं। ब्राजील का उदाहरण हमारे सामने है। वहां लॉकडाउन को लेकर की गई हीला-हवाली से हालात इतने बिगड़ गए कि कोरोना संक्रमण और मौत के मामले में वह दूसरे स्थान पर पहुंच गया। अमेरिका में भी पिछले साल तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लॉकडाउन की अनदेखी की, जिसके कारण वहां संक्रमण काफी तेजी से फैला, जबकि उसके पास विश्व की सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा है। स्पष्ट है, जिसने शुरू में ध्यान नहीं दिया, वहां हालात बिगडे़ और जहां संजीदगी दिखाई गई, वहां अब अर्थव्यवस्था खुलने लगी है। चीन इसका एक बड़ा उदाहरण है।
तीन हफ्ते का देशव्यापी और प्रभावशाली लॉकडाउन आज की जरूरत है। चुनावी जलसों पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। वैसे भी, ज्यादातर जगहों पर मतदान हो चुके हैं। आवागमन भी बंद कर देने चाहिए, क्योंकि लोग अब वायरस ढोने लगे हैं। ऐसी रिपोर्टें भी हैं कि जिन लोगों को टीका लग गया, वे भी करियर साबित हो रहे हैं। लिहाजा, तमाम सुरक्षा उपायों के साथ लॉकडाउन लगना ही चाहिए। अगर फरवरी या मार्च में सख्त प्रतिबंध लगा दिए गए होते, तो शायद यह नौबत नहीं आती। महाराष्ट्र में हुई अनदेखी का नतीजा हम भुगत ही रहे हैं। हालांकि, वहां के लॉकडाउन सरीखे प्रतिबंध खासा मानवीय हैं, जिनकी तारीफ की जानी चाहिए।
अच्छी बात यह है कि हमारे पास खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार है। लॉकडाउन-1 से सबक लेकर हमें इस बार हर गरीब और वंचित को मुफ्त में भोजन उपलब्ध कराना होगा। इसी तरह, जहां-जहां जनसंख्या घनत्व ज्यादा है, वहां लोगों के बीच शारीरिक दूरी बढ़ाने के लिए उन्हें नजदीकी स्कूल-कॉलेज में अस्थाई आसरा देना होगा। नगदी की सहायता भी नियमित तौर पर जरूरतमंदों तक पहुंचनी चाहिए। हमें महाराष्ट्र की तरह पूरे देश में व्यवस्था करनी होगी, जहां दुकान व व्यावसायिक प्रतिष्ठान खुले तो रहें, लेकिन जरूरत के वक्त ही लोगों को घरों से बाहर निकलने के निर्देश हों। प्रवासी मजदूरों को भी वापस भेजने की माकूल व्यवस्था करनी होगी। इससे पिछली बार की तरह अफरा-तफरी नहीं मचेगी। लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था पर तो बुरा असर पडे़गा, लेकिन जब सांसत में जान हो, तब कुछ चीजों से आंखें मूंद लेने में ही समझदारी है। ब्रिटेन ने यही रणनीति अपनाई। उसने लॉकडाउन लगाया और टीकाकरण को गति दी। इससे उसकी अर्थव्यवस्था अब खुलने लगी है, जिससे लोगों की आजीविका में मदद मिल रही है। अपने यहां अगर अब भी सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो हालात काफी बिगड़ सकते हैं। आईएमएफ या विश्व बैंक जैसी संस्थाएं भारतीय अर्थव्यवस्था से उम्मीद जरूर लगा रही हैं, लेकिन उनकी रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों पर निर्भर होती हैं। जबकि कोरोना महामारी का असर सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र पर पड़ा है, जो सरकारी आंकड़े में शामिल नहीं है। आज जब कोरोना का कहर फिर से टूटा है, तब संगठित क्षेत्रों की हालत भी खासा खराब होने लगी है। मजदूरों के पलायन से सर्विस सेक्टर और उद्योग जगत को खासा नुकसान हो रहा है। इसलिए अर्थव्यवस्था को और ज्यादा खराब होने से बचाने के लिए भी हमें सख्त कदम उठाने चाहिए। यहां टुकडे़-टुकडे़ में लॉकडाउन का कोई फायदा नहीं होगा। दुखद तथ्य यह है कि इस बार बड़े पैमाने पर नौजवान और बच्चे भी वायरस का शिकार बन रहे हैं। नए-नए क्षेत्रों, खासकर उन शहरों में भी इसका प्रसार दिख रहा है, जहां  स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा काफी कमजोर है। इसलिए यदि हम यूं ही लापरवाही बरतते रहे, तो आने वाले दिन भयावह हो सकते हैं। इससे हमें आर्थिक व मनोवैज्ञानिक चोट पहुंच सकती है। इसके बाद सख्त कदमों का कोई अर्थ भी नहीं रह जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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